पिछले दिनों 22 जनवरी 2024 को अयोध्या में राम की प्रतिमा में प्राण-प्रतिष्ठा का मेगा शो सम्पन्न हुआ. इससे पहले समूचे हिंदुस्तान ने विस्फारित नजरों से देखा कि किस तरह कमरतोड़ महंगाई, भीषण बेरोजगारी, भूखमरी, सभी क्षेत्रों में फैले भ्रष्टाचार और कुशासन, देशी और विदेशी पूंजीपतियों और कारपोरेशनों के द्वारा देश की श्रम-संपदा से लेकर जल-जंगल-जमीन सहित देश के सभी संसाधनों की बेपनाह लूट-खसोट जैसे गंभीर मुद्दों और ज्वलंत समस्याओं को देश के एजेंडे से बिलकुल दरकिनार कर दिया गया. करोड़ों मजदूर, सेठों और मालिकों के बढ़ते शोषण की वजह से तबाह और बर्बाद होते रहे.
बढ़ती कॉरपोरेट लूट की वजह से हजारों किसान आत्महत्या करते रहे. छात्र-युवाओं के सपने बेरहमी से बिखरते रहे. दलितों और अल्पसंख्यकों के दमन और उत्पीड़न ने पिछले सारे रिकॉर्ड तोड़ डाले. महिलाओं पर जुल्म, बलात्कार और उत्पीड़न की सारी हदें पार होती रही. समूचा देश बिकता और लुटता रहा. पर इस सब की कोई परवाह किये बगैर समूची अवाम को तंगो-तबाह और बर्बाद कर रही इन सारी समस्याओं और नंगी सच्चाइयों पर पर्दा डाल दिया गया.
इन तमाम जरूरी और ज्वलंत मुद्दों को विस्मृतियों के गर्त में धकेलते हुए भारतीय जनता पार्टी सहित राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के अन्य सभी घटक संगठनों के देशव्यापी नेटवर्क और उसकी मशीनरी के साथ-साथ समूची सरकारी मशीनरी और संसाधनों को झोंक कर समूचे देश में हिंदू सांप्रदायिकता, धर्मांधता का एक जबरदस्त उन्माद निर्मित किया गया. हिंदुत्व की ताकतों और देशी-विदेशी कॉरपोरेशनों ने एक सोची-समझी, सुनियोजित योजना के तहत इस उन्माद को खड़ा करने में अपनी सारी ताकत झोंक दी. हजारों हजार करोड़ की फंडिंग की गई. मीडिया की समूची ताकत भी झोंक दी गई.
इस तरह महीनों के समन्वित प्रचार के जरिए समूचे देश को ‘राममय’ बना डालने की पुरजोर कोशिशों के बीच अयोध्या का यह मेगा शो आयोजित हुआ. खासकर इस साल की शुरुआत से ही हमने गौर किया कि किस तरह अयोध्या और राम के जरिए हिंदुत्व को भारतीय राजनीति का केंद्रीय एजेंडा बना दिया गया.
अगर हम गौर से देखें इस मेगा शो के आयोजन में ही इसका वर्ग चरित्र बहुत साफ-साफ दिखता है. 22 तारीख को समूची अयोध्या की नाकाबंदी कर दी गई. दसियों हजार के सैन्यबलों के जरिए पूरी अयोध्या को एक दुर्गम किले में तब्दील कर दिया गया. आम अवाम के प्रवेश पर पाबंदी लगा दी गई. प्राण-प्रतिष्ठा के इस महोत्सव के भागीदार जो सात हजार लोग थे, दरअसल वह भारत का सर्वोच्च शोषक-शासक तबका था.
हमने साफ-साफ देखा कि अंबानी, अडानी, बिरला, महिंद्रा आदि समेत देश के सर्वोच्च धनाढ्य तबकों, हिंदुत्व को हवा देने वाले धार्मिक मठाधीशों, आरएसएस के पदाधिकारियों और भारतीय राज्य तथा उत्तर प्रदेश सरकार के आला कमानों की मौजूदगी में यह शो भारतीय शासक वर्ग के एक प्रयोगधर्मी उत्सव के रूप संपन्न हुआ. एक ऐसा प्रयोग जिसका मकसद सांप्रदायिक और धार्मिक उन्माद को और भी तेज कर हिंदुत्ववादी फासीवाद की जमीन को सुदृढ़ करना और इसके विरोध में खड़ी होने वाली संभावित ताकतों में से अधिकांश को धर्म की अफ़ीम चटाकर मदहोश किए रखना था.
सर्वविदित है कि भारत में हिंदुत्ववादी फासीवाद की जमीन तैयार करने की विधिवत शुरुआत 90 के दशक में हुई थी. भूमंडलीकरण की नीतियों को लागू करने के प्रतिक्रियास्वरूप जिन जनप्रतिरोधों के उभरने की संभावना थी, उनसे निपटने के लिए कदम-ब-कदम भारतीय राज्य के फासीवादीकरण के प्रयास उसी समय से शुरू किए गए. आडवाणी की रथयात्रा के जरिए देश भर में सांप्रदायिक उन्माद खड़ा किया गया. इसी उन्माद के सहारे बाबरी मस्जिद ढहाई गई.
आज वही ‘रथयात्रा’ एक लंबा मार्ग तय करते हुए प्राण-प्रतिष्ठा के इस मुकाम तक पहुंची है. इस दौरान कथित भारतीय लोकतंत्र का चोगा उतर गया है. इसके भीतर से झांकती आतताइयों की घिनौनी शक्लें साफ नजर आ रही हैं. सेकुलरिज्म और भारतीय न्याय-व्यवस्था की पवित्रता का बाना भी उतर चुका है. और इस तरह ‘महान गौरवशाली भारतीय लोकतंत्र’ की छाती पर हिंदुत्व का भगवा पताका गाड़ दी गई है. यह हिंदू राष्ट्र, एक फासिस्ट राष्ट्र-निर्माण के मेगा प्रोजेक्ट का एक निर्णायक चरण है.
हमें यह समझने की गलती नहीं करनी चाहिए कि यह सारा ताम-झाम सिर्फ 2024 के लोकसभा चुनाव में भाजपा की जीत को सुनिश्चित करने के लिए ही है, यह तो है ही. पर इससे भी आगे बढ़कर यह समूची परियोजना दरअसल जनवाद के बचे-खुचे अवशेषों को खत्म करने की है. सही मायनों में यह हमारे लंबे जमीनी संघर्षों से हासिल जनवादी अधिकारों को कुचलकर एक पुलिसिया स्टेट, एक फासिस्ट स्टेट कायम करने और उसे सुदृढ़ करने की बृहद परियोजना है. धर्मनिरपेक्षता के हर तरह के स्वरूपों और अभिव्यक्तियों को कुचलकर एक हिंदू राष्ट्र-निर्माण की परियोजना है. इस बृहद परियोजना को लागू करने, इसके लिए एक प्रतिक्रियावादी जनमत तैयार करने और सुदृश करने के लिए ही यह सारी कसरत की जा रही है.
अगर हम इस सच्चाई का अहसास करें तो हमें यह भी समझने में दिक्कत नहीं होगी कि आने वाला समय भारत और उसकी अवाम के लिए ढेर सारी चुनौतियां लेकर आ रहा है. जैसे-जैसे यह धर्मोन्माद बढ़ेगा, देश की मेहनतकश आबादी पर, मजदूरों, किसानों, छात्र-नौजवानों पर हमले बढ़ेंगे. खासकर दलित, अल्पसंख्यक और महिलाएं बड़े पैमाने पर इसका शिकार होंगी. सभी तरह के जन-आंदोलनों को बेरहमी से कुचला जाएगा. प्रगतिशील और जनवादी ताकतें भी क्रूर दमन का शिकार होंगी. इस तरह समूचे देश को धीरे-धीरे एक यातना शिविर में बदल दिया जाएगाऔर यह सबकुछ इसलिए ताकि मुट्ठी भर देशी-विदेशी कॉरपोरेशनों के मुनाफे की हवस को पूरा किया जा सके.
इस समूचे परिप्रेक्ष्य में हम तमाम परिवर्तनकामी ताकतों के सामने फौरी कार्यभार तो यह है ही कि हम इन साजिशों का आम जनता के बीच पर्दाफाश करें. वह सब करें जिसके जरिए आगामी लोकसभा चुनाव में हिंदू सांप्रदायिकता के इन ताकतों को हराया जा सके, पर इतना ही काफी नहीं है. प्रतिक्रियावादी ताकतों से निपटने तथा भारतीय मॉडल के इस फासीवाद का प्रतिरोध करने के लिए हमें एक व्यापक साझे मोर्चे की तरफ बढ़ना होगा.
इस मेगा शो के आयोजन के बाद की परिस्थितियां यह बताती हैं कि ठीक यहीं से भारत में फासीवाद विरोधी प्रतिरोध संघर्ष के एक नए दौर की शुरुआत हो रही है. इस प्रतिरोध संघर्ष के निर्माण और विकास की मुख्य कार्यनीति मुट्ठीभर प्रतिक्रिया की ताकतों को अलगाव में डालना और जाति व संप्रदाय की घेरेबंदियों को तोड़कर समूची मेहनतकश अवाम को, उनका नेतृत्व करने वाले तमाम परिवर्तनकामी ताकतों को एक व्यापकतम साझे मोर्चे में शामिल कर प्रतिवाद और प्रतिरोध संघर्षों का निर्माण व विकास करना है.
इसी बीच एक और सबक जो उभरकर सामने आया है, वह यह कि इस कट्टर हिंदुत्ववादी विचारधारा का मुकाबला, सॉफ्ट हिंदुत्व से नहीं किया जा सकता और न ही मजहबी बहस मुबाहिसों से. इसके बजाय जनता के ज्वलंत मुद्दों और उनकी रोजमर्रे की समस्याओं के आधार पर उन्हें गोलबंद करने तथा उनके संघर्षों को आगे बढ़ाने के जरिए ही हम फासीवादी ताकतों को अलगाव में डाल सकते हैं. इस तरह उनके खिलाफ व्यापक जनता को संगठित कर सकते हैं.
अतीत में भारतीय जनता ने प्रतिक्रिया की ताकतों के बड़े-बड़े हमलों का सामना अदम्य साहस से किया है. आने वाले दिनों में यह संघर्षों की शानदार विरासत निश्चित ही हिंदुत्ववादी फासिस्ट ताकतों के खिलाफ प्रतिवाद और प्रतिरोध संघर्षों की शानदार मिसालें कायम करेगी.
बीबीसी डॉक्यूमेंटरी का राम कवीन्द्र सिंह लिखित राजनीतिक महत्व का यह लेख पुराना है, लेकिन आज भी महत्वपूर्ण है.यह लेख लिखता है कि बीबीसी डॉक्यूमेंटरी देखने वालों की बढ़ती संख्या और उन्हें रोकने के पुलिस व प्रशासन के किस्म किस्म के प्रयासों के बीच संघर्ष, पूरे देश में फैलता जा रहा है. इस संघर्ष में आरएसएस का छात्र संगठन ABVP सत्ता के दलाल की भूमिका में खड़ा है. जेएनयू और जामिया के छात्रों के संघर्ष की बीमारी दिल्ली और जादवपुर विश्वविद्यालय के बाद, कई अन्य विवि तक पहुंचने लगी है.
इस फिल्म के तथ्यों ने जनमानस को जितना झकझोरा है, उससे ज्यादा प्रभाव सरकार के विरोध का पड़ा है. लोगों में जिज्ञासा बढ़ने लगी है कि आखिर सरकार क्या छुपाना चाहती है ! प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने इस डॉक्यूमेंटरी को प्रोपेगंडा बताकर खारिज कर दिया है.
‘प्रोपेगंडा’ शब्द आजकल काफी विवाद में आ गया है. कुछ दिनों पहले की बात है, फिल्म ‘दी कश्मीर फाइल्स’ की उन्होंने काफी तारीफ की थी और उसके निर्देशक और कलाकारों को, ऐतिहासिक तथ्यों को सही संदर्भ में पेश करने के लिए धन्यवाद तक दिया था. साथ ही उन्होंने इस फिल्म को ‘एकांगी और कट्टर हिंदुत्व का प्रोपेगंडा’ कहकर इसका विरोध करने वालों को नसीहत दी थी कि जिन्हें नहीं पसंद है, वे न देखें या दूसरी फिल्म बना लें.
उनके इस सलाह के आधार पर पूछा जाना चाहिए कि ‘आज उनकी सरकार बीबीसी डॉक्यूमेंटरी को रोकने के लिए इतना बेचैन क्यों है ?’ लेकिन उनकी उपर्युक्त दोनों बातें अलग अलग संदर्भ में हवा में उड़ गयी हैं. गोवा फिल्म फेस्टिवल में जुरिस्ट लपिड ने ‘दी कश्मीर फाइल्स’ को वलगर प्रोपेगंडा घोषित कर दिया. जनता के बीच इस विशेषज्ञ की राय प्रधानमंत्री की राय पर भारी पड़ी थी.
बीबीसी की डॉक्यूमेंटरी मामले में भी ऐसा ही हुआ है. लेकिन उल्टी दिशा में. प्रधानमंत्री ने इसे प्रोपेगंडा घोषित किया जबकि देश के जानेमाने अखबार ‘The Hindu’ के पूर्व सम्पादक एन राम ने यू ट्यूब पर प्रसारित करण थापर के एक इंटरव्यू में इसे ‘तथ्यपरक रिसर्च पर आधारित संतुलित दस्तावेज’ बताया.
दरअसल हमारे प्रधानमंत्री की दिक्कत है कि आज भी वे आरएसएस प्रचारक की संकीर्ण सोच से ऊपर उठ नहीं पा रहे हैं. उनकी परेशानी है कि जिसे विशेषज्ञ गंभीर बताते हैं, उसे वे प्रोपेगंडा कहते हैं और जिसे वे गंभीर कहते हैं, उसे विशेषज्ञ प्रोपेगंडा कहकर खारिज कर देते हैं !
इस डॉक्यूमेंटरी को खारिज करने के पीछे मोदी सरकार के दो और तर्क हैं. पहला यह कि यह फिल्म भारत के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप की ब्रिटिश औपनिवेशिक मानसिकता को व्यक्त करती है और दूसरा यह कि सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर यह डाक्यूमेंट्री प्रश्न खड़ा करती है. ये दोनों आरोप अत्यंत हास्यसपद साबित हो चुके हैं.
औपनिवेशिक मानसिकता पर कानून के विशेषज्ञ और नेशनल लॉ स्कूल, बंगलुरु के पूर्व निर्देशक जी मोहन गोपाल का नजरिया ठीक इसके विपरीत है. उनकी राय में इस फिल्म पर रोक ही औपनिवेशिक मानसिकता है. उनका कहना है कि –
‘जब हमारी सरकार अपनी आलोचना को सेंसर करती है और (आलोचक की) जुबान पर ताला लगा देती है, तब हमारा स्वतंत्रता आंदोलन हार जाता है और ब्रिटेन को गलत संकेत जाता है कि उसकी औपनिवेशिक नीति आज भी भारत पर राज कर रही है’ (दि टेलीग्राफ’ 24जनवरी, 2023, अनुवाद हमारा).
उनका मानना है कि यह डॉक्यूमेंटरी, गुजरात के मुख्यमंत्री या देश के प्रधानमंत्री की आलोचना पर केंद्रित नहीं, बल्कि नरेन्द्र मोदी के व्यक्तित्व की आलोचना पर केंद्रित है. जहां तक देश की संप्रभुता का सवाल है तो किसी मुख्यमंत्री या प्रधानमंत्री की कोई आलोचना, संप्रभुता पर हमला नहीं है, क्योंकि देश की संप्रभुता किसी व्यक्ति व पद में निहित नहीं होती. प्रधानमंत्री जी का विचार एक बार फिर गलत साबित हो गया.
सरकार और आरएसएस का यह नजरिया ‘इंदिरा इज इंडिया’ जैसा नारा याद दिला देता है. सबको मालूम है कि संघ परिवार इस नारे के खिलाफ था और आज अघोषित रूप से ‘मोदी इज इंडिया’ लागू कर रहा है.
दरअसल, आज वस्तुस्थिति ही उलट गयी है. जिन्होंने तब फासिज्म विरोधी झंडा उठाया था, वे आज खुद फासिज्म के केंद्र में खड़े हैं और जिन्होंने उस समय फासिज्म थोपा था, उनके उत्तराधिकारी आज मोदी के फासिज्म के विरोध में कन्याकुमारी से कश्मीर तक आवाज उठा रहे हैं. इससे बहुत गंभीर सबक लेने की जरूरत है.
जहां तक सुप्रीम कोर्ट पर लांछन की बात है, तो यहां भी स्थिति उल्टी है. सारा देश जानता है कि कॉलेजियम व्यवस्था के खिलाफ केंद्र सरकार के कानून मंत्री और देश के उपराष्ट्रपति ने सुप्रीम कोर्ट के खिलाफ कैसे कैसे वक्तव्य दिये हैं और जनता में उसकी छवि धूमिल करने की कैसी कोशिश की है. आज उसी सरकार के प्रतिनिधि अपने बचाव के लिए उसी सुप्रीम कोर्ट के पीछे छुपने की जगह तलाश रहे हैं.
इस विवाद में सरकार और संघ परिवार की बेचैनी, इस बात को लेकर है कि देश में फासीवाद के खतरों के खिलाफ पूंजीवादी जनवादी संघर्ष के जो अंकुए फुट रहे हैं, उसमें यह फिल्म कहीं खाद-पानी का काम न करने लगे. हालांकि उपर्युक्त नारों का सहारा लेकर भाजपा और संघ परिवार, ‘कट्टर हिंदुत्ववादी अंधराष्ट्रवाद’ का प्रचार प्रसार शुरू कर चुके हैं, जिसके खिलाफ व्यापक जन मोर्चा जरूरी है.
पिछले पचास वर्षों में ‘फासिज्म बनाम जनवाद’ की भूमिका की जो अदलाबदली हुई है, उसका स्पष्ट मतलब यही है कि ‘मजदूर राज और समाजवाद’ ही इन सभी बीमारियों का मुकम्मल और स्थायी इलाज हो सकता है. दीर्घकालिक संघर्ष की नीति इसी आधार पर तय होनी चाहिए.
- बी. पी. सिंह
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