मूर्खेंद्र मोदी को डमरू के तालों का अर्थ नहीं मालूम है. रोम जब जल रहा था नीरो बांसुरी बजा रहा था और बीस हज़ार बच्चे जब फंसे हुए हैं तब एक नरपिशाच डमरू बजाता है. वैसे बनारस में पांच सीटों पर भाजपा निश्चित हार रही है, दक्षिण बनारस के साथ साथ. रोड शो की भीड़ भाड़े पर लाए गए बाहरी लोगों का है – सुब्रतो चटर्जी
सौमित्र राय
देश इस वक़्त विकास और विनाश के अभूतपूर्व सवालों के बीच खड़ा है. भारत का लोकतंत्र भी ठीक इन दो प्रश्नों का विकल्प मांग रहा है. एक तरफ भीषण बेरोज़गारी, महंगाई, अराजकता और ध्वस्त हो रही इकॉनमी है तो दूसरी ओर जातिगत राजनीति और धर्म के रास्ते देश की सत्ता तक पहुंचने की वे तमाम कोशिशें हैं, जिनकी वजह से भारत की स्थिति दुनिया में लगातार नीचे आती जा रही है.
लाखों करोड़ के प्रोजेक्ट्स, जो ज़मीन पर दिखते भी हैं तो लोगों को उनके सरोकारों से जुड़े सवालों के जवाब नहीं दे पाते. दरअसल देश की राजनीति ही इन सवालों से दूर निजीकरण में हल तलाश रही है. इन सवालों के बीच कल प्रधानमंत्री काशी विश्वनाथ मंदिर में भक्तों के बीच डमरू बजाते नज़र आए.
क्या यह सिर्फ़ एक इत्तेफ़ाक़ है कि जिस काशी और गंगा के सहारे 2014 में नरेंद्र मोदी एक विशाल बहुमत से सत्ता में आये और जिस काशी विश्वनाथ मंदिर के गलियारे में वे डमरू बजा रहे थे, उसी शहर के विकास और विनाश के उन्हीं दो सवालों के बीच वे खुद भी खड़े दिख रहे थे ?
निश्चित रूप से मोदी का डमरू बजाना अखिलेश यादव के बीते 13 दिसंबर के उस बयान को चुनौती है, जिसमें उन्होंने कहा था कि अंतिम समय पर काशी से बेहतर और कोई जगह नहीं है. मोदी ने इसे चुनावी सभा में अपनी हत्या की साज़िश बताकर भुनाने की कोशिश की। बात नहीं बनी, क्योंकि विकास और विनाश के सवाल पर खड़ा लोकतंत्र उनसे जवाब मांग रहा था और प्रधानमंत्री के पास कोई जवाब है नहीं.
यूपी में 5 साल का योगी राज देश में लोकतंत्र के विनाश का जितना बड़ा उदाहरण बनकर उभरा है, उससे भी बड़ी मिसाल केंद्र और राज्य की डबल इंजन सरकार की अवाम से जुड़े सवालों को हल करने में नाकामी ने पेश की है.
कहते हैं शिव का डमरू 14 तरह की ध्वनियां निकालता है और हर ध्वनि के पीछे एक मंत्र गूंजता है. ये मंत्र एक लय में सृष्टि के विकास और विनाश दोनों को आमंत्रित कर सकते हैं, तो प्रधानमंत्री किसे बुलावा देना चाहते थे ?
दुनिया पर मंडराते युद्ध के बादलों के बीच भगवान शिव का डमरू यूं ही तो नहीं बजा होगा. इसे सिर्फ इत्तेफ़ाक़ या अखिलेश की जीत की हवा को चुनाव के अंतिम चरण से पहले आत्मविश्वास के अतिरेक में उल्लास दर्शाने वाला कहकर खारिज़ करना भी ठीक नहीं. तो फिर इस घटना के पीछे विधाता क्या कुछ कहना चाहता है ?
काशी विश्वनाथ मंदिर के महंत ने बीबीसी से साफ कहा है कि हजारों छोटे-छोटे मंदिरों और दुकानदारों को उजाड़कर बना मंदिर का गलियारा अब एक मॉल जैसा है। सरकार इसे ही विकास मानती है, लेकिन असल में यह रोज़गार, आजीविका और काशी के लोगों के उन छोटे-छोटे सपनों का विनाश है, जिन्हें पूरा करने की ज़िम्मेदारी वे पूरी आस्था के साथ बाबा विश्वनाथ पर छोड़ देते थे. अब बाबा उनसे दूर हो चुके हैं.
जो काशी नरेंद्र मोदी को दिल्ली तक ले गई, वह क्योटो तो नहीं बन सका, लेकिन इस कदर बेतरतीब विकास हुआ कि गडकरी को आकर हवाई बस, टैक्सी के जुमले उड़ाने पड़े. देश का सबसे ताकतवर व्यक्ति शहर के बाशिंदों की मूलभूत समस्यायों को भूलता चला गया.
बनारस रेलवे स्टेशन जाकर एक अनजान महिला के पैरों पर गिर जाना, कुल्हड़ वाली चाय पीना- ये सब इसलिए क्योंकि मोदी खुद जानते हैं कि उनसे सिलसिलेवार गलतियां हुई हैं और इसी का नतीज़ा है कि उनके लिए इस बार दिल्ली का रास्ता आसान नहीं है।
आज शाम 5 बजे चुनाव प्रचार खत्म होने तक वे बनारस में हैं. दिल्ली लौटते हुए कई सवाल उनके मन में होंगे. डमरू की आवाज़ शायद अंदर ही गूंज रही होगी – 14 ध्वनियां, 14 मंत्र, सृजन या प्रलय ? विकास या विनाश ?
वे भी जानते हैं कि चीजें उनके हाथ से निकल चुकी हैं. वे सिर्फ चेहरे बदल सकते हैं, लेकिन सिर्फ ताश के 52 पत्तों में से ही. विकल्प नहीं है. वक़्त भी नहीं है.
राज्यसभा में आंकड़ों का गणित सरकार के ख़िलाफ़ होने जा रहा है. नए सियासी जोड़तोड़ की ज़रूरत होगी. तब भी विकास और विनाश, यही दो सवाल फिर खड़े होंगे. तेल की कीमतें बढ़ेंगी तो महंगाई के साथ लोगों का गुस्सा भी उबलेगा.
बनारस की 8 में से 1 भी सीट पर हार का मतलब यही निकाला जाएगा कि प्रधानमंत्री और काशी, नरेंद्र मोदी और बाबा विश्वनाथ के बीच मनमुटाव पैदा हो चुका है लेकिन अब तो 3 से 4 सीटों पर पेंच फंसा है.
ऐसे किसी भी नतीज़े का यह भी मतलब निकाला जा सकता है कि कल रोड शो में जो भीड़ प्रधानमंत्री के साथ चल रही थी, वह क्या उन्हें विदा करने आई थी ?
मोदी की साख दांव पर है। उनका विकासवादी स्वांग और विनाशकारी कृत्य उजागर हो चुका है. देश भुगत रहा है. काशी भुगत रही है. मां गंगा भुगत रही है और सबसे ज़्यादा बाबा विश्वनाथ दुःखी होंगे कि जिस लकड़हारे के अनजाने में फेंके गए बेलपत्रों से ही वे खुश होकर वरदान देते हैं, उसी लकड़हारे, मछुआरे, बुनकरों के प्राण संकट में हैं – सिर्फ एक व्यक्ति की वजह से, नरेंद्र दामोदरदास मोदी.
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