नाजुक मन आहत है‚ वहशी मन बेकाबू‚ और समाज बेबस. कानून बेहद सख्त होने के बावजूद हम यौन मुजरिमों में खौफ पैदा नहीं कर पा रहे. पॉक्सो एक्ट बच्चों के खिलाफ यौन जुर्म की रोकथाम के लिए बनाया गया. मगर ध्यान जुर्म होने के बाद की जाने वाली कार्रवाई पर रहा‚ घिनौने अपराधों को रोकने पर नहीं. देश में लगातार आ रहे दुष्कर्म मामलों पर उबाल के बाद संसद और अदालतों ने निगाह दौड़ाई तो करीब डेढ़ लाख मामले अदालतों में इंतजार करते मिले.
सर्वोच्च न्यायालय को कहना पड़ा कि देश तय करे कि मासूमियत के हमलावरों पर ‘जीरो टॉलरेंस’ रखे या नहीं ? तो जवाब में पिछले साल देश में 1023 स्पेशल कोर्ट खोलने को तुरंत मंजूरी मिली‚ बजट मिला. फिर कानून सिरे से खंगाला गया. पॉक्सो में अपराध साबित हुआ तो 10 नहीं सीधे 20 साल की जेल और आजीवन कारावास या मौत की सजा भी तय हुई. लेकिन जुर्रत अब भी इतनी है कि हवस पूरी करने के बाद सबूत मिटाने के लिए मासूमों की हत्या के मामले आए दिन सामने आ रहे हैं. यह हमारी साझी नाकामी ही तो है.
भाजपा का राज बेटियों की सुरक्षा के लिये कलंक साबित हो रहा है निकिता तोमर को 3 साल पहले भी इन्ही हत्यारों ने अपरहण करने की कोशिश की थी समय रहते खट्टर जी की पुलिस सचेत होती तो निकिता को अपनी जान नही गँवानी पड़ती। https://t.co/Nqb7fdRZE0
— Sanjay Singh AAP (@SanjayAzadSln) October 27, 2020
राजस्थान‚ मध्य प्रदेश और हरियाणा सहित कुछ राज्यों ने तो पहले ही बच्चों के दुष्कर्म पर मौत की सजा का कानूनी संशोधन कर दिया था, मगर आज भी हालात कहीं बेहतर नहीं. सिहरन होती है जानकर कि देश के पचास फीसद बच्चे किसी न किसी तरह का यौन जुर्म सह रहे हैं. कुल यौन अपराधों में 51 फीसद पांच राज्यों–बिहार‚ उत्तर प्रदेश‚ मध्य प्रदेश‚ दिल्ली और महाराष्ट्र–में होते हैं. यौन दुष्कर्म में महाराष्ट्र‚ उत्तर प्रदेश और तमिलनाडु अव्वल हैं.
दुनिया भर के देशों में बच्चों के यौन शोषण के बारे में इंटरनेट सामग्री का आकलन करने वाली एक संस्था ने आकलन में पाया कि इस तरह की करीब 38 लाख रिपोर्ट यानी सामग्री भारत से ही उपजी. इसके तार दिल्ली सहित सात राज्यों और राजस्थान के छोटे कस्बे चौमूं तक से जुड़े़ मिले. इंटरनेट पर परोसी यौन अश्लीलता का सीधा निशाना बच्चे होते हैं. बच्चों की हिफाजत करने वाला कानून अब इस पर भी नहीं बख्शता. बड़ा सवाल पुलिस की सतर्कता और सक्रियता के साथ अदालतों की संवेदनशीलता का भी है.
जहां–जहां पद पर परवाह करने वाले अधिकारी हैं‚ वहां मुकदमे दर्ज होने से लेकर सजा‚ मुआवजा सब वक्त रहते तय हो जाता है. बड़ी खामी यह है कि इसके बावजूद बच्चे और परिवारजनों को मानसिक तौर पर संभलने‚ मजबूत बनाए रखने और रोजमर्रा की जिंदगी में पहले की तरह घुलने–मिलने की सलाह हासिल नहीं, हालांकि ऐसे अपराधों में जांच के दौरान पुलिस को सादा कपड़ों में रहने‚ पीडि़त के लड़की होने पर महिला पुलिस अधिकारी साथ होने और मनोवैज्ञानिक की मदद लेने के साथ ही बेहद संवेदनशीलता से पेश आने का कायदा है.
कानून में यह जरूरी बात भी है कि बच्चों के खिलाफ यौन हिंसा के मामलों में दो महीने में तफ्तीश पूरी होकर चार्जशीट दायर हो जाए. बुनियादी बात यह है कि हर सिरे को थामे बगैर कुछ नहीं थमेगा. समुदाय की निगरानी‚ जागरूकता का अभ्यास‚ अपराध होने पर पुलिस और न्यायिक संवेदनशीलता और तय वक्त में इंसाफ. दरकार यह है कि सब होता हुआ महसूस भी होना चाहिए. यह सब्र का मामला नहीं है‚ यहां बेसब्री ही चाहिए.
बच्चे और परिवार पर शर्मिंदगी का भार न लदे‚ इसके लिए संवाद और नजरिया भी अभी बदला नहीं है. तरीका यह हो सकता है क्या कि सौ बच्चियों के साथ यौन अपराध न कहकर कहा जाए कि सौ पुरुषों ने बाल यौन अपराध किया ? पीडि़ता को मुआवजा दिलाया गया कहने की बजाय कहा जाए कि दंड के तौर पर सरकार या मुजरिम ने इतना हर्जाना भरा ? लेकिन साथ ही तफ्तीश हो जाने से पहले मामले का मीडिया ट्रायल न हो‚ यह एहतियात भी बरती जाए.
बच्चों को मोहरा बनाकर होने वाली राजनीति को भेदने के लिए लोक समुदाय के तरकश में तीर रहने चाहिए ताकि नफरत को निशाना बनाने में कोई कसर छूटी न रहे. बच्चों की सुरक्षा के मसलों पर काम कर रहे सामाजिक संगठनों में दिखावटी काम करने वाले अक्सर ऐसे संवेदनशील मामलों में भी आवाज उठाने से पहले जाति और राजनीतिक पाÌटयों के प्रति वफादारी का जोड़–भाग करते हैं. अवसरवादिता और किसी मामले पर तूफान‚ किसी पर खामोशी‚ यह तंदुरुस्त समाज की निशानी कतई नहीं.
देश के किसी भी हिस्से‚ तबके में बच्चों के खिलाफ यौन शोषण‚ दुष्कर्म और हिंसा की हर घटना हमें बराबर कचोटनी चाहिए. इंसाफ के लिए दबाव बना रहे और सरकारों की जवाबदेही तय हो यह बेहद जरूरी है. निगरानी कमजोर होने और नीयत में खोट आने पर न कोई कानून काम आता है, न ही जेहनी तब्दीली का माहौल बन पाता है. जहां चाइल्डलाइन या अन्य माध्यम से ईमानदार काम है‚ वहां प्रशासन भी सचेत रहता है. व्यवस्था को यह फिक्र रहती है कि उसके जिले में अपराध ज्यादा न दिखें‚ एफआईआर की नौबत न आए और समझाइश या समझौते से काम चल जाए.
यौन अपराधों के मामले बच्चियों के साथ ही ज्यादा होते हैं. अनुपात में देखें तो साल भर में करीब 21,000 यौन दुष्कर्म पर 200 मामले बेटों पर हुए यौन दुराचार के आ रहे हैं. इस वजह से कानून भी अब जेंड़र न्यूट्रल है यानी सिर्फ लड़का या लड़की होने के आधार पर किसी का पक्ष नहीं लेता यानी लड़का‚ लड़की की बजाय सिर्फ बच्चा नजर आए. पुलिस स्टेशनों और तफ्तीश को बच्चों के लिए दोस्ताना बनाने की बात पर पांच सितारा एक बौद्धिक आयोजन में खिलौनों–रंग बिरंगे पेंट से सजे पुलिस स्टेशन का नजारा दिखाकर तालियां बटोरने पर संवेदना से भीगे एक स्वर ने सवाल किया कि क्या इस सजावट से बच्चों के खिलाफ अपराध कम हुआ ॽ क्या ऐसे अपराधों को सलीके से संभालने के लिए पुलिस का रवैया बदला ॽ
यौन अपराध की गिरफ्त में आया बच्चा और उसका परिवार थानों में टूटे भरोसे को जोड़ने आते हैं‚ न कि खेलने–कूदने. इस अपराध का सबसे बड़ा खतरा है कि अपराध के शिकार बच्चे खुद से प्यार नहीं कर पाते‚ मन अनजाने डर से भरा रह जाता है‚ जब तक कि उस पर मनौवैज्ञानिक तौर पर काम न किया जाए. अपराध के अंकों में इजाफे का सच यह भी है कि दबे–छिपे जुर्म उघड़ने लगे हैं. करीब 94 फीसद मामलों में बच्चों का नजदीकी‚ रिश्तेदार‚ जाना–पहचाना ही होता है‚ जो भरोसे की दीवार को पहले खुरचता है‚ फिर मौका पाकर गिरा देता है.
हर दिन 109 बच्चे यौन शोषण का शिकार हो रहे हैं देश भर में और इनमें से 30 फीसद मामले बच्चों के शेल्टर होम्स के हैं. मार्च में जारी नये नियमों में ‘जीरो टॉलरेंस’ की बात दोहराते हुए हर उम्र के बच्चों को जागरूक करने‚ समुदायों के मन–मानस पर काम करने और निगरानी पर जोर है. सारी बात इस पर आकर टिकती है कि अमल कैसे होगा ॽ दिव्यांग बच्चों के खिलाफ यौन अपराधों की कोठरी कितनी काली है‚ यह अंदाज अभी हमें है ही नहीं. ये बच्चे कैसे बताएं‚ किसको बताएं इन घटनाओं को ? कुछ बोल–सुन नहीं पाने वाली बच्चियों की कही बात हमेशा याद रहती है कि हमें तो हमारी मां भी नहीं समझ पाती कभी तो और कोई क्या समझेगा ! संवाद और संवेदनाओं के सारे तारों को जोड़े बगैर बच्चों की असल हिफाजत की गुंजाइश कम ही रहेगी.
- डाॅ. शिप्रा माथुर
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