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अंबादानी जैसे पूंजीपतियों के हाथों सेना की छावनी की जमीनें बेचेगी मोदी सरकार

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अंबादानी जैसे पूंजीपतियों के हाथों सेना की छावनी की जमीनें बेचेगी मोदी सरकार

girish malviyaगिरीश मालवीय

73 वे गणतंत्र दिवस के मौके पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को सेना की परेड की सलामी लेते यदि देख रहे हैं तो यह पोस्ट भी ध्यान से पढ़ लीजिए क्योंकि अडानी अंबानी जैसे पूंजीपतियों के हाथो बिकी हुई सरकार आने वाले संसद सत्र में एक ऐसा बिल पास कराने जा रही हैं जिसके कारण देश भर में फैली हुई सेना की छावनी की जमीने नीलाम हो सकती हैं

दरअसल सेना के पास देश में रेलवे से भी अधिक संपत्ति है. मोदी सरकार की नजर इसी संपत्ति पर है. रक्षा मंत्रालय के अधिकार में कुल 17.95 लाख एकड़ जमीन है, जिसमें से 16.35 लाख एकड़ जमीन देश भर में फैली 62 छावनियों से बाहर है.

छावनी इलाके में जो जमीन होगी, उसकी तो कीमत का निर्धारण एक समिति करेगी, जिसकी अगुवाई स्थानीय सैनिक अधिकारी करेंगे लेकिन छावनी से बाहर की जमीन का मूल्य निर्धारण जिलाधिकारी करेंगे. यानी कलेक्टर जो कीमत निर्धारित करे उसे उसी कीमत पर बेच दिया जाएगा, यही असली खेल होंगे क्योंकि पिछले कुछ दशकों में हुए शहरीकरण ने इन इलाकों को ज्यादातर शहरों के बीचोंबीच ला दिया है.

अप्रैल 1801 में अंग्रेज सरकार ने बाकायदा यह नियम बना दिया था कि कोई भी व्यक्ति जो सेना में शामिल नहीं है, वह छावनी इलाके में न तो कोई संपत्ति खरीद सकता है, न रख सकता है. छावनी क्षेत्र की जमीनों की खरीदफरोख्त नहीं हो सकती है, केवल जमीन के ऊपर बने स्ट्रक्चर यानी ढांचे की खरीद बिक्री हो सकती है. लेकिन अब केंद्र की मोदी सरकार ब्रिटिश राज के इस पुराने नियमों में बदलाव करने जा रही है. अगर सेना इस जमीन का इस्तेमाल नहीं कर रही, तो इसे बेचा जा सकता है.

पिछले दिनों खबर आई है कि लाखों एकड़ रक्षा भूमि के सर्वेक्षण के लिए ड्रोन इमेजरी (ड्रोन के जरिये चित्र) आधारित सर्वेक्षण तकनीक का उपयोग कर सर्वेक्षण को पूरा कर लिया गया है. यानी सब सेटिंग हो चुकी हैं.

यहां ये भी जान लीजिए कि 16.35 लाख एकड़ जमीन खाली नहीं है. अधिकांश जमीन पर खेती हो रही है. अभी तक छावनी क्षेत्र में रहने वाले किसान आसानी से खेती कर पा रहे थे, हालांकि इन्हें जमीन का मालिकाना हक नहीं मिला था. लेकिन कलेक्टर इनके पट्टे बना देता था. इन लोगों का गुजर-बसर चल रहा था.

छावनी भूमियों के लिए केंद्र सरकार छावनी भूमि प्रशासन नियम ला रही है. इस नियम के तहत छावनी क्षेत्र में रहने वाले किसानों को मात्र 4 साल का पट्टा मिलेगा, जो कैंट बोर्ट देगा. जबलपुर में छावनी की भूमि पर खेती करने वाले किसानों का कहना है कि भारत सरकार का यह नियम अंग्रेजों के नियम से भी खराब है.

यदि यह नियम आ गया तो कैंट बोर्ड किसी के पट्टे रिन्यू नहीं करेगा. जब चाहेगा तब किसानों को बेदखल कर देगा. इसके साथ ही अपनी ही जमीनों पर किसान ना तो ट्यूबेल करवा सकता है, ना कोई निर्माण कार्य कर सकता है. ना इसे बेच सकता है, ना इसे खरीद सकता है. जबलपुर के किसानों का कहना है कि इससे अच्छा तो अंग्रेजों का ही कानून था. कम से कम उसकी वजह से बीते 100 सालों से इस जमीन से गुजर बसर तो कर रहे थे.

सेना की कुल 17.95 लाख एकड़ जमीन को बेचने की इस योजना को सेनाओं के आधुनिकीकरण से जोड़ा जा रहा है लेकिन इन जमीनों से असली फायदा कौन उठाएगा, हम सब जानते हैं.

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इन चुनावों में महंगाई मुद्दा क्यों नहीं है ? कोराना काल में जहां हर आम आदमी की आमदनी की घटी है, वहीं महंगाई इस वक्त सुरसा के मुंह की तरह और विशाल हो रही हैं और बचत तो खत्म ही हो गई है. क्या यह कोई ढंकी छिपी बात हैं कि सरकार रोजगार के मोर्चे पर बिल्कुल फेल सिद्ध हुई है ? यूपी बिहार में अभी जो रेलवे की परीक्षा देने वाले छात्र हिंसक हो रहे हैं, वे बता रहे हैं कि रोज़गार की समस्या किस कदर गहराती जा रही है उसके बावजूद रोजगार चुनावी मुद्दा नहीं है ?

कई दशकों बाद ऐसा किसान आंदोलन हुआ है, क्या किसानों की आमदनी दुगुनी हुईं है ? नही ! बिल्कुल नहीं, बल्कि डीजल के महंगे होने से कृषि की लागत पहले से ज्यादा बढ़ गई है लेकिन यह मुद्दा चुनाव में क्यों नहीं हैं ? चरमराती हुई स्वास्थ्य सेवाओं का मुद्दा यूपी चुनाव में क्यों नहीं हैं ? क्या गंगा किनारे लाशों के ढेर को भी हम भूल गए हैं ?

यह सारी बातें एक आम आदमी होने के नाते जेहन में आ रही हैं. एक बात और भी आ रही है कि ऐसा भी हो सकता है कि इस बार प्रदेश की जनता इन्हीं मुद्दों पर वोट करेगी ? शायद एक तरह का अंडर करंट है जनता में ! और इसी कारण से सरकार का गुलाम मीडिया पूरी तरह से हमारा ध्यान डायवर्ट कर वही हिंदू – मुस्लिम बाइनरी की तरफ मोड़ दे रहा है. देखते हैं 10 मार्च को क्या रिजल्ट आता है.

देश के गणतंत्र की ऐसी ही हालत पर हरिशंकर परसाई ने इंदिरा गांधी के शासनकाल में लिखा था – ‘मैं ओवरकोट में हाथ डाले परेड देखता हूं. प्रधानमंत्री किसी विदेशी मेहमान के साथ खुली गाड़ी में निकलती हैं. रेडियो टिप्पणीकार कहता है, ‘घोर करतल-ध्वनि हो रही है.’ मैं देख रहा हूं, नहीं हो रही है. हम सब तो कोट में हाथ डाले बैठे हैं. बाहर निकालने का जी नहीं हो रहा है. हाथ अकड़ जाएंगे. लेकिन हम नहीं बजा रहे हैं, फिर भी तालियां बज रहीं हैं. मैदान में जमीन पर बैठे वे लोग बजा रहे हैं, जिनके पास हाथ गरमाने के लिए कोट नहीं है.

‘लगता है, गणतंत्र ठिठुरते हुए हाथों की तालियों पर टिका है. गणतंत्र को उन्हीं हाथों की ताली मिलतीं हैं, जिनके मालिक के पास हाथ छिपाने के लिए गर्म कपड़ा नहीं है. पर कुछ लोग कहते हैं, ‘गरीबी मिटनी चाहिए.’ तभी दूसरे कहते हैं, ‘ऐसा कहने वाले प्रजातंत्र के लिए खतरा पैदा कर रहे हैं.’

‘गणतंत्र समारोह में हर राज्य की झांकी निकलती है. ये अपने राज्य का सही प्रतिनिधित्व नहीं करतीं. ‘सत्यमेव जयते’ हमारा मोटो है मगर झांकियां झूठ बोलती हैं. इनमें विकास-कार्य, जनजीवन, इतिहास आदि रहते हैं. असल में हर राज्य को उस विशिष्ट बात को यहां प्रदर्शित करना चाहिए, जिसके कारण पिछले साल वह राज्य मशहूर हुआ.

‘गुजरात की झांकी में इस साल दंगे का दृश्य होना चाहिए. जलता हुआ घर और आग में झोंके जाते बच्चे. पिछले साल मैंने उम्मीद की थी कि आंध्र की झांकी में हरिजन जलते हुए दिखाए जाएंगे. मगर ऐसा नहीं दिखा. यह कितना बड़ा झूठ है कि कोई राज्य दंगे के कारण अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति पाए, लेकिन झांकी सजाए लघु उद्योगों की. दंगे से अच्छा गृह-उद्योग तो इस देश में दूसरा है नहीं.’

आज अगर हरिशंकर परसाई होते और इसी आलेख को लिखते तो निःसंदेह इससे भी ज्यादा लिखते और इंदिरा कार्यकाल को स्वर्णिम दौर कहते.

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