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मैक्सिम गोर्की : स्वाधीनता का रूसी उपासक

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गणेशशंकर विद्यार्थीगणेशशंकर विद्यार्थी
‘बोल्‍शेविकों ने गोर्की की हत्‍या कर दी’, इस पूंजीवादी प्रोपगेंडा का इस कदर प्रचार हुआ कि दिल से भरोसा न करते हुए भी गणेश शंकर विद्यार्थी जी को इस कदर आघात पहुंचा कि उन्होंने गोर्की को श्रद्धांजलि तक दे दी. हलांकि गोर्की का‍ निधन विद्यार्थीजी के बलिदान (25 मार्च, 1931) के बाद हुआ, लेकिन गोर्की को श्रद्धांजलि अर्पित करने का श्रेय विद्यार्थीजी को उनके जीवनकाल में ही मिल गया था. अगस्‍त 1919 के अंतिम दिनों, पश्चिमी के पूंजीवादी प्रेस ने एक अफवाह उड़ाई थी कि रूस के बोल्‍शेविकों ने गोर्की की हत्‍या कर दी. उसकी विश्‍वसनीयता पर यद्यपि विद्यार्थीजी को शक था, तथापि 1 सितंबर, 1919 के साप्‍ताहिक ‘प्रताप’ में उन्‍होंने गोर्की के प्रति अपनी यह हार्दिक श्रद्धांजलि अर्पित की – संपादक

इस सप्‍ताह रूस के एक प्रसिद्ध उपन्‍यास-लेखक मैक्सिम गोर्की की मृत्‍यु का समाचार आया है. इस देश के सुशिक्षित लोगों में भी बहुत ही कम ऐसे हैं जिन्‍हें पता है कि गोर्की किस ढंग का आदमी था ? एक गरीब घराने में पैदा हुआ. लड़कपन ही में उसके माता-पिता जाते रहे. नाना के घर परविश पाई, परंतु अभागे का ठिकाना वहां भी न लगा. नाना का काम गिर गया, और नाती को पेट पालने के लिए घर छोड़ बाहर का रास्‍ता देखना पड़ा.

कभी चमार की दुकान का उम्‍मेदवार बना, तो कभी अस्‍तबलों में घोड़ों की सेवा करता फिरा. नानबाइयों की दुकानें उसने साफ कीं और मालियों की खिदमतगारी उसने की. एक दिन तो नौबत यहां तक पहुंची कि सेब बेचते-बेचते जब थक गया और तो भी पेट भरने के लायक पैसे न मिले, तो आत्‍महत्‍या के लिए तैयार हो गया, परंतु आगे उसे चलकर प्रसिद्ध उपन्‍यास लिखना और नाम कमाना था, इसलिए मरते हुए भी न मरा.

15-16 वर्ष का हो गया, उस समय तक उसने कुछ पढ़ा ही नहीं. पढ़ता भी कैसे, पढ़ने से तो उसे चिढ़ थी. उसने स्‍वयं एक बार कहा था कि किताबें और छापे की अन्‍य चीजें मुझे काटे-सी खाती थीं, मैं जहाज पर सवार हुआ तो छपा हुआ पासपोर्ट तक मेरी आंखों में खटकता था, परंतु जहाज पर नौकरी करते ही, उसकी आंखों का यह शूल दूर हो गया. जहाज का एक बावर्ची उसका गुरु बना और उसने पकड़-धकड़ कर लड़के गोर्की का अक्षरों के साथ प‍रिचय करा ही दिया.

अब तो गाड़ी चल निकली, और कुछ ही दिनों में वह डाकगाड़ी बन गयी. फिर तो उसने जहां-जहां नौकरी की – वह एक जगह कहीं जमा ही नहीं-वहां-वहां उसे गुरु मिलते रहे, और अंत में, एक लेखक उसे ऐसा मिला, जैसा बंगला साहित्‍य के धुरंधर लेखक रमेशचंद्र दत्‍त को बंकिमचंद्र चटर्जी के रूप में मिल गया था. उसने कहा, गोर्की, तुम लिखो. बस, गोर्की लिखने लगा, और कुछ ही दिनों में उसकी पूछ हो गई. और, अंत में, तो वह इतना बढ़ा कि रूस के घर-घर में उसका नाम हो गया और यूरोप-भर में उसके उपन्‍यास फैल गये और उनके अनुवाद हो गये.

गोर्की की सारी उम्र कष्‍टों में कटी. दरिद्रता से छुट्टी मिली, तो हृदय की वीणा के खुले स्‍वरों के कारण रूस के स्‍वेच्‍छाचारी शासकों ने उस पर कृपादृष्टि फेंकी. उसकी कहानियां और उपन्‍यास दर्देदिल के नक्‍श होते थे, और उन सबसे, देश के उद्धार और स्‍वेच्‍छाचार के मूलोच्‍छेदन का संदेश मिलता था. गोर्की अपनी रचना के नहों तक से यही पुकारता था कि रूस विपदाओं और स्‍वेच्‍छाचार से आच्‍छादित है. बोलने और लिखने की, घूमने और फिरने की, सोचने और समझने की आजादी नहीं. वह बात नहीं, जिससे व्‍यक्ति की आत्‍मा ऊपर उठ सकती है, और जाति की आत्‍मा आगे बढ़ सकती है.

जीवन के उस अधिक अच्‍छे क्षेत्र में पदार्पण करने के लिए, वर्तमान बंधनों को टूक-टूक कर दो ! एक स्‍थान पर वह अपने देश की दुर्दशा का रोना रोता हुआ, बड़ी मार्मिकता के साथ कहता है कि, ‘इस देश में अच्‍छे और भले कामों का नाम अपराध है, ऐसे मंत्री शासन करते हैं जो किसानों के मुंह से रोटी का टुकड़ा तक छीन लेते हैं और ऐसे राजा राज करते हैं जो हत्‍यारों को सेनापति और सेनापति को हत्‍यारा बनाने में प्रसन्‍न होते है.’

1905 में रूस में कुछ सुधार हुए थे. गोर्की उनसे संतुष्‍ट न हुआ. उसकी लेखनी स्‍पष्‍ट शब्‍दों में कहती रही कि ‘यह कुछ भी नहीं, यूरोप वाले भूलें नहीं, रूस की आग बुझी नहीं है, वह दबकर मर गई है. वह दब गई है इसलिए कि दस गुनी शक्ति के साथ उखड़ पड़े और दसों दिशाओं को भस्‍मीभूत कर दे.’ दस वर्ष बाद गोर्की के वे शब्‍द बिल्‍कुल सच निकले.

गोर्की लेखक था, परंतु सिर खरोंच कर कलम घिसनेवाला नहीं. वह ऊंचे स्‍वप्‍नों का देखने वाला था, परंतु उन पर केवल स्‍वयं ही मुग्‍ध हो जाने वाला नहीं, अपनी लेखनी के चमत्‍कार से गरीबों के झोंपड़ों तक में मोहन-वंशिका की गूंज फैला देने वाला. उसके लिए, उसे दरिद्रता की थपेड़ें सदा खानी पड़ी. इसके लिए उसे कई बार जेल जाना पड़ा. मुसीबतें उसे न बचा सकीं. अंतिम समय में वह समझा कि देश के उद्धार के दिन आ गये, और अब उसे चैन मिलेगा.

परंतु कठिनाइयों की मार से बूढ़े पड़ जाने वाले लेखक को मालूम पड़ा कि जिस युग को उसने बल और उत्‍साह के साथ, अपने दोनों बाहुओं से बुलाया था, वह आया भी और आगे भी बढ़ गया. गोर्की तेज था और परिवर्तनों को निमंत्रण देता था. परंतु, रूस की वर्तमान क्रांति के सामने उसकी तेजी फीकी पड़ गई और जो परिवर्तन हुए, उससे उसकी बुद्धि तक चक्‍कर खा गई.

क्रांतिकारी रूस ने उसका आदर किया, उसे ललित-कलाओं और अजायब घरों का निरीक्षक बनाया, और अब उसका आदर यह हुआ है, जैसा कि अंग्रेजी पत्र कहते हैं, और जो बिल्‍कुल विश्‍वसनीय नहीं है, क्‍योंकि वे राजकुमार क्रोपाटकिन के विषय में भी पहले ऐसी ही खबर उड़ा चुके हैं, जो पीछे असत्‍य साबित हुई. गोर्की बोलशेविको की गोली का शिकार बना दिया गया.

रूसी स्‍वाधीनता के इस देवता का यह अंत बहुत खेदजनक है – निरंकुशता की अग्नि मनुष्य को पशु बना देती है, और यह पशुता और कहीं और कभी उस भयंकर रूप में नहीं देखी जा सकती जितनी कि किसी दबे हुए देश की स्‍वाधीनता के उखाड़-पछाड़ के समय. हम गोर्की को बोलशेविकों की गोली का निशाना नहीं मानते, हम अंत में उसे उसी जुल्‍म का बलिदान समझते हैं जो शुरू में उसे पीसता रहा और जो मरते-मरते भी लोगों की बुद्धि को ऐसा गहरा झोंका दे गया कि वे अपने-पराये को नहीं परख पाये.

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ROHIT SHARMA

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