हिमांशु कुमार, प्रसिद्ध गांधीवादी कार्यकर्ता
शायद कुछ ही वर्षों में हम इस देश में करोड़ों गरीबों से उनकी ज़मीनें पीट-पीट कर छीन लेंगे. गरीब विरोध करेंगे. हम पुलिस से गरीबों को पिटवा कर उनकी ज़मीनें छीन लेंगे. गरीबों से ज़मीनें छीन कर हम अपने लिये हाइवे, शापिंग माल, हवाई अड्डे, बांंध, बिजली घर, फैक्ट्री बनायेंगे और अपना विकास करेंगे.
हम ताकतवर हैं इसलिए हम अपनी मर्जी चलाएंगे ? गांंव वाले कमज़ोर हैं इसलिए इनकी बात सुनी भी नहीं जायेगी ? सही वो माना जाएगा जो ताकतवर है ? तर्क की कोई ज़रुरत नहीं है ? बातचीत की कोई गुंजाइश ही नहीं है ?और इस पर तुर्रा यह कि हम दावा भी कर रहे हैं कि अब हम अधिक सभ्य हो रहे हैं. अब हम अधिक लोकतान्त्रिक हो रहे हैं ! और अब हमारा समाज अधिक अहिंसक बन रहा है. हम किसे धोखा दे रहे हैं ? खुद को ही ना ?
करोड़ों लोगों की ज़मीनें ताकत के दम पर छीनना, लोगों पर बर्बर हमले करना, फिर उनसे बात भी ना करना, उनकी तरफ देखने की ज़हमत भी ना करना. कब तक इसे ही हम राज करने का तरीका बनाये रख पायेंगे ? क्या हमारी यह छीन झपट और क्रूरता करोड़ों गरीबों के दिलों में कभी कोई क्रोध पैदा नहीं कर पायेगा ?
क्या हमें लगता है कि ये गरीब ऐसे ही अपनी ज़मीनें सौंप कर चुपचाप मर जायेंगे या रिक्शे वाले या मजदूर बन जायेंगे ? या ये लोग भीख मांग कर जी लेंगे और इनकी बीबी और बेटियांं वेश्या बन कर परिवार का पेट पाल ही लेंगी ? और इन लोगों की गरीबी के कारण हमें सस्ते मजदूर मिलते रहेंगे ?
दुनिया में हर इंसान जब पैदा होता है तो ज़मीन, पानी, हवा, धूप, खाना, कपडा और मकान पर उसका हक जन्मजात और बराबर का होता है और किसी भी इंसान को उसके इस कुदरती हक से वंचित नहीं किया जा सकता क्योंकि इनके बिना वह मर जाएगा. इसलिए अगर कोई व्यक्ति या सरकार किसी भी मनुष्य से उसके यह अधिकार छीनती है तो छीनने का यह काम प्रकृति के विरुद्ध है, समाज के विरुद्ध है, संविधान के विरुद्ध है और सभ्यता के विरुद्ध है.
हम रोज़ लाखों लोगों से उनकी ज़मीनें, आवास, भोजन और पानी का हक छीन रहे हैं और इसे ही हम विकास कह रहे हैं. सभ्यता कह रहे हैं. लोकतंत्र कह रहे हैं. यदि किसी व्यक्ति के पास अनाज, कपड़ा, मकान, कपडा, दूध दही, एकत्रित करने की शक्ति आ जाती है तो हम उसे विकसित व्यक्ति कहते हैं. भले ही वह व्यक्ति अनाज का एक दाना भी ना उगाता हो, मकान ना बना सकता हो, खदान से सोना ना खोद सकता हो, गाय ना चराता हो.
अर्थात वह संपत्ति का निर्माण तो ना करता हो परन्तु उसके पास संपत्ति को एकत्र करने की क्षमता होने से ही हम उसे विकसित व्यक्ति कहते हैं. बिना उत्पादन किये ही उत्पाद को एकत्र कर सकने की क्षमता प्राप्त कर लेना किसी विशेष आर्थिक प्रणाली के द्वारा ही संभव है. और ऐसी अन्यायपूर्ण आर्थिक प्रणाली समाज में लागू होना किसी राजनैतिक प्रणाली के संरक्षण के बिना संभव नहीं है.
इस प्रकार के अनुत्पादक व्यक्तियों या व्यक्तियों के वर्ग को उत्पाद पर कब्ज़ा कर लेने को जायज़ मानने वाली राजनैतिक प्रणाली उत्पादकों की अपनी प्रणाली तो नहीं ही हो सकती. इस प्रकार की अव्यवहारिक, अवैज्ञानिक, अतार्किक और शोषणकारी आर्थिक और राजनैतिक प्रणाली मात्र हथियारों के दम पर ही टिकी रह सकती है और चल सकती है.
इसलिए अधिक विकसित वर्गों को अधिक हथियारों, अधिक सैनिकों और अधिक जेलों की आवश्यकता पड़ती है. ताकि इस कृत्रिम राजनैतिक प्रणाली पर प्रश्न खड़े करने वालों को और इस प्रणाली को बदलने की कोशिश करने वालों को कुचला जा सके.
बिना मेहनत के हर चीज़ का मालिक बन बैठे हुए वर्ग के लोग अपनी इस लूट की पोल खुल जाने से डरते हैं. और इसलिए यह लोग इस प्रणाली को विश्व की सर्वश्रेष्ठ प्रणाली सिद्ध करने की कोशिश करते हैं. इस प्रणाली को यह लुटेरा वर्ग लोकतंत्र कहता है. इसे पवित्र सिद्ध करने की कोशिश करता है. इसके लिये धर्म, महापुरुष, फ़िल्मी सितारों, मशहूर खिलाड़ियों और सारे पवित्र प्रतीकों को अपने पक्ष में दिखाता है.
सारी दुनिया में अब यह लुटेरी प्रणाली सवालों के घेरे में आ रही है. इस प्रणाली के कारण समाज में हिंसा बढ़ रही है. हम इसका कारण नहीं समझ रहे और इस हिंसा को पुलिस के दम पर कुचलने की असफल कोशिश कर रहे हैं. देखना यह है कि यह लूट अब और कितने दिन तक अपने को हथियारों के दम पर टिका कर रख पायेगी ?
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