पुण्य प्रसून वाजपेयी, जनपक्षधर पत्रकार
ना कोई मीडिया मुगल है, ना ही मीडिया की अपनी कोई ताकत बची है. रेंगते हुये लोकतंत्र के साथ मीडिया का रेंगना उसके वर्चस्व को नये सिरे से स्थापित कर रहा है. जहांं लोकतंत्र को घुटने के बल लाने वाली सत्ता से कोई सवाल नहीं करना है बल्कि सत्ता की ताकत को अपने साथ जोडना है, फिर इस दौर में खबरों में गुणवत्ता या विविधता या फिर लोगों की जिन्दगी से जुडे मुद्दों जो देश के लिये भी बेहद महत्वपूर्ण है, उनसे आंख मूंद कर आगे बढने की सोच ही अगर वर्चस्व को बयां कर रही है तो फिर मीडिया की ताकत उसके प्रभाव या उसके रेंगने को भी नये सिरे से भारतीय मीडिया दुनिया के सामने परिभाषित कर रहा है.
खबरो को दिखाने-बताने का पारंपरिक मंत्र खबरोंं को उत्पाद या कहे प्रोडक्ट मानना ही रहा है. व्यवसायिक तौर पर मुनाफे वाला प्रोडक्ट बनाना मीडिया की जरुरत रही है. विज्ञापनों की जगह अलग से निर्धारित कर कमाई करना परंपरा रही है लेकिन खबर ही विज्ञापन में तब्दील हो जाये, मीडिया संस्थान के मुनाफे का माडल सत्ता से डर या पाने वाली सुविधाओंं पर जा टिके, कारपोरेट-सत्ता गठजोड़ सूचना देने की जमीन पर ही कब्जा कर लें, न्यूज चैनल हो या इंटरनेट तमाम माध्यमों से सत्तानुकुल नवउदारवादी विचारों को परोसने की होड हो जिसे अतिराष्ट्रवाद की चाशनी में डूबोया गया हो, सवाल के लिये जगह ना हो, विरोध बर्दाश्त ना हो, तो कौन-सा मीडिया इसके बाद आपके सामने होगा उसके लिये आंख बंद कर सोचने की जरुरत नहीं है.
नंगी आंखों से आप देख सकते हैं कि बिना किसी तर्क के खबरें होगी. झूठ और गलत जानकारी का ऐसा सैलाब होगा, जिसे सच मानना सच लगेगा यानी जनता और सत्ता के बीच गैर-लोकतांत्रिक होकर भी मीडिया लोकतंत्र की रक्षा के लिये खुद की तैनाती बताने से नहीं चूकेगा.
मौजूदा वक्त का बडा सवाल यही है कि मीडिया जिस भूमिका में आ चुका है वह उसकी मजबूरी है या बिजनेस माडल की जरुरत ? या फिर लोकतंत्र को सत्तानुकुल परिभाषित करने का सबसे बेहतरीन हथियार मीडिया है, जिसे राजनीतिक सत्ता ने समझा और कारपोरेट मित्रों के जरिये अंजाम तक पहुंचाना शुरु किया क्योकि लोकतंत्र की चार पायो में एकमात्र फोर्थ स्टेट [ मीडिया ] ही है, जो जनता की कमाई [टैक्स पेयर] के पैसों से नहीं चलता है. बाकि तीन पाये कार्यपालिका-विधायिका-न्यायापालिका टैक्स पेयर के पैसे से चलते है. इन्हें अगर सत्ता काबिज कर लें तो भी मीडिया लोकतंत्र के प्रतीक के तौर पर हमेशा बरकरार रहेगा.
शायद इसीलिये अखबारों की रिपोर्ट अगर सरकारी ऐलान या ऐलान की तारीफों में लगी हो और न्यूज चैनलों का भोंडापन या बे-सिरपैर की खबरों से लबालब हो तो भी लोकतंत्र के राग गाये जा सकते हैं क्योकि मीडिया आजाद है और इस आजादी के सुकुन के पीछे मीडिया का प्रसार है, जो देश के 85 करोड लोगों तक पहुंच रखता है.
पूंजी की ताकत है जो कारपोरेट या शेयर बाजार को डिगाने की ताकत भी रखती है. राजनीति को प्रभावित करने की हैसियत भी रही है जिसमें नेताओ की लाबिग, धमकी, दरकिनार करना या किसी नेता को बीच बहस में लाने की ताकत है, पर मीडिया की इसी समझ-पहल ने आम जनता से भी उसे काटा और चाहे-अनचाहे किसी अखबार का संपादक हो या न्यूज चैनल का प्रबंध संपादक उसकी हैसियत धीरे-धीरे सत्ता के दरबार के दरबारी वाली ही हो गयी.
क्योंकि पहली बार सत्ता से नजदीकी का ट्रांसफारमेशन मीडिया की सोच के मुताबिक नहीं हुआ बल्कि सत्ता के हांकने के अनुसार हुआ और राजनीतिक सत्ता को बरकरार रखने के लिये जब दूसरे लोकतांत्रिक संस्थान ढ़हने लगे तो निगरानी करने वाले मीडिया ने ना सिर्फ आंखें बंद की बल्कि बंद आंखों से हथेली भरी. विचार को खत्म किया. जनविरोधी हुई.
आरटीआई के जवाब के मुताबिक जून, 2014 से दिसबंर 2019 के बीच 6500 करोड रुपये मीडिया में सत्ता ने सिर्फ अपने प्रचार के लिये बांटे, जो कि चुनावी प्रचार और योजनाओं के प्रचार की रकम से अलग है. यानी प्रचार के सभी तरह [ हर मंत्रालय का प्रचार बजट, हर चुनाव में प्रचार बजट ] रकम को अगर जोड दिया जाये तो इन पांच बरस में जो बजट कार्मिशियल विज्ञापनों के जरिये मुनाफे के तौर पर न्यूज चैनलों के हिस्से में आया, उससे कई गुना ज्यादा सत्ता के प्रचार की रकम रही.
न्यूज चैनलों के लिये कार्मिशिल विज्ञापनों के बजट का औसत हर बरस दो हजार करोड़ रहा तो सरकारी प्रचार [ बीते 6 बरस में ] औसतन हर बरस पांच हजार करोड तक हुआ. हर राज्य के विधानसभा चुनाव हो या 2019 का लोकसभा चुनाव. बीजेपी ने प्रचार के खर्च के सारे रिकार्ड तोड़ दिये. कांंग्रेस या अन्य विपक्षी राजनीतिक दलों के पास ना तो रकम थी और ना ही उन्हें कहीं से फंडिग मिली.
एशोसियशन फार डेमोक्रेटिक राइट संस्था के मुताबिक कारपोरेट या औघोगिक घरानों ने जो भी राजनीतिक तौर पर चंदा दिया, उसका 72 फीसदी हिस्सा सत्ताधारी बीजेपी के खाते में गया, बाकि 28 फीसदी कांंग्रेस समेत तमाम विपक्ष के पास. पूंजी के इस खेल ने लोकतंत्र की बिसात पर विपक्ष को गायब ही कर दिया और सत्ता के प्रवक्ता के तौर पर न्यूज चैनलों के एंकर नजर आने लगे. क्योकि पत्रकारिता की ये नयी साख थी, जिसे सत्ता के साथ खडे रहकर ही पाया जा सकता था.
असल सवाल यहीं से शुरु हुआ कि मीडिया की भूमिका देश के भीतर क्या होगी ? बिजनेस माडल में मुनाफा बनाना उसकी जरुरत है या फिर जनता से जुडे मुद्दे जो देश के लिये भी अहम है उन पर सवाल उठाना या ग्रांउड जीरो से रिपोर्ट करना उसकी जरुरत है ? जिन सवालों को बिजनेस के लिये त्यागा गया और बिजनेस के तौर तरीकों ने मीडिया की साख पर सवाल जनता के बीच ही खडे कर दिये.
शुरुआत में साख का डगमगाना सत्ता की चकाचौंध में खोना था. विपक्ष की चुनावी हार को जोर-शोर से उठा कर जीत के पक्ष में खड़ा होना था लेकिन धीरे-धीरे साख जनता से जुडे सरोकार से कटने को लेकर बनने लगी. संवैधानिक संस्थान नतमस्तक हुये तो कानून के राज को मीडिया भूल गया. भीडतंत्र में हत्या भी राजनीतिक चश्मे से देखी जाने लगी. नोटबंदी में लाइन में खडे लोगों की मौत को भी कालेधन के खिलाफ देशभक्ति की मुहिम का असर मान लिया गया.
जीएसटी में व्यापारियों के धंधे चौपट हो गये. सूरत में कपडा व्यापारियों की एतिहासिक विरोध को भी ‘एक देश एक टैक्स’ के विरोधस्वरुप ही देखने का प्रयास हुआ. लाकडाउन में प्रवासी मजदूरों की सड़़क-ट्रेन में मौत से लेकर रोजी-रोटी के मुश्किल हालात पर भी मीडिया ने आंखें मूंदना ठीक समझा. अवैज्ञानिक तरीके से सत्ता के निर्णयों पर कोई सवाल उठाया नहीं गया. जब आर्थिक संकट ने अर्थव्यवस्था का चक्का ही रोक दिया तो भी उम्मीद और संभवना उन्ही नीतियों तले देखी गई जिन नीतियों की वजह से अर्थवयवस्था पटरी से उतर नरकारात्मक विकास दर की दिशा में बढ गई.
आम जनता की मुश्किलों को उठाते हुये भी नाकाम आर्थिक नीतियों पर मीडिया ने खामोशी बरती क्योंकि इस दौर में मीडिया अपने आर्थिक संकट में जा फंसा. एक तरफ सरकारी प्रचार का दो बरस का बकाया रकम अटकी तो दूसरी तरफ अर्थव्यवस्था का चक्का थमा तो कमर्शियल विज्ञापन भी गायब होने लगे. इस प्रक्रिया ने मीडिया में उठते मुद्दों को मनोरंजन में तब्दील किया.
अज्ञानता के साथ शोर-हंगामा न्यूज चैनलों के स्क्रिन पर इस तरह छा गया कि एक कांंग्रेस प्रवक्ता की चर्चा के तुरंत बाद दिल का दौरा पडने से मौत हो गई. स्क्रिन पर जीते जागते व्यक्ति की चर्चा देखते हुये चंद मिनटों बाद ही श्माशान घाट जाते हुये देखने पर भी मीडिया नहीं बदला. इस ताबूत पर एक मोटी किल बालीवुड के कलाकार सुशांत सिंह की मौत की खबर को लगातार दस दिनों तक चलाने के बाद भी ना रुकने की फितरत ने ठोंक दी.
उस पर अजूबा ये भी रहा कि न्यूज चैनलों की टीआरपी मापने वाली संस्था बार्क इंडिया ने जानकारी दी कि राम मंदिर भूमिपूजन को देखने वालों के तादाद 16 करोड रही तो सुशांत सिह राजपूत से जुडी खबरों का 7 दिनों का औसत 17 करोड के पार चला गया. सिर्फ एक ही खबर क्यों का सवाल करने वालों के लिये जवाब में मीडिया के बोल जादुई अंदाज में यही निकले कि जो दर्शक देखना चाहता है, वही दिखाया जाता है.
लोकतंत्र इसी का नाम है. सब आजाद है. मीडिया भी आजाद है लेकिन आजाद मीडिया की परिभाषा ही जब सत्तानुकुल होगी तो फिर लोकतंत्र के आखिर सच को भी समझना होगा, जिसका जिक्र दुनिया के सबसे पुराने लोकतांत्रिक देश अमेरिकी संविधान के पहले संशोधन में लिखा गया ‘प्रेस की स्वतंत्रता में ही देश का भविष्य है.’
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