सौमित्र राय
प्रधानमंत्री के रूप में भी नरेंद्र मोदीजी का दिमाग कभी स्थिर नहीं रहा. गुजरात के सीएम रहते हुए उन्होंने मनमोहन सरकार की तमाम गलतियां गिनाईं और कुर्सी पाते ही, उन सभी को दोहरा दिया. कल उन्होंने रेवड़ी बांटने वालों से दूर रहने की बात कही, जबकि यूपी चुनाव से पहले बांटी गईं रेवड़ियों को जानबूझकर भूल गए. कल से GST का सबसे भयानक कहर लोगों की जेब पर टूटने वाला है. महंगाई और बढ़ेगी. मोदी ने कभी उसकी भी आलोचना की थी.
दरअसल, भारतीयों का स्वभाव है कि सबसे बुरे दिनों में वे ईश्वर की शरण लेते हैं. 70 के दशक में एक युवा का आक्रोश उसे सिस्टम के ख़िलाफ़ लड़ने पर मजबूर करता था. 90 के दशक में प्रेम रोग और फ़िर मोबाइल रोग से ग्रस्त आज का युवा सिस्टम से हारकर उसी सिस्टम में कोई दूसरा रास्ता निकालने की कोशिश करता है, लेकिन नहीं मिलता.
यशवंत सिन्हा ने कल कहा कि देश में लोकतंत्र नाम की कोई चीज़ ही नहीं है. आज उन्होंने उसी लोकतंत्र की आवाज़ सुनने की अपील की है. कल से ही संसद शुरू हो रही है- विरोध के तमाम शब्दों को असंसदीय के पिटारे में डालकर. हंगामा, छींटाकशी, व्यक्तिगत हमले- और फिर संसद स्थगित. लोकतंत्र के भीतर रहकर ही जब सवालों का हल तलाशने की प्रक्रिया पर पुलिस स्टेट का पहरा लग जाये तो इसे लोकतंत्र का अपहरण मानना ज़्यादा मुनासिब है.
कहीं न कहीं चीफ जस्टिस भी कोर्ट के बाहर मंचों पर यही कह रहे हैं लेकिन कोर्ट रूम में खुद को उसी अपहृत हालत में पाते हैं. दबाव में. देश नेतृत्व विहीन है. नरेंद्र मोदी नेतृत्व की लड़ाई हार चुके हैं खुद से. वे कुर्सी से चिपके हुए हैं, क्योंकि उनकी पार्टी लोकतंत्र को लूट पा रही है. वे प्रधानमंत्री पद पर काबिज़ हैं, क्योंकि अवाम ने श्रीलंका की तरह बगावत नहीं की है. अवाम के पास आटा, दाल, चावल खरीदने का पैसा अभी है, न हो तो फ्री में मिलने की उम्मीद है.
लोग जानते हैं कि मुश्किल वक़्त में जब खाने को कुछ नहीं हो तो फ्री का राशन और लाभार्थी कोटे के कुछ फायदे उन्हें ज़िंदा रखेंगे. यह मुफ़लिसी, जकड़न बंदी बनाये गए एक कैदी की ज़िंदगी जैसी है. कार, बंगला, बैंक बैलेंस वाले उस नवधनाढ्य मिडिल क्लास के लिए भी, जिनके बच्चे बेरोज़गार घूम रहे हैं. इस नवधनाढ्य वर्ग ने कांग्रेस राज के 10 साल में ही सबसे ज़्यादा दौलत कमाई, कोठियां खड़ी कीं, कार, लोन, एजुकेशन सभी के फायदे लिए और 2014 में भगवा ओढ़ लिया. कुछ ने कांग्रेस के ट्रोल की भूमिका संभाल ली.
इसी मिडिल क्लास को अब सबसे ज़्यादा निचोड़ा जा रहा है. सीवर से बजबजाती गड्ढों वाली सड़कों पर ये अपनी गाड़ियां लेकर घूमते हैं, रूस से आ रहे सस्ते तेल पर 3 गुनी ज़्यादा कीमत चुकाकर. जब भी सरकार के किसी चमचे उद्योगपति का लोन माफ़ होता है तो बीजेपी के नेता इसी मिडिल क्लास के मुंह पर उनकी बेवकूफ़ी और बुजदिली के लिए थूकते हैं.
इससे इन्हें कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता. मिडिल क्लास अपना मुंह साफ़ कर फ़िर किसी रेस्त्रां में जाकर क्रेडिट कार्ड से खाना ऑर्डर कर फोटू खिंचवाता है-अपनी झूठी शान दिखाने के लिए. असल में वह अपहृत है, कैदी है, पिंजड़े में बंद एक गिनी पिग की तरह.
यही सब श्रीलंका में भी हुआ. फिर 6 युवा सड़क पर निकले और सोशल मीडिया ने हजारों को उनसे जोड़ दिया. श्रीलंका का लोकतंत्र कैद से आज़ाद हुआ लेकिन देश अपने मुस्तकबिल को ढूंढ रहा है. उनके पास दो रास्ते हैं- एक या तो वे लोकतंत्र के भीतर ही एक खुशहाल देश की नई व्यवस्था बनाएं या वे सैन्य शासन में कैद हो जाएं.
भारत क्या करेगा ? यहां तो पहले ही पुलिस स्टेट है, जिसका मानना है कि मोदी का विरोध यानी राष्ट्र द्रोह, ब्रिटिश हुकूमत की तरह. सत्ता का अपहरण, सत्ता की लूट, देश के संसाधनों, संपत्तियों की बिकवाली, ध्वस्त हो चुकी संस्थाओं के बीच कोई राजनीतिक ताकत कैसे उभरेगी ?
मिडिल क्लास के हाथ-पैर बांध दिए गए हैं. सरकार उन्हें एटीएम मशीन मान चुकी है. उनसे लूटकर अदाणी-अम्बानी की तिजोरी भरी जा रही है. जल्द इनकी भी कमर टूटेगी. बैंकों को बेचने की प्रक्रिया शुरू हो चुकी है। ये आखिरी प्रहार होगा- जब मिडिल क्लास की शान, उनकी दौलत भी पूंजीवाद की भेंट चढ़ेगी. श्रीलंका जैसी शुरुआत यहीं से होने वाली है, देखते जाइये.
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भारत की अर्थव्यवस्था रईसों की गुलाम है. भारत में अर्थव्यवस्था को लेकर जो भी नीतियां बनाई जाती हैं, चाहे बजट हो या कोई वेलफेयर स्कीम हो ध्यान में कॉरपोरेट को रखा जाता है, उसकी पूंजी को रखा जाता है. GST का भी ऐलान होता है तो उसमें भी ध्यान में कॉरपोरेट को ही रखा जाता है.
क्या जब भारत की अर्थव्यवस्था रईसों की गुलामी कर रही है, तो इस देश की तमाम इकोनामिक पॉलिसीज भी कॉरपोरेट को ही ध्यान में रखकर चलती है ? और अगर ऐसा है तो क्या देश के प्रधानमंत्री जनता के जरिए चुनकर प्रधानमंत्री पद तक जरूर पहुंच जाते हों लेकिन जब अर्थव्यवस्था का जिक्र हो तो उनके जेहन में एक ही सवाल रहता है कि भारत की इकोनॉमी का पहिया तभी चलेगा जब कारपोरेट की पूंजी उसमें लगती रहेगी ?
कॉरपोरेट जितना भी चाहे मुनाफा कमाता चले जाए, उस मुनाफे के जरिए इस देश की जनता पर चाहे जितना भी महंगाई का बोझ बढ़ता चला जाए, लेकिन वह पूंजी बाजार में आते रहने चाहिए. शायद इसीलिए इस देश में आटे पर जीएसटी 5% है और हीरे पर जीएसटी 1.5% है. इतना ही नहीं इस देश के भीतर की तमाम ज़रूरत की चीजों पर जीएसटी लगातार बढ़ता चला जा रहा है.
कॉर्पोरेट का जिक्र आते ही भारत में अंबानी और अडानी का जिक्र होता ही है और संयोग देखिए ऐसा है कि भारत की अर्थव्यवस्था से अगर अडानी और अंबानी की तमाम इंडस्ट्री को अलग कर दिया जाए, तो भारत की अर्थव्यवस्था ढहढहा कर गिर जाएगी. मसला ये नहीं है कि वह कितने बिलियन डॉलर की इकोनॉमी है और उसका नेटवर्थ कितने बिलियन डॉलर का है, दुनिया के मानचित्र पर कोई पांचवें नंबर का रईस है तो कोई ग्यारहवें नंबर का रईस है.
तो मसला ये है कि इस देश के भीतर सुदूर गांवों के खेतों में भी पहुंचे तो वहां पर भी और कॉर्पोरेट का दखल, मजदूरों से काम कराएं वहां भी कॉर्पोरेट का दखल, जो अनाज पैदा हो उसको जब गोदाम में रखने जाएं तो वहां भी कॉरपोरेट का दखल, गोदाम से जब अनाज निकले और बाज़ार में जाए तो उस रिटेल सेक्टर में भी कॉरपोरेट का दखल.
इतना ही नहीं ग्रॉसरी से जुड़ी तमाम चीजें यानी खाने-पीने के सामान से लेकर जैसे ही आप आगे बढ़ेंगे आपके जेहन में बेसिक इंफ्रास्ट्रक्चर रेंगने लगेंगे, हो सकता है आपके नजर में बंदरगाह आए, एयरपोर्ट आए, टेलीकम्युनिकेशन आए, रेलवे आए या कुछ भी,
आज की तारीख में अडानी का नेटवर्थ 105 बिलियन डॉलर है, अंबानी का नेटवर्थ 87 बिलियन डॉलर है. लेकिन जब हम खेत- खलिहान से, ग्रॉसरी के बाजार से निकलकर आगे आते हैं और इस देश को चलाने वाली परिस्थितियों को लेकर देखते हैं तो पता चलता है कि सरकार के पास कुछ भी नहीं है.
एनर्जी का ज़िक्र, बंदरगाहों, हवाई अड्डों का, रेलवे या फिर प्लेटफार्म तक का ज़िक्र, ट्रांसपोर्ट का ज़िक्र जिसमें सड़कों पर ट्रक दौड़ते हैं उस सड़क को बनाने का ठेका भी इन्हीं कॉरपोरेट्स के पास है. इसमें अंबानी अडानी के साथ कुछ चंद कॉरपोरेट्स को और जोड़ दीजिए. मसलन चंद कॉरपोरेट्स के हाथों में पूरी अर्थव्यवस्था की बागडोर दिखती है.
इस देश के जो कॉरपोरेट हैं उन कॉरपोरेट की इकोनॉमी इस देश की इकोनॉमी पर ना सिर्फ भारी है बल्कि उन्हें उनका मुनाफा, मार्केट में पैसा भेजना मैटर करता है. शायद इसीलिए कोरोना काल के जिस दौर में भारत की इकोनॉमी लगातार नीचे जा रही थी, उस कोरोना काल में देखें तो 30 बड़े उद्योगपति इस देश के भीतर में ऐसे थे जिनकी नेटवर्थ डबल हो गई. ये डबल उस पीरियड में हुआ जिस पीरियड में भारत की औसत कमाई 7 फ़ीसदी से नीचे हो गई.
अगर हमारी पूरी इकोनॉमी का ढांचा सिर्फ़ उन कॉरपोरेट्स की पूंजी पर निर्भर है और वह अलग-अलग सेक्टर में अपनी अपनी पूंजी को निकाले और कम से कम भारत की अर्थव्यवस्था का चक्का घुमाते रहे तो इसका मतलब साफ है कि भारत सरकार या कह लें मोदी सरकार की आर्थिक नीतियां जनता के लिए, जनता के जरिए और जनता के ऊपर खर्च करने की परिस्थितियों से खत्म हो गई है.
कभी प्रधानमंत्री ने कहा था कि देखिए हम 5 ट्रिलियन इकोनॉमी बनाएंगे, आज की तारीख में अगर देखा जाए तो भारत की इकोनॉमी 2.73 ट्रिलियन डॉलर है यानी भारत छठे या सातवें नंबर पर है. भारत की इकोनॉमी की तुलना अमेरिका और चीन से तो कर ही नहीं सकते लेकिन भारत जब 5 ट्रिलियन कहता है तो उसे लगता है जापान की जो 4.97 ट्रिलियन डॉलर इकोनॉमी है उसके पास पहुंच जाएगा और जर्मनी की इकोनॉमी जो 4 ट्रिलियन की है उसको भी पीछे छोड़ देगा.
इसका मतलब एक लिहाज से ये है कि भारत की इकोनॉमी छलांग लगाकर तीसरे नंबर पर आ सकता है. हो सकता है कि तीसरे नंबर पर आ भी जाए, इससे इंकार नहीं किया जा सकता है क्योंकि दुनिया के सामने मोदी सरकार के द्वारा भारत की जीडीपी और विकास दर दुनिया के तमाम देशों की तुलना में सबसे ज्यादा दिखाई जा रही है, तकरीबन 8 फ़ीसदी.
अब आप लोग समझ सकते हैं कि आंकड़ों को लेकर ढोल ना पीटे तो बेहतर है, क्योंकि आंकड़ों को छुपाने का भी भारत पर लगातार आरोप लगता है. फिर चाहे वह बेरोजगारी हो, कोविड-19 में हुई मौतें हों, भविष्य निधि फंड (PF) का हो, कॉरपोरेट टैक्स में रियायत हो या फिर गरीबी रेखा से नीचे रह रहे लोगों का ज़िक्र हों. अब आपलोग समझ ही गए होंगे मैं क्यों कह रहा हूं कि मोदी सरकार की नजर में अर्थव्यवस्था को लेकर सिर्फ चंद कॉरपोरेट हैं या कॉरपोरेट हाउसेज है मगर जनता नहीं हैं.
अब भारत का एक डरावना अंदरूनी सच जानिए. यूनाइटेड नेशंस की एक रिपोर्ट आई है – ‘स्टेट ऑफ फूड सिक्योरिटी एंड न्यूट्रिशन इन द वर्ल्ड.’ उसमें जानकारी मिली कि दरअसल दुनिया भर में जो कुपोषण के शिकार या भूखे लोग हैं उनकी संख्या लगभग 77 करोड़ है और इस रिपोर्ट में भारत टॉप पर है. यानी, भारत में साढ़े 22 करोड़ लोग भूखे हैं.
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कोविड महामारी ने एक ओर जहां 50 करोड़ से ज़्यादा लोगों को ग़रीबी में धकेल दिया है, वहां पूंजीवाद का एक नया क्रूर वर्ल्ड ऑर्डर जन्म ले चुका है. इसके दो सिरे हैं – चीन और रूस का आर्थिक उपनिवेशवाद, जो पैसा या जंग से दुनिया जीतना चाहता है तो दूसरा है अमेरिकी पूंजीवाद. दूसरा ग़रीबों के पेट पर लात मारकर, उन्हें लूटकर, जान लेकर पूंजीवादी सत्ता का झंडा लहराने वाला है.
बीते गुरुवार को, जब हम-आप मुन्द्रा से बरामद ड्रग्स का हिसाब लगा रहे थे- तभी जो बाइडेन, इजराइली पीएम यार लापीड, UAE के शासक मुहम्मद बिन ज़ायेद और नरेंद्र मोदी की वर्चुअल बैठक ज़ूम पर हुई. एजेंडा था – मध्य एशिया में रणनीतिक साझेदारी बढ़ाना लेकिन मंच अदाणी के लिए सेट था. किसी को कानों-कान भनक नहीं पड़ी और गले तक बैंक लोन में डूबे अदाणी ने हैफा बंदरगाह खरीद लिया.
इजराइली मीडिया ने अदाणी को मोदी के दोस्त के नाते संबोधित किया है. अदाणी पोर्ट ने हैफा के लिए प्रतिद्वंद्वी कंपनी से 52% ज़्यादा बोली लगाई. यानी 113 बिलियन डॉलर. इतनी बड़ी बोली देखकर सऊदी कंपनियों तक के पैर उखड़ गए. इजराइल की गडोट केमिकल्स और अदाणी पोर्ट मिलकर अब भूमध्य सागर के सबसे बड़े बंदरगाह को चलाएंगे.
मज़े की बात यह है कि हैफा पोर्ट का एक हिस्सा चीन की शंघाई ग्रुप ने बनाया है, यानी अदाणी का मुकाबला सीधे चीन से है. आगे अदाणी यहां से जॉर्डन तक रेल लाइन बिछाएंगे. ग्रीन एनर्जी में निवेश करेंगे. इन सबके बीच भारत कहां है ? कहीं नहीं. भारत का सब-कुछ बिक चुका है. अब अदाणी ही भारत है. हम तो बस अदाणी के लोकतंत्र को ढो रहे हैं, जिसके ड्राइवर मोदीजी हैं.
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