हुसैन स्वभाव से फक्कड़ थे. उनको सनकी तो नहीं कहा जा सकता लेकिन उनके स्वभाव में एक किस्म की आवारगी ज़रूर थी. कामना प्रसाद बताती हैं, ‘उनकी तबीयत में बला की आवारगी थी. उनके लिए कोई बड़ी बात नहीं थी कि वो घर से दिल्ली जाने के लिए निकलें और हवाई अड्डे पर पहुंच कर कलकत्ते का टिकट खरीद लें.
एक किस्म की आवारगी थी एम एफ हुसैन में –
‘ये जाना कि कुछ नहीं जाना हाय,
वो भी एक उम्र में हुआ मालूम’
सालों पहले बीबीसी से बात करते हुए मक़बूल फ़िदा हुसैन ने ये शेर सुनाया था और सही मायनों में यही उनकी ज़िंदगी का फ़लसफ़ा भी था. एक पुरानी यहूदी कहावत है, ‘ईश्वर का वास तफ़सीलों में होता है.’ ईश्वर के बारे में ये सच हो या न हो, हुसैन की कला का सच यही है.
हुसैन की पूरी ज़िंदगी पर नज़र दौड़ाएं, तो जो चीज़ तुरंत आंखों का ध्यान खींचती है, वो कोई भारी भरकम विराट सत्य नहीं, बल्कि छोटी, नगण्य और निरीह चीज़े हैं, जिन्हें इतिहास ने तो किनारे छोड़ दिया है, लेकिन हुसैन, एक स्कूली बच्चे की तरह उन्हें अपनी जेबों में भर कर लिए चले जाते हैं.
एक बार रूसी लेखक व्लादीमिर नोबोकॉफ़ ने एक महान कलाकार के लक्षण बताते हुए कहा था कि वो उस आदमी की तरह है जो मकान की नौंवीं मंज़िल से गिरता हुआ अचानक दूसरी मंज़िल की एक दुकान का बोर्ड देख कर सोचता है, ‘अरे, इसके तो हिज्जे ग़लत लिखे हुए हैं.’
कामना प्रसाद मशहूर लेखिका हैं और बहुत बड़ी उर्दूपरस्त हैं. उनको हुसैन को बहुत नज़दीक से जानने का मौका मिला था. मैंने उनसे पूछा कि आपकी और हुसैन की पहली मुलाकात कहां पर हुई थी ? ‘सड़क पर’, उनका जवाब था.
कामना ने आगे बताया- मैंने देखा कि भारती नगर के चौराहे पर एक शख़्स काली कार को पीछे से धक्का दे रहा था. वो अपनी कार में अकेले थे और वो स्टार्ट नहीं हो रही थी. मैंने उनकी बगल में अपनी कार ये सोच कर रोक दी कि शायद उन्हें मदद की ज़रूरत हो. वो फ़ौरन आकर मेरी कार में मेरी बगल में बैठ गए. जब मैंने उनकी तरफ़ देखा, तो मेरे मुंह से निकला, ‘ओ माई गॉड. यू आर एम. एफ़. हुसैन.
वो बोले, ‘जी.’ उसके बाद उनसे एयरपोर्ट में मुलाक़ात हुई. उसके बाद तो उनसे दोस्ती हो गई. उनको शायद लगा कि हम उर्दू शेरोशायरी और अपनी तहज़ीब के परस्तार हैं. उनको भी शेर पढ़ने का बहुत शौक था. वो हर विषय पर मौज़ूँ शेर कहते थे. उर्दू के पुराने उस्ताद उन्हें बहुत याद थे. हुसैन अपने ज़माने के शायद सबसे मंहगे पेंटर थे लेकिन उनकी दरियादिली के बेइंतहा क़िस्से मशहूर हैं.
सुनीता कुमार एक मशहूर चित्रकार हैं और एक ज़माने में मदर टेरेसा की प्रवक्ता रह चुकी हैं. उनके पति नरेश कुमार भारतीय डेविस कप टीम के कप्तान रह चुके हैं. सुनीता बताती हैं- ‘मेरी हुसैन से पहली मुलाक़ात दिल्ली की एक पार्टी में हुई थी. मैंने उन्हें अगले दिन होने वाली राष्ट्रीय टेनिस प्रतियोगिता का फ़ाइनल देखने के लिए आमंत्रित कर लिया. हुसैन ने माल एंडर्सन के जीतने पर शर्त लगा ली.’
‘मैंने विजय अमृतराज के जीतने पर दांव लगाया. तय ये हुआ कि जो शर्त हारेगा वो अपने हाथ की बनाई पेंटिंग दूसरे को देगा. विजय अमृतराज मैच जीत गए. लेकिन मेरी हिम्मत नहीं हुई कि मैं हुसैन से अपना वादा पूरा करने के लिए कहूं.’
हम लोग ओबेरॉय होटल में ठहरे हुए थे. जब हम बाहर जाने लगे तो रिसेप्शिनिस्ट ने कहा कि आप के लिए हुसैन साहब एक पैकेट छोड़ गए हैं. मैंने सोचा कि शायद मैच दिखलाने के लिए कोई थैंक यू नोट होगा. सुनीता ने आगे बताया, ‘जब मैंने पैकेट खोला, तो ये देख कर आश्चर्यचकित रह गई कि उसमें हुसैन की पेंट की हुई घोड़े की एक पैंटिंग थी. पेंटिंग के रंग अभी तक गीले थे, क्योंकि ऑयल पेंट बहुत जल्दी सूखता नहीं है. हुसैन ने रात भर पेंट कर वो पेंटिंग मुझे भेंट की थी.’
जाने माने कला समीक्षक प्रयाग शुक्ल को भी हुसैन का नज़दीकी माना जाता है. प्रयाग बताते हैं कि जब अस्सी के दशक में भोपाल में भारत भवन बना, तो ये तय किया गया कि उसमें हुसैन की पेंटिंग्स भी लगाई जाएं. वे कहते हैं, ‘स्वामीनाथन की सिफ़ारिश पर हुसैन अपनी कुछ पेंटिंग्स भारत भवन को छह महीने के लिए देने पर राज़ी हो गए. मुझे ये ज़िम्मेदारी सौंपी गई कि मैं हुसैन से वो पेंटिंग्स ले कर भोपाल भिजवाऊं.’
‘मैंने उनके बेटे शमशाद से कहा कि जब हुसैन साहब उनके यहां आएं तो मुझे इसकी ख़बर कर दें. शमशाद का फ़ोन आते ही मैं उनके यहां पहुंच गया. उन्होंने मेरे आने का कारण पूछा. मैंने जब बताया तो उन्होंने कहा मैं पेटिंग्स ले जाने के लिए पहले ही कह चुका हूं. तुम इन्हें क्यों नहीं लेकर गए.’
‘मैंने कहा कि मैं इन पेंटिंग्स को आपकी उपस्थिति में ले जाना चाहता था और फिर मैं आपको लिख कर भी देना चाहता था कि ये पेंटिंग्स मुझे मिल गई हैं.’
‘हुसैन ने कहा कि लिख-विख कर देने की कोई ज़रूरत नहीं है. मेरे लिए इतना ही काफ़ी है कि ये पेंटिंग्स भारत भवन जा रही है. ये बताओ कि तुम उन्हें ले कर कैसे जाओगे ? उन दिनों इरोज़ सिनेमा के सामने कुछ टैंपो खड़े रहते थे. मैं बिना वक्त ज़ाया किए एक टैंपो बुला लाया और पेंटिंग्स को उन में लाद कर कारंथ साहब के पंडारा रोड वाले घर में रख आया.’
हुसैन ने 1963 के बाद से जूते पहनना छोड़ दिया था. इसके पीछे भी एक कहानी है जिसे उन्होंने एक बार बीबीसी से बात करते हुए साझा किया था.
उन्होंने बताया, ‘मुक्तिबोध हिंदी के बहुत मशहूर कवि हुआ करते थे. वे मेरे दोस्त थे. मैंने उनका एक चित्र भी बनाया था. जब उनका देहांत हुआ तो मैं उनके पार्थिव शरीर के साथ श्मशान घाट गया था. मैंने उसी समय अपनी चप्पलें उतार दी थी, क्योंकि मैं ज़मीन की तपन को महसूस करना चाहता था. मेरे ज़हन में एक और ख़्याल आया था – वो करबला का था. इसकी एक और कहानी भी है. मेरी मां का देहांत उस समय हुआ था, जब मैं सिर्फ़ डेढ़ साल का था. मेरे पिताजी कहा करते थे कि मेरे पैर मेरी मां की तरह दिखते हैं. मैंने कहा तब उस पैर में जूते क्यों पहनूं ?’
हुसैन स्वभाव से फक्कड़ थे. उनको सनकी तो नहीं कहा जा सकता लेकिन उनके स्वभाव में एक किस्म की आवारगी ज़रूर थी. कामना प्रसाद बताती हैं, ‘उनकी तबीयत में बला की आवारगी थी. उनके लिए कोई बड़ी बात नहीं थी कि वो घर से दिल्ली जाने के लिए निकलें और हवाई अड्डे पर पहुंच कर कलकत्ते का टिकट खरीद लें. उनमें बच्चों की तरह का एक कौतूहल भी था. हर कुछ जानने की इच्छा हुआ करती थी उनमें.’
सुनीता कुमार बताती हैं कि कितनी बार हुआ है कि वो उनके घर से हवाई अड्डे जाने के लिए निकले और वहां से वापस घर आ गए. एक बार एयरपोर्ट जाते हुए उन्होंने कार रुकवा दी और ड्राइवर से बोले कि मैं यहीं मैदान में सोना चाहता हूँ. उन्होंने अपना बैग निकाला और उस पर सिर रख कर सो गए. मेरे ड्राइवर ने मुझे फ़ोन कर बताया कि एक तरफ़ मर्सिडीज़ खड़ी हुई है और दूसरी तरफ़ हुसैन खुले मैदान में सो रहे हैं.’
इसी तरह का एक दिलचस्प वाक्या एस. के. मिश्रा के साथ भी हुआ था. मिश्रा प्रधानमंत्री चंद्रशेखर के प्रधान सचिव हुआ करते थे. बात उन दिनों की है जब वो इंडिया टूरिज़्म डेवलपमेंट कॉरपोरेशन के प्रबंध निदेशक हुआ करते थे. उन्होंने साइप्रस में एक होटल खोला था, जहां उन्होंने हुसैन के चित्रों की एक प्रदर्शनी लगाई थी और वहाँ के राष्ट्रपति को मुख्य अतिथि के तौर पर आमंत्रित किया था.
एस. के. मिश्रा याद करते हैं, ‘प्रदर्शनी का दिन आ गया और हुसैन का कहीं पता नहीं था. अचानक पता चला कि शाम को वो आ रहे हैं. जब मैं हवाई अड्डे पर पहुंचा तो देखा हुसैन बिना पेंटिंग्स के चले आ रहे हैं. मैंने पूछा कि पेंटिंग्स कहाँ हैं, तो हुसैन बोले अगली फ़्लाइट से आ रही हैं. मैंने कहा कि ये आखिरी फ़्लाइट है. हुसैन बोले चलो खाना खाने चलते हैं. मैंने उनके साथ खाना खाने से इंकार कर दिया. मैं बहुत ग़ुस्से में था. मैंने कहा आप मुझे बता देते कि आप बिना पेंटिंग्स के आएंगे तो मैं कोई बहना बना देता कि हुसैन को हार्ट अटैक हो गया है. अब मैं राष्ट्रपति के सामने क्या मुंह दिखाउंगा.’
‘दूसरे दिन सुबह हुसैन फिर मेरे कमरे में आए. बोले चलो उस हॉल में चलते हैं, जहाँ मेरी नुमाइश लगनी है. मैंने कहा तुम मेरा वक्त क्यों ज़ाया कर रहे हो. बहरहाल मैं उनके कहने पर वहां गया. देखता क्या हूँ कि वहाँ हुसैन की तेरह पेंटिंग्स लगी हुई हैं और उन पर रंग इतने ताज़े हैं कि वो लगभग टपक रहे हैं. हुसैन ने रात भर जागकर मेरे लिए वो पेंटिंग्स बनाई थीं.’
हज़रत निज़ामुद्दीन में एक ज़माने में ज़की मियाँ का चाय का एक ढाबा हुआ करता था. ज़की मियाँ हर सुबह दूध से तरोताज़ा मलाई की प्लेट बचाकर अलग से रख देते. क्या पता किस वक्त मलाई के शौकीन हुसैन पहुंच जाएं ?
खाने-पीने के अनोखे अड्डे और जगहें उन्हें बचपन से ही आकर्षित करते थे. उनका एक और शौक हुआ करता था, मिट्टी के कुल्हड़ में कड़ाही के औंटते दूध की धार से निकलती सोंधी ख़ुशबू का आनंद लेना.
कामना प्रसाद बताती हैं, ‘हम लोग बिहार से हैं. हमारे यहाँ छठ का पर्व मनाया जाता है. छठ पर हमारे यहाँ ठेकुआ बनाया जाता है, जिसे बनाने में आटे, घी और गुड़ का इस्तेमाल होता है. वो उनको बहुत पसंद था. वो उसकी हमेशा फ़रमाइश करते थे. वो उसका नाम भूल जाते थे, लेकिन कहते थे कि हमें ‘बिहारी डोनट’ खिलाओ. वो अक्सर हमारे घर आ कर कहते थे, चाय बनाओ. फिर अपने घर फ़ोन कर कहते थे, रात की रोटी बची है क्या ? फिर वो उस रात की रोटी को चाय में डुबोकर खाया करते थे.’
बहुत कम लोगों को पता है कि राम मनोहर लोहिया भी हुसैन के गहरे दोस्त थे.
एक बार वो उन्हें जामा मस्जिद के पास करीम होटल ले गए क्योंकि लोहिया को मुग़लई खाना बहुत पसंद था. वहाँ लोहिया ने उनसे कहा, ‘ये जो तुम बिरला और टाटा के ड्राइंग रूम में लटकने वाली तस्वीरों से घिरे हो, उससे बाहर निकलो. रामायण को पेंट करो.’
लोहिया की ये बात हुसैन को तीर की तरह चुभी और ये चुभन बरसों रही. उन्होंने लोहिया की मौत के बाद बदरी विशाल के मोती भवन को रामायण की करीब डेढ़ सौ पेंटिंग्स से भर दिया. साल 2005 में हिंदू कट्टरपंथियों ने उनकी पेंटिंग की नुमाइश में तोड़फोड़ की. उनकी धमकियों की वजह से उन्होंने भारत छोड़ा तो फिर कभी वापसी का रुख नहीं किया.
एक बार बीबीसी ने उनसे सवाल भी पूछा, ‘क्या सोचकर उन्होंने हिंदू देवियों को न्यूड पेंट किया ?’
उनका जवाब था, ‘इसका जवाब अजंता और महाबलीपुरम के मंदिरों में है. इस पर सुप्रीम कोर्ट ने जो अपना ऐतिहासिक फ़ैसला सुनाया है, उसे पढ़ लीजिए. मैं सिर्फ़ कला के लिए जवाबदेह हूँ और कला सार्वभौमिक है. नटराज की जो छवि है, वो सिर्फ़ भारत के लिए नहीं है, सारी दुनिया के लिए है. महाभारत को सिर्फ़ संत साधुओं के लिए नहीं लिखा गया है. उस पर पूरी दुनिया का हक़ है.’
- रेहान फजल
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