बुद्धिलाल पाल
मणिपुर में पुलिस के सेना के छह हजार से ऊपर हथियार लुट गए. सात लाख से ऊपर गोलियां लुट गई. तीन हजार से ऊपर खतरनाक व्यपन गोला बारूद गोले हथगोले लुट गए. वाह ! वाह ! एक भी पुलिसकर्मी, सेनाकर्मी इसमें न जख्मी हुआ, न शहीद हुआ.
अजीब है. यह कैसी लूट है, यह कैसी महिमा है ? न किसी नक्सली राज्य में, न कभी कश्मीर में हथियार लुटने देने कि ऐसी गंभीर अंधेरगर्दी नही हुई. हथियार न लुटने देने के प्रयास के पुलिस, सेना के कोई विरोध के कोई विशेष इनपुट भी नही मिलते हैं.
कुछ लोगों का कहना है कोई हथियार लुटे ही नही हैं, वह प्रायोजित रूप में बहुलतावादी मैतई लोगों में बांटे गए हैं. पुलिस एवम् सेना के जान माल का कहीं कोई नुकसान नहीं है. इससे इस बात को भी बल मिलता है कि ऐसा होना भी संभावित हो सकता है.
इस कहानी में लूटे हुए 95 प्रतिशत हथियार बहुलतावादी मतई लोगों के पास होना बताया जा रहा है, एवम् 5% प्रतिशत आदिवासी कुकी नागा के पास होना बताया जा रहा है. इससे साफ तौर पर यही बात सामने आती है कि यह हथियार बहुलतावादी लोगों के पास है.
अब यह असलहे लूटे गए हों या बांटे गए हों पर यह 95 प्रतिशत हथियार बहुलतावादी मैतई समुदाय के पास होना यह कहानी बताती है कि यह मामला दो तरफा संघर्ष का नही रह गया है. अब एकतरफा मैतई बहुलतावादी के माध्यम से सत्ता द्वारा नियोजित रूप में मणिपुर के आदिवासियों पर एकतरफा युद्ध की स्थिति है.
मणिपुर में आदिवासी स्त्रियों पुरुषों पर हमला, बलत्कार, हत्या, जान माल के नुकसान, आगजनी के रूप में सैकड़ों चर्चों के नष्ट करने के सिलसिला के रूप में एवम् हमेशा के लिए वहां के आदिवासियों को ऐतिहासिक सबक सिखाने के रूप में यह कहीं न कहीं सत्ता प्रायोजित रूप में चलने जैसे रूप में ही है.
बात अब बहुलतावादी हिंदुत्व के फासिज्म के रूप में है. एवम् लगे हाथ वहां के प्राकृतिक संसाधनों को हड़पने और पूंजीपति दोस्तों को देने की स्थिति को निर्विरोध बनाने के रूप में भी है.
मणिपुर की स्थिति गुजरात में जो हुआ था उससे भी बहुत ज्यादा खतरनाक स्थिति में है. वहां के आदिवासियों को जो वहां के मूल हैं, को विदेशी बताने का और मैतई जो उत्तरी भारत से जाकर वहां बसे हैं बाहरी हैं, उन्हें वहां के मूल निवासी बताने का खेला भी साथ साथ चल रहा है. मणिपुर को फिलहाल गैस चेंबर के रूप में परिवर्तित कर दिया गया है.
प्रधानमंत्री की लंबी चुप्पी और अभी तक वहां की स्थिति के बारे में कुछ न बोलना, शांति तक की अपील न करना यह सब बातें इसी ओर इशारा कर रही है कि मामला सत्ता प्रायोजित है.
जब तक बहाना है, अवसर है, तब तक इसे चलाया जाना है. उसकी न निंदा करना है, न वहां कि परिस्थितियों पर कुछ बोलना है, न शांति की अपील करना है, न असफल मुख्यमंत्री बदलना है, न ही इसे इतना गंभीर मानना है कि वहां आपात स्थिति समझते हुए वहां राष्ट्रपति शासन भी नहीं लगाना है.
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