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हिटलर के ‘समग्र राज्य’ की अवधारणा पर चलती मोदी सरकार

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भारत का शासक अब खुलकर अधिनायकवाद की हिमायत कर रहा हैं. सारी दुनिया में भारत की 135 करोड़ जनता का अपमान कर रहा है. जेनेवा में भारतीय वक्ताओं ने नागरिक अधिकार हनन की जिस तरह हिमायत की है, वह निंदनीय है. महान्यायवादी शातिर तुषार मेहता का वहां दिया गया भाषण निंदनीय है. जिसका दुनिया के तमाम देशों ने कडी निंदा भी की है.

ग्रीस, नीदरलैंड, वैटिकन सिटी, लग्ज़मबर्ग, आयरलैंड, दक्षिण कोरिया, लिथुआनिया, बेल्जियम, मालदीव, मेक्सिको, अमेरिका, इजरायल के साथ-साथ मित्र देश रुस यहां तक की नेपाल ने भी भारत सरकार से धार्मिक स्वतंत्रता सुनिश्चित करने और मानवाधिकार संगठनों और अल्पसंख्यकों के अधिकारों के ख़िलाफ़ भेदभाव पर रोकने और भारत को सभी मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को तुरंत रिहा करने का मांग किया.

वहीं, इंडियन अमेरिकन मुस्लिम काउंसिल ने ‘महान्यायवादी’ तुषार मेहता के भाषण को ‘झूठ का पुलिंदा’ बताते हुए साफ कहा है कि ‘नरेंद्र मोदी की सरकार सदस्य देशों के सुझाव को नज़र अंदाज़ करेगी और अल्पसंख्यकों पर अत्याचार करती रहेगी.’ इसकी पुष्टि करते हुए सामाजिक कार्यकर्ता जॉन दयाल कहते हैं –

‘विभिन्न देशों की आलोचनाओं का भारत पर बहुत ज़्यादा असर नहीं होता. इन मुद्दों को सिरे से ख़ारिज कर देना भारत की आदत है. अगर आप प्रताड़ना की ही बात करें तो हमारा लॉ एंड ऑर्डर सिस्टम प्रताड़ना पर आधारित है, फोरेंसिक पर नहीं.’

‘रात देशों ने खुलकर इन मुद्दों पर बात की लेकिन ये भी ध्यान देने वाली बात है कि भारत बहुत बड़ा ख़रीदार है चाहे वो हथियारों का हो, सबमरीन हो या तेल हो जिस कारण दूसरे देशों की अर्थव्यवस्था को इससे बहुत मदद मिलती है. साथ ही भारत टेक्निकल लेबर को एक्सपोर्ट करता है जैसे कंप्यूटर इंजीनियर, आईटी से जुड़े लोग. अगर आप मैनवापर एक्सपोर्ट करते हैं और हथियार, तेल आयात करते हैं तो आपकी जल्दी कोई आलोचना नहीं करता.’

लेकिन घनघोर आशावादी स्तंभकार और एमनेस्टी इंटरनेशनल के पूर्व कार्यकारी निदेशक आकार पटेल कहते हैं –

‘अगर आप ये मानकर चल रहे हैं कि इन बातों का कोई असर नहीं होगा, तो ये ग़लत है, लेकिन ये भी नहीं मान लेना चाहिए कि सरकार तुरंत कड़े कदम उठाएगी तो ये भी सही नहीं है. अगर दुश्मन देश सुझाव दें, तो शायद फ़र्क नहीं पड़ता, लेकिन जब मित्र देश कहते हैं, तो दबाव ज़रूर पड़ता है.

लेकिन जिस निर्लज्जता और दृढता के साथ तुषार मेहता ने भारत के नागरिकों के मानवाधिकार हनन को उचित बताया और दलीलें दिया है, वह और कुछ नहीं हिटलर के ‘समग्र राज्य’ की परिकल्पना को समर्थन देना है. यही कारण है कि देश की तमाम संवैधानिक संस्थान, यहां तक कि सुप्रीम कोर्ट, चुनाव आयोग भी आज आरएसएस के पूर्ण नियंत्रण में है और अब सेना में पूरी तरह नियंत्रित करने पर कार्य चल रहा है.

सेना के अंदर अपने गुर्गों को भेजने का काम पहले से ही चल ही रहा था अब अग्निवीर जैसे योजना के तहत यह कार्य बड़े पैमाने पर किया जा रहा है ताकि विरोधियों खासकर माओवादी को झटके में खत्म करने का अभियान चलाया जा सके. इसके साथ ही एक बड़े पैमाने पर अपराधियों के गिरोह को खड़ा किया जा रहा है, जिससे नागरिकों को शारीरिक तौर पर खत्म किया जा सके, उसे आतंकित रखा जा सके.

इसीलिए पेशेवर हत्यारे, बलात्कारियों को जेलों से बाहर निकाला जा रहा है, भ्रष्टाचारियों को बचाया जा रहा है और मानवाधिकार की बात करने वालों को बदनाम करने का अभियान चला कर जेलों में बंद किया जा रहा है और उनकी हत्या की जा रही है. कलकत्‍ता वि‍श्‍ववि‍द्यालय के हि‍न्‍दी वि‍भाग में प्रोफेसर डॉ. जगदीश्‍वर चतुर्वेदी अपने ब्लॉग पेज पर हिटलर के ‘समग्र राज्य’ की अवधारणा और उसके पदचिन्हों पर चलते संघी ऐजेंट मोदी सरकार के राज्य परिकल्पना को बेहतरीन तरीके से पर्दाफाश किया है, जिसे नीचे प्रस्तुत किया जा रहा है.

मोदी सरकार तेज़ गति से ‘समग्र राज्य’ ‘टोटल स्टेट’ के निर्माण में लगी है. उसे बहुलतावादी लिबरल राज्य-राष्ट्र नहीं चाहिए, उनको सिर्फ़ भारत चाहिए. भारत की उनकी परिकल्पना असल में धर्मनिरपेक्ष बहुलतावादी राज्य-राष्ट्र की परिकल्पना से एकदम भिन्न है. वे भारत की जब बातें करते हैं तो इकसार और एकरुप भारत की बातें करते हैं. उनके भारत की अवधारणा बहुत कुछ हिटलर के टोटल स्टेट की धारणा से मिलती-जुलती है. यह बुनियादी तौर पर लिबरल राज्य-राष्ट्र की धारणा के विपरीत है. यह मूलतः सर्वसत्तावाद है. इसको तानाशाही या अधिनायकवाद भी कहते हैं. तानाशाह को ‘समग्र राज्य’ चाहिए. उस राज्य में किसी और के लिए कोई जगह नहीं होगी. राज्य के जर्रे-जर्रे पर वह अपना वर्चस्व देखना चाहता है.

जर्मनी फ़ासिस्ट शासकों ने राज्य के साथ व्यक्ति और समाज को अंतर्गृथित करके देखा. वे व्यक्ति और समाज को अलग करके देखते ही नहीं थे. राज्य जैसा होगा व्यक्ति और समाज भी वैसा ही होगा. राज्य जैसा सोचेगा, व्यक्ति और समाज भी वही सोचेगा. व्यक्ति के मूल्य, विचार, धार्मिक विश्वास और आस्थाएं, वैज्ञानिक ज्ञान आदि सब कुछ राज्य तय करेगा या फिर उसे राज्य के अनुरुप होना होगा. व्यक्ति की अस्मिता को राज्य की अस्मिता के अनुकूल होना होगा. यह राज्य और व्यक्ति के संबंध का सर्वसत्तावादी नज़रिया है. सतह पर यह संबंध व्यवहारिक लगता है क्योंकि राज्य का काम है व्यक्ति की सेवा करना, समाज और संस्कृति की सेवा करना.

सर्वसत्तावादी यह मानता है राज्य और राष्ट्र की एक ही विचारधारा होनी चाहिए. मसलन् युद्ध के समय हमें युद्ध में शामिल होना चाहिए या युद्ध का समर्थन करना चाहिए. इसी तरह अदृश्य-फेक शत्रु के ख़िलाफ़ हमेशा राज्य के साथ एकजुट रहना चाहिए, कभी एकजुटता नहीं तोड़नी चाहिए, इससे राष्ट्रीय चेतना के निर्माण में मदद मिलती है. इसके आधार पर ही हम मित्र और शत्रु का फ़ैसला करें.

मुसोलिनी के अनुसार फ़ासिस्ट चिन्तन का केन्द्रीय तत्व है स्टेट यानी राज्य. फासिज्म में राज्य सर्वोच्च स्थान रखता है, व्यक्ति और समूह से उसका ऊपर स्थान है. मुसोलिनी का निबंध ‘दि डॉक्ट्रीन ऑफ फासिज्म’, असल में गिओवानी जेनटेली ने लिखा था. वह फासिज्म के इटली में सिद्धांतकार थे. गिओवानी ने अपने एक अन्य निबंध में लिखा कि राज्य का निर्माण सिद्धांत ने नहीं किया, बल्कि राज्य तो पूरी तरह आध्यात्मिकता की सृष्टि है.

इसी तरह की धारणा एक फ़ासिस्ट सिद्धांतकार और दार्शनिक कार्ल स्मिट ने व्यक्त की. स्मिट ने लिखा ‘समग्र राज्य’ माने सरकार का जीवन के प्रत्येक क्षेत्र पर शासन. वह ‘राज्य और समाज’ की अस्मिता का परिणाम है.’ समग्र राज्य (टोटल स्टेट) की अवधारणा पर उपरोक्त दोनों विद्वानों ने ज़ोर दिया. वहीं गिओवानी ने लिखा कि यह नैतिक राज्य (एथिकल स्टेट) है. उल्लेखनीय है कार्ल स्मिट ने सन् 1933 में जर्मनी में नाजी पार्टी की सदस्यता ली. नाजी विचारधारा के प्रति वचनवद्ध रहे. सन् 1985 में उनकी मृत्यु हुई.

‘समग्र राज्य’ या ‘टोटल स्टेट’ की अवधारणा क्या है ? कार्ल स्मिट की एक किताब है ‘फ़ोर आर्टिकल्स’ (1931-1938). इसमें चार लेख हैं. इन लेखों की धारणाओं का पीएम मोदी ने जाने-अनजाने राजनीतिक आचरण में व्यापक इस्तेमाल किया है. इसमें पहला लेख है ‘टोटल स्टेट’, इस निबंध में ‘समग्र राज्य’ पर लिखा जनता, समाज और राज्य को एक जैसा होना चाहिए. पहले समाज और व्यक्ति, राज्य के विरूद्ध खड़े होते थे लेकिन अब राज्य के अनुकूल रहकर बुनियादी तौर पर समाज को निर्मित करना होगा. सामाजिक और आर्थिक समस्याएं स्वतः राज्य की समस्याएं हो जाएंगी.

इसके बाद राज्य और राजनीति, सामाजिक और अ-राजनीतिक के परिवेश के बीच का भेद ख़त्म हो जाएगा, इनमें अंतर करना मुश्किल होगा. सभी पुराने विवाद सहज ढ़ंग से सुलझा लिए जाएंगे क्योंकि राज्य तटस्थ होगा. ये विवाद इसलिए उठे क्योंकि राज्य और समाज में अंतर था. ’समग्र राज्य’ में राज्य और समाज का अंतर ख़त्म हो जाता है. राज्य और समाज के बीच के भेद और ग़लत धारणाएं भी दुरुस्त हो जाती हैं. राजनीति और अर्थव्यवस्था, राजनीति और शिक्षा, राजनीति और धर्म, राज्य और क़ानून, राजनीति और क़ानून के बीच का अंतर ख़त्म हो जाता है.

विभिन्न क्षेत्रों के साथ राज्य का जो अंतर है वह आधारहीन हो जाता है. कहने का आशय यह है कि राज्य के साथ सभी संरचनाओं के अंतर अर्थहीन हो जाते हैं. इससे राज्य का चरित्र बदलता है. यह राज्य सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक, कल्याणकारी और सामाजिक सुरक्षा देने का दावा करता है. राज्य स्वतः ही समाज को संगठित करता है. उसे राज्य से अलग करना असंभव होगा.

कार्ल स्मिट के अनुसार वास्तविकता यह है कि समग्र राज्य सभी क़िस्म के सामाजिक साझा मानवीय रुपों को ख़त्म कर देता है. समाज का कोई भी क्षेत्र नहीं बचता जो राज्य से तटस्थ हो. समाज के सभी क्षेत्र और राजनीति इस नए राज्य में समायोजित कर लिए जाते हैं. राज्य ने स्वाभाविक तौर पर तीन चरणों से गुजरकर अपना विकास किया है. पूर्ण राज्य, जो सत्रहवीं-अठारहवीं शताब्दी में बना.

उदार राज्य उन्नीसवीं शताब्दी में बना और अब (हिटलर युग में) संभावित समग्र राज्य (टोटल स्टेट) बनने जा रहा है. इसमें समाज और राज्य के बीच में भेद नहीं होगा. पहले राज्य के पास अधिकतम संसाधन थे, लेकिन समग्र राज्य के आते ही जर्मनी में बड़ी संख्या में राष्ट्रीय आय और संपदा को मुक्त अर्थव्यवस्था और मुक्त बाज़ार के हवाले कर दिया.

‘समग्र राज्य’ में पुरानी बहुदलीय प्रणाली चलने वाली नहीं है. यह पुराने क़िस्म के राजवंशों की तरह है जो विभिन्न राज्यों में फैले हुए हैं. यह एक तरह से लोकतंत्र और राजवंश का रिश्ता है. इसके आधार पर बहुलतावाद के नाम पर राज्य का विभाजन किया गया था. यह नग्न बहुलतावाद है. संसद के बाहर बहुलतावाद के अनेक धड़े अलग गुट या दल के रुप में काम कर रहे हैं, इससे राज्य की एकता प्रभावित हुई है.

बहुदलीय पार्टी सिस्टम ख़त्म किया जाय, उसकी जगह मज़दूर, किसान, छात्र, युवा, स्त्री आदि के प्रतिनिधियों को संसद में सीधे प्रतिनिधित्व दिया जाय. इसे सीधे समुदायों से जुड़ने की नीति के रुप में देखा जाय. इसके ज़रिए राज्य के साथ बहुसंख्यक समाज जुड़ेगा. पीएम मोदी इस अवधारणा का पालन करते हुए लिबरल राजनीतिक दलों के सफाए में लगे हैं, वे बार बार राज्यों में जनप्रिय राजनीतिक दलों पर दवाब पैदा कर रहे हैं कि वे दल उनके साथ आएं या फिर उनको नष्ट कर दिया जाएगा.

वे परिवारवाद के नाम पर उन पर हमले कर रहे हैं. वे बार-बार वही बात कहते हैं जिसे कार्ल स्मिट ने रेखांकित किया है. स्मिट ने लिखा फ़ेडरल ढांचा एक तरह से पुराने क़िस्म की राजशाही है और उसे चलाने वाले लिबरल राजनीतिक दल पुराने राजा हैं, इसे ही मोदी परिवारवाद कहते हैं. राज्य में सक्रिय लिबरल राजनीतिक दलों पर हमले की नीति मूलतः हिटलर के समग्र राज्य की अवधारणा के अनुरुप विकसित की गई है. यह लिबरल राजनीतिक दलों को नष्ट करने की नीति है.

मोदी इस नीति पर चलते हुए किसी भी क़िस्म की नैतिकता, नीति और राजनीतिक सभ्यता का पालन नहीं कर रहे. इस क्रम में उन्होंने विधानसभा चुनाव अप्रासंगिक बना दिए हैं. कोई विपक्षी दल यदि जीत भी जाए तो मोदी अपनी सारी शक्ति लगाकर विधायकों की ख़रीद करते हैं, ईडी-सीबीआई के ज़रिए आतंकित करते हैं और उस दल को ख़त्म करते हैं, लोकतंत्र में व्यक्त जनता की राय को अस्वीकार करते हैं.

राज्यों में लोकतंत्र को ख़त्म करने की कोशिश के क्रम में वे सबसे पहले विधानसभा चुनाव के पहले उस दल को तोड़ने की कोशिश करते हैं, इसके बाद चुनाव जीतने के लिए बेशुमार पैसा खर्च करते हैं. इसके बावजूद यदि विपक्षी दल चुनाव जीत जाए तो उसे सरकार नहीं बनाने देते. इस कार्यशैली का समग्र राज्य की फ़ासिस्ट नीति से गहरा संबंध है. फासिस्ट नीति है येन-केन प्रकारेण लिबरल राजनीतिक दलों को ख़त्म करो. राष्ट्र के अंदर सक्रिय संघीय व्यवस्था और स्वायत्त राज्य शासन प्रणाली ख़त्म करो.

‘फ़ोर आर्टिकिल्स’ किताब में दूसरा महत्वपूर्ण निबंध है ‘फरदर डवलपमेंट ऑफ दि टोटल स्टेट इन जर्मनी’ में कार्ल स्मिट ने लिखा है –

‘दस वर्ष पहले एक सफल लेखक और बड़ी हस्ती ने मुझे आश्वासन दिया कि सभी क़िस्म की राजनीति और राजनेताओं का ख़ात्मा कर दिया जाएगा. सभी समस्याओं का ख़ात्मा हो जाएगा. समस्याओं पर रेडीकल अ-राजनीतिकरण के रुप में सोचो. सभी सवालों के बारे में तकनीकीविद, अर्थशास्त्री, कानूनवेत्ता आदि शुद्ध वस्तुगत आधार पर फ़ैसले लेंगे.

‘हम लोग 1919 से 1924 के बीच बर्लिन और जेनेवा में अनेक गोष्ठियों-सम्मेलनों में गए. वहां पाया कि ‘अ-राजनीतिकरण’ एक व्यवहारिक राजनीतिक समाधान है. इसके ज़रिए अप्रिय समस्याओं से बचा जा सकता है. परिवर्तनों के रास्ते में आने वाली बाधाओं से बचा जा सकता है क्योंकि ये परिवर्तन अनिवार्य हैं लेकिन उस समय यह मिशन सफल नहीं हो पाया. ‘गैर-राजनीतिक’ होने की जब बातें कही जा रही थीं तो इस तथ्य की अनदेखी की गई कि सभी समस्याएं राजनीतिक हैं. ऐसे में उनके अ-राजनीतिक समाधान कैसे निकाले जा सकते हैं. उसके बाद हम जर्मनी में हर क्षेत्र के राजनीतिकरण के काम में लग गए.

‘हमने आर्थिक, सांस्कृतिक, धार्मिक और अन्य क्षेत्रों के साथ मानवीय अस्तित्व के सवालों का भी राजनीतिकरण किया. तकनीकी विकास का हमारे लिए मक़सद था जनता को कैसे प्रभावित किया जाय ? उस समय जर्मनी में प्रेस को स्वतंत्रता प्राप्त थी. सभी क़िस्म की पाबंदियों के बावजूद मीडिया की स्वतंत्रता बरकरार थी. ऐसी अवस्था में हमने मेनीपुलेशन की पद्धति का इस्तेमाल किया.’

आंदोलन और प्रौपेगैंडा के ज़रिए जनता की चेतना को मेनीपुलेट किया. मेनीपुलेशन को प्रभावशाली औज़ार के रुप में विकसित किया. मेनीपुलेशन के प्रभावशाली इस्तेमाल के कारण कोई प्रेस सेंसरशिप के बारे में सोच भी नहीं पाया. इस विचार से प्रेरणा लेकर मेनीपुलेशन और प्रौपेगैंडा की नीति को पीएम मोदी ने बड़े प्रभावशाली ढंग से सेंसरशिप लगाए बिना लागू किया है. यह पद्धति ‘समग्र राज्य’ के फ़्रेमवर्क का हिस्सा है.

‘समग्र राज्य’ का फ़ार्मूला है जनता को प्रभावित करो, जनता को फुसलाओ. जनता की चेतना को मेनीपुलेट करो. सामूहिक राय को मेनीपुलेट करो. यह ‘समग्र राज्य’ का लक्ष्य है. जबकि उस समय यानी 1920 के आसपास रेडियो और फ़िल्म पर राज्य का क़ब्ज़ा था. ये माध्यम 19वीं शताब्दी के विचारों और मूल्यों को प्रचारित कर रहे थे.

ऐसी अवस्था में मेनीपुलेशन के ज़रिए समग्र राज्य की धारणा ताकतवर रुप में उभरकर सामने आई. मेनीपुलेशन की ताक़त के सामने रेडियो और फ़िल्म की लिबरल प्रचार ताक़त धराशायी हो गयी. दोनों माध्यम मेनीपुलेशन के औज़ार बना दिए गए. ये माध्यम आम लोगों की भाषा और विचारों को प्रभावित करने की व्यापक क्षमता रखते थे.

अपने शासन और विचारों के विस्तार के लिए हिटलर ने रेडियो और फ़िल्म का प्रभावशाली ढंग से इस्तेमाल किया. उसके प्रौपेगैंडा के दो महत्वपूर्ण तत्व थे – लिबरलिज्म का विरोध और विचारों का मेनीपुलेशन. विचारों के प्रचार में मेनीपुलेशन की कला को हिटलर ने विलक्षण ढंग से विकसित किया. पीएम मोदी के प्रौपेगैंडा में ये दोनों तत्व व्यापक रुप में इस्तेमाल किए जा रहे हैं.

हिटलर के आने के पहले जर्मनी में ‘समग्र राज्य’ नहीं था. विभिन्न दल और सामाजिक समुदायों का बहुलतावाद मिलकर राष्ट्रीय समग्रता निर्मित करता था. हरेक दल की इसमें भूमिका थी लेकिन हिटलर के आने के साथ ही समग्रता के इस मॉडल को तोड़ दिया, उसकी जगह ‘समग्र राज्य’ के फ़ासिस्ट मॉडल को लागू किया गया. इस मॉडल को लागू करते हुए विभिन्न दलों को तोड़ा गया, उन पर दवाब बनाया गया, फिर वे अपने आप टूट गए. ख़ासकर पुराने लिबरल शैली के राजनीतिक दल टूट गए.

’समग्र राज्य’ और ‘समग्र राजनीतिकरण’ अपरिहार्य बना दिया गया. इसने आधुनिक लिबरल बहुलतावादी राज्य को पूरी तरह नष्ट कर दिया. पीएम मोदी के नए भारत के नक़्शे में पुराने लिबरल भारत की कोई जगह नहीं है. लिबरल भारत के दलीय बहुलतावाद के लिए कोई स्थान नहीं है. हर चीज का मोदीकरण किया जा रहा है. मोदी है तो सही है. यही वह बुनियादी नारा है जिसके ज़रिए आम जनता की चेतना और राय को मेनीपुलेट किया जा रहा है.

‘समग्र राज्य’ में बर्बरता आम फिनोमिना है. जर्मनी में समग्र राज्य का काम था जनता की जासूसी करना, अ-जर्मन और गैर-ईसाई कहकर जनता के अधिकारों पर हमले करना, उनके नागरिक अधिकारों को छीनना या निष्क्रिय करना. राज्य की प्रत्येक सेवा पर नाजियों का राजनीतिक वर्चस्व स्थापित करता गया. राजनीतिक वर्चस्व के ज़रिए यह संदेश दिया गया कि ‘समग्र राज्य’ जेनुइन है. समाज उसकी शक्ति से प्रभावित है।

यह प्रचार किया कि राज्य तकनीकी प्रगति कर रहा है, तकनीकी प्रगति का अर्थ है – सैन्य शक्ति का विकास. इसके लिए राज्यों को अबाध शक्तियां दी गईं. तकनीक से जनता को जोड़ने पर ज़ोर दिया गया. यही फ़ार्मूला मोदी ने अपनाया है. आज हरेक नागरिक तकनीक के किसी न किसी रुप के ज़रिए राज्य की निगरानी के दायरे में आ चुका है. इसके सामने पुराने क़िस्म का राज्य, उसकी शक्ति और प्रतिरोध कमजोर नज़र आने लगे हैं.

‘समग्र राज्य’ की शक्तिशाली इमेज के सामने जनता के जुलूस, धरने, आंदोलन, बेरीकेड  बेअसर हैं अथवा राज्य इनकी अनुमति नहीं देता. उल्लेखनीय प्रत्येक राजनीतिक शक्ति अपने साथ नए राजनीतिक औज़ार लेकर आती है. यदि उसमें नए अस्त्र हासिल करने या नए राजनीतिक औज़ार नहीं हैं तो दूसरी शक्तियां राज्य को हथिया लेती हैं. पहले लोकतंत्र महान था, हिटलर के आने के बाद ‘राजनीतिक शक्ति’ और ‘नायक की राजनीति’ की जय-जयकार होने लगी.

भारत में भी लोग कहने लगे हैं, अब धरने, जुलूस आंदोलन से कुछ नहीं होने वाला. मीडिया इस काम में अग्रणी भूमिका निभा रहा है, क्योंकि मोदी सरकार चाहती है जुलूस, धरने, आंदोलन आदि के बारे में आम लोग नकारात्मक ढंग से सोचें. आंदोलनकारियों से जनता नफ़रत करे, जनांदोलन बुरी चीज है, इससे विकास बाधित होता है. जो जनांदोलन कर रहे हैं वे विकास विरोधी हैं.

मोदी सरकार, भाजपा और मीडिया मिलकर जनांदोलनों के ख़िलाफ़ अहर्निश विषवमन कर रही हैं. इससे आम लोगों के एक वर्ग में जनांदोलन, आंदोलनकारियों और मानवाधिकारों की रक्षा के लिए लड़ने वालों के प्रति नफ़रत पैदा हुई है. लोकतंत्र से यह वर्ग नफ़रत करने लगा है. यही वह प्रौपेगैंडा मॉडल है जिसे ‘नए भारत’ के निर्माण के नाम पर पीएम मोदी ने विकसित किया है. ’नए भारत’ का मॉडल और कुछ नहीं हिटलर के ‘समग्र राज्य’ के मॉडल की शत-प्रतिशत नक़ल है.

‘समग्र राज्य’ का पहला लक्ष्य है जनता को दुरुस्त करना, अपने पीछे गोलबंद करना. हिटलर के सत्ता में आने के समय जर्मनी में जनता पूरी तरह हिटलर के पीछे गोलबंद नहीं थी जबकि वह चुनाव जीतकर आया था. उसने सत्ता में आने के बाद जीवन और मनुष्यों की गतिविधि के हरेक क्षेत्र पर हमला बोला. आम जनता को अपने पीछे गोलबंद किया. उसने राज्य के नियंत्रण से मुक्त कोई भी क्षेत्र नहीं छोड़ा.

ठीक यही अवस्था भारत में है. आज राज्य के नियंत्रण के बाहर कोई क्षेत्र नहीं है. जर्मनी में भी हिटलर ने यही किया. राज्य से मुक्त कोई जगह जर्मनी में नहीं थी. अब राज्य और समाज में अंतर करना मुश्किल हो गया है. राज्य की निगरानी के क्षेत्र में हर चीज है. यह काम व्यापक स्तर पर किया गया. इसने बहुदलीय जर्मन राज्य को बुरी तरह प्रभावित किया. ठीक यही काम भारत में सुनियोजित ढंग से किया जा रहा है. दलों को तोड़ा जा रहा है. उनको विभिन्न तरीक़ों से डराया-धमकाया जा रहा है.

समग्र राज्य का अर्थ है राज्य और अर्थव्यवस्था का पूंजीपतियों-बहुराष्ट्रीय निगमों के हितों के विस्तार के लिए पूरी तरह दुरुपयोग. जर्मनी में हिटलर के शासन के दौरान सरकारी संपत्तियों की अबाध लूट की पूंजीपतियों को अनुमति दी गई. पहले सांस्कृतिक और धार्मिक-आध्यात्मिक क्षेत्र शुद्ध रुप से प्राइवेट या निजी था लेकिन अब राज्य ने इसमें हस्तक्षेप करना शुरु कर दिया. राज्य ने आर्थिक, सांस्कृतिक क्षेत्र की चीजों को सब्सिडाइज करना बंद कर दिया.

नई नीति है जब हस्तक्षेप करना हो तो सब्सिडी दो, जैसे किसानों को सालाना छह हजार रुपए की सब्सिडी दी गई, जिससे वे मोदी सरकार के साथ गोलबंद रहें. यही स्थिति राजनीतिक दलों की है. कुछ दलों के साथ मोदी सरकार के साथ संबंध अच्छे हैं, वे मज़े में हैं. जो सत्तारूढ़ दल के साथ नहीं हैं उनको चंदा तक नहीं मिलता. अधिकांश चंदा सत्तारूढ़ दल को मिलता है. इससे जर्मन राज्य पूरी तरह कमजोर हो गया और राज्य की प्रतिरोध क्षमता ख़त्म हो गयी. राजनीतिक दलों पर हो रहे हमलों, संगठित समुदायों के हितों पर हमले रोकने में राज्य असमर्थ ही नहीं रहा बल्कि उलटे हिंसक हमले किए. यही स्थिति आज भारत की है.

सत्ताधारी भाजपा द्वारा श्मशान से लेकर क़ब्रिस्तान तक अपने लोगों की नियुक्तियां की जा रही हैं. सत्तातंत्र के विभिन्न पदों पर अपने अनुयायी बिठाए जा रहे हैं. आम आदमी के जीवन का पूरी तरह राजनीतिकरण कर दिया गया है. हर हर मोदी, घर घर मोदी के नारे तहत जीवन के हर क्षेत्र में राज्य का हस्तक्षेप और नियंत्रण स्थापित कर दिया गया है. अब जनता का बड़ा हिस्सा मोदी के नाम पर एकजुट है. मोदी सही ग़लत कुछ भी करे, जनता का एक वर्ग उसका खुलकर समर्थन कर रहा है. हर क्षेत्र में, हरेक पद पर नियम तोड़कर अयोग्य आरएसएस-भाजपा के लोग बिठाए जा रहे हैं. आम जनता की एकता पूरी तरह ख़त्म कर दी गयी है.

पुराने ज़माने की लिबरल पार्टियां पूरी तरह हाशिए पर डाल दी गई हैं. उनकी राय नहीं सुनी जा रही. लिबरल पार्टियां जनता को संगठित करने में असमर्थ हैं. अपना संगठन खड़ा करने में असमर्थ हैं. मोदी और हिंदुत्व के नाम पर राज्य से लेकर समाज तक सबका राजनीतिकरण किया जा चुका है. इस राजनीतिकरण की कोई अनदेखी नहीं कर सकता. बर्बरता के साथ भाजपा के अलावा सभी दलों को नष्ट किया जा रहा है. सभी फ़ैसले एक ही दल के नज़रिए से लिए जा रहे हैं. इन फ़ैसलों के ख़िलाफ़ लिबरल दलों के सभी प्रयास असफल हो रहे हैं क्योंकि अन्य दलों की राय के लिए राज्य के संस्थानों में कोई जगह नहीं है.

पहले संसद में कोई भी बिल पास करते समय विपक्ष की राय का सम्मान किया जाता था, उसके सुझावों को सरकार मानती थीलेकिन अब विपक्ष के सुझावों के लिए संसद में भी जगह नहीं बची है. संसद में सतह पर जो बहुलतावाद दिखता था, वह भी ख़त्म किया जा चुका है. अब राज्य संरचनाओं में एकाधिकारवादी-अधिनायकवादी ढांचा निर्मित कर दिया गया है.

राज्य में सत्तारूढ़ दल और राज्य के बीच का अंतर ख़त्म हो गया है. पहले राज्य सबके लिए था, लेकिन अब राज्य में सिर्फ़ सत्तारूढ़ दल की ही सुनी जाती है. उसका ही राजनीति पर एकाधिकार है. एक ओर राजनीतिक एकाधिकारी शासन व्यवस्था है, दूसरी ओर राजनीतिक इच्छा शक्ति और सत्तारूढ़ दल से भिन्न राजनीतिक दलों का विध्वंस किया जा रहा है.

भाजपा के बुनियादी राजनीतिक चरित्र और उसकी केन्द्र और राज्यों में कार्यशैली देखकर एक बात दो टूक ढंग से कही जा सकती है कि उसके लिए मुक्त अभिव्यक्ति और स्वतंत्रता क़ानूनी है, इसे वह स्वाभाविक मौलिक अधिकार के रुप में नहीं देखती. वह लिबरल संवैधानिक संस्थानों और संवैधानिक मान्यताओं के ख़िलाफ़ एकाधिकारवादी-सर्वसत्तावादी राजनीति का इस्तेमाल कर रही है. उसके आचरण का उसके राजनीतिक कार्यक्रम में घोषित बातों और नेताओं के भाषणों से कोई संबंध नहीं है.

उल्लेखनीय है भाजपा सत्ता में आई है लिबरल संविधान के ज़रिए, लेकिन उसकी लिबरल परंपरा और संविधान के नागरिक संरक्षण के इस्तेमाल में कोई रुचि नहीं है बल्कि उसके ख़िलाफ़ सक्रिय है. वह सत्ता और जनता की राय को मेनीपुलेट कर रही है. सत्ता और पूंजी के बल पर लिबरल संविधान, संवैधानिक संस्थानों और जीवन मूल्यों की स्वायत्तता पर हमले कर रही है. उनको नष्ट कर रही है. यह काम वह अनजाने नहीं कर रही है, बल्कि ‘समग्र राज्य’ की धारणा के तहत कर रही है, क्योंकि समग्र राज्य की अवधारणा को लिबरल संस्थान पसंद नहीं हैं.

भाजपा की एकाधिकारवादी प्रवृत्ति के सामने मतदाता का कोई महत्व नहीं है. अब चुनाव प्रहसन होकर रह गया है क्योंकि अन्य दलों के पास न तो पार्टी है, न पैसा है और नहीं संभावनाएं बची हैं. अतःचुनाव तो महज़ लोकतंत्र का नाटक बनकर रह गया है. अब चुनाव जीतने का सिर्फ़ एक ही पार्टी को हक़ है वह है भाजपा. यदि किसी कारणवश वह चुनाव हार जाती है तो विपक्षी दल को सरकार बनाने नहीं देती. विधायकों को बड़े पैमाने पर दलबदल कराके भाजपा में शामिल कर लिया जाता है, चुनाव कोई भी जीते.

फलतः संसद एकदम विपक्ष से शून्य है. संसद में कोई राजनीतिक शक्ति या क्षमता नहीं बची है. लोकतांत्रिक प्रतिरोधी ताकतें और वंचितों का संसद में कोई प्रतिनिधित्व नहीं है. जो हैं वे असरहीन हैं. कहने के लिए कई राज्यों में विपक्ष की सरकारें हैं पर वे सहाय और अधिकारहीन हैं.

कार्ल स्मिट ने तीसरे निबंध ‘टोटल एनिमी, टोटल वार एंड टोटल स्टेट’ में लिखा कि जर्मनी में समग्र राज्य की अवधारणा के तहत अहर्निश युद्ध या जनता को तनाव या सरकारी प्रौपेगैंडा में व्यस्त रखने का फ़ार्मूला ईजाद किया गया. फेक या अप्रासंगिक मसलों पर अमूर्त और मूर्त रुप में हिंसक और घृणा का अहर्निश अबाध कम्युनिकेशन प्रवाह बनाए रखना इसकी विशेषता है.

प्रथम विश्व युद्ध के अनुभवों की रोशनी में टोटल वार यानी अहर्निश युद्ध या जनता को सरकारी प्रौपेगैंडा में व्यस्त रखना इसका लक्ष्य है. इससे प्रेरणा लेकर भारत में भी ‘टोटल वार’ यानी ‘अहर्निश प्रौपेगैंडा में जन व्यस्तता’ की मुहिम चल रही है. मोदी और आरएसएस के प्रौपेगैंडा में जनता अहर्निश व्यस्त है. सोशल मीडिया से लेकर मास मीडिया सब इस काम में लगे हैं. मोदी के प्रौपेगैंडा के अलावा अन्य किसी विषय पर आम लोग कुछ भी सोच नहीं पा रहे.

टोटल वार के तहत जर्मनी में यहूदियों और आम जनता के अधिकारों पर हमले किए गए. वहीं भारत में विपक्ष, मानवाधिकार कार्यकर्ताओं और अल्पसंख्यकों के ऊपर निरंतर हमले हो रहे हैं. इन हमलों का लक्ष्य है विपक्ष, मानवाधिकार कार्यकर्ताओं और अल्पसंख्यकों को नैतिक-राजनैतिक तौर पर निरस्त्र करना, प्रभावहीन बनाना. समग्र राज्य, फेक शत्रु और अहर्निश व्यस्तता को समग्र राज्य, समग्र युद्ध और समग्र राजनीतिकरण के रुप में लागू किया गया.

इस प्रसंग में अर्नेस्ट जुंगर ने ‘टोटल मोबलाइजेशन’ (1930) में जो बातें कहीं उनमें से अनेक पर जर्मनी के फ़ासिस्ट शासन ने अमल किया. इसके अलावा लुडॉफ ने 1936 में ‘दि टोटल वार’ नामक पुस्तिका लिखी. इस पुस्तिका ने ऐसे शक्तिशाली संगठन के निर्माण की बात कही जिसके सामने कोई टिक नहीं सकता. प्रभावशाली औज़ारों के रुप में हवाई जहाज़ और गैस के इस्तेमाल पर ज़ोर दिया. इस युद्ध की प्रकृति परिवर्तनीय थी. हिटलर ने अन्य देशों पर हमला करने और युद्धास्त्रों के निर्माण पर ज़ोर दिया. विध्वंसक हथियारों के निर्माण पर ज़ोर दिया.

पहले यह होता था कि राष्ट्र हथियारबंद हो लेकिन जनता उससे बची रहे लेकिन हिटलर के युद्ध की नई धारणा ने इसमें जनता को भी हथियारबंद करने पर ज़ोर दिया. यह युद्ध सिर्फ़ पास के देश की सीमाओं तक ही सीमित नहीं था बल्कि पूरा महाद्वीप निशाने पर था. आंतरिक तौर पर जर्मनी में यहूदियों के ख़िलाफ़ युद्ध की घोषणा कर दी गई. पहले चरण में जनता के, खासकर यहूदियों के व्यापार और अर्थव्यवस्था पर हमला किया गया.

युद्ध जब शुरू हुआ तो उसके निशाने पर अ-सैनिक, यहूदी और विपक्षी दल थे. इस पद्धति का भारत में भी जनता के खिलाफ कौशलपूर्ण ढंग से इस्तेमाल किया जा रहा है. जनता, विपक्ष और अल्पसंख्यकों के नागरिक अधिकारों और आर्थिक हितों-व्यापार आदि पर विभिन्न बहानों से हमले किए जा रहे हैं. कहीं इंटरनेट बंद करके व्यापार पर हमले किए गए तो कहीं पर अघोषित दमन तंत्र तेज़ करके हमले किए जा रहे हैं. निजी तौर पर व्यक्तियों को निशाना बनाया जा रहा है.

कश्मीर से लेकर नागालैंड तक यह फिनोमिना सहज ही देखा जा सकता है. झूठे मुक़दमे चलाना, जेलों में हज़ारों लोगों को बंद करना. जीएसटी और नोटबंदी के बहाने आर्थिक हमले किए गए. अकेले यूएपीए के तहत साढ़े तेरह हज़ार से अधिक लोगों को बंदी बनाया गया. सैंकड़ों के घर गिराए गए. अदालतें मूकदर्शक बनी हुई हैं. जनता पर आर्थिक हमले रोकने के लिए कोई भी संवैधानिक संस्थान आगे बढ़कर नहीं आया, विभिन्न बहानों से अदालतें मूकदर्शक बनी हुई हैं.

टोटल वार ने नागरिकों में सैनिक बनने की आकांक्षा को ही नष्ट कर दिया है. सरकार के इन आर्थिक हमलों में आम जनता असहाय खड़ी है. कोई इन हमलों का विरोध नहीं कर रहा, जो विरोध कर रहे हैं उनको देशद्रोही और अपराधियों के समर्थक के रुप में प्रचारित किया जा रहा है. यह संभव है नागरिक सैनिक बन जाएं और सैनिक नागरिक बन जाएं.

जनता पर किए जा रहे आर्थिक हमलों ने जनता के आम नज़रिए को प्रभावित किया. आर्थिक हमले ग़लत हैं. अफ़सोस की बात है जनता एक बड़ा हिस्सा इन हमलों का समर्थन कर रहा है. इन हमलों के समर्थन में धार्मिकता, आध्यात्मिकता और नैतिकता के आधार पर एकजुट किया जा रहा है. संविधान को लोकतांत्रिक बोध से निकालकर सैन्यबोध के मातहत कर दिया है. दूसरी ओर नागरिकों को हिन्दुत्व और मोदी की विचारधारा के मातहत कर दिया है.

जर्मनी में समग्र राज्य की धारणा के तहत जनता और राज्य के अंतस्संबंध को बदला गया. सेना, जनता और राज्य के नए संबंध को स्थापित किया गया. ठीक यही चीज क्रमशःभारत में चल रही है. राज्य का जनता से संबंध विच्छेद करके सेना के साथ संबंध स्थापित किया जा रहा है. सेना के आख्यान को जनता के दुःख- दर्द, तकलीफ, संवैधानिक अधिकारों से ऊपर मान लिया गया है. इस क्रम में सैन्य बलों और अर्द्ध सैन्य बलों के उत्पीड़न को सरकार और न्यायालय की परिधि के बाहर कर दिया गया है.

सैन्यबलों और अर्द्धसैन्य बलों द्वारा की गई हत्याओं पर वही बात मान ली जाती है जो सरकार कह रही है. टोटल वार या समग्र युद्ध का तर्क है सेना, जनता और राज्य के अंतस्संबंध को सर्वोपरि स्थान दो. सेना और राज्य के अपराध को अपराध मत मानो. पहले सेना या सैन्यबलों के अपराध पर सरकार कुंठा महसूस करती थी लेकिन मोदी सरकार गर्व महसूस करती है. वह उसे वैचारिक एक्शन के साथ समर्थन देती है. सेना के अपराधों को अपराध न मानना स्वयं में लोकतंत्र के लिए सबसे बड़ी समस्या है.

स्मिट का एक अन्य निबंध है ‘न्यूट्रैलिटी एकॉर्डिंग टु इंटरनेशनल लॉ एंड नेशनल टोटेलिटी’. हिटलर का 14 मई1938 को दिया गया ऐतिहासिक भाषण याद करें. उसने अपने भाषण में साफ़ कहा था लोकतंत्र का सर्वसत्तावादी राष्ट्र के साथ युद्ध है. इस प्रसंग में हेईंज़ ओ. ज़िगलर का लिखा निबंध ‘ऑथोरटेरियन ओर टोटल स्टेट ?’ (1932) उल्लेखनीय है.

इसमें जिंगलर ने लिखा – लोकतंत्र तो टोटल स्टेट (समग्र राज्य) का अंग है. प्रतिरोधी लोकतंत्र का प्रत्युत्तर एकमात्र अधिनायकवादी राज्य है. अधिनायकवादी राज्य कभी तटस्थ नहीं होता. कायदे से अंतर्राष्ट्रीय कन्वेंशनों और क़ानूनों के अनुसार राज्य को तटस्थ होना चाहिए लेकिन समग्र राज्य कभी तटस्थ नहीं होता. तटस्थता को समग्रता ने ध्वस्त कर दिया है, ठीक यही स्थिति भारत की हुई है. कहने के लिए लोकतंत्र है लेकिन राज्य तटस्थ नहीं है.

यह राज्य का समग्र राज्य की अवधारणा में लोकतंत्र का रूपान्तरण है. इन दिनों अंतर्राष्ट्रीय क़ानून भी समग्रता की धारणा को मानते हैं. हर मामले में समग्रता पर ज़ोर दिया जा रहा है, जो कि ग़लत है. कायदे से समग्रता की बजाय राज्य की तटस्थता की धारणा पर ज़ोर दिया जाना चाहिए.

दूसरी बात यह कि जब कोई राष्ट्र दूसरे राष्ट्र पर हमले करे तो उस राष्ट्र (पीड़ित राष्ट्र) का तटस्थ रहना असंभव है. इस प्रसंग में जनता में सचेतनता का होना बेहद ज़रूरी है. विभिन्न क्षेत्र के लोगों में समग्रता अलग-अलग रुपों में काम करती है. वह विभिन्न क़िस्म के संस्कार और आदतें बनाती है.

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