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मास्क सैनिटाईजर का उपयोग यानी खुद से दुश्मनी निकालना है

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मास्क सैनिटाईजर का उपयोग यानी खुद से दुश्मनी निकालना है

कोरोना-पॉजिटिव को भी COVID नहीं हुआ बल्कि सबका ऑक्सीजन कम हुआ है जिसमें अधिकांश मौतें ऑक्सीजन की कमी व ईलाज के समुचित उपाय न होने से हुआ है. इसमें सबसे दु:खद तो बड़े पैमाने पर मानव अंगों के व्यापार के कारण लोग मारे गये हैं.

अमेरिका के सेंटर फॉर डिजीज कंट्रोल एंड प्रिवेंशन की तरफ से कोरोना के टीके की दोनों डोज लेने के बाद मास्क नहीं पहने का दिशानिर्देश जारी कर दिया है. बावजूद इसके भारत में मास्क के एक अनिवार्य तौर पर इस्तेमाल जारी रखने के पक्ष में है.

असल में भारत में डॉक्टर विभिन्न बीमारियों के इलाज में अमेरिका के नियामक एजेंसियों व चिकित्सा संस्थानों की तरफ से जारी दिशा निर्देशों का पालन करते रहते हैं. अब जब अमेरिका नेक कोरोना के टीके के दोनों डोज लगने के बाद मास्क को गैरजरूरी बताया है तब भी भारत में इसके इस्तेमाल को जारी रखना सवाल खड़े करते हैं.

भारत सरकार द्वारा मास्क का प्रयोग सुरक्षा के नाम पर वसूली का कारगर तरीका खोज निकाला है. मास्क ना लगाने के नाम पर लाखों करोड़ों रुपया बतौर जुर्माना लोगों से वसूल लिया गया है, अन्यथा पिटाई करना, अपमानित करना एक दैनिक चर्या बन चुकी है. इसको इससे भी समझा जा सकता है कि पालतू संघी जजों ने निजी वाहन में अकेले बैठे होने के बाद भी मास्क न पहनने को अपराध घोषित कर दिया है और वसूली को जायज बता दिया है.

निजी वाहन से वसूली का अब एक नया ऑनलाइन तरीका ईजाद किया गया है, जिसमें कोरोना संक्रमण से बचाव के नाम पर निजी वाहन में मास्क ना लगाने वाले शख्श पर सॉफ्टवेयर और सीसीटीवी कैमरे की मदद से ऑनलाइन जुर्माने की वसूली की नई व्यवस्था अपनाई जा रही है, जिसमें मास्क हटाते ही सीसीटीवी कैमरा फोटो क्लिक करेगा और सॉफ्टवेयर सीधे बैंक अकाउंट से ही वसूली की राशि काट लेगा. यह सॉफ्टवेयर कितनी राशि बैंक अकाउंट से काटेगा इस पर कुछ कहना भी मूर्खता ही होगा, क्योंकि देश में कितनी पादर्शिता है, यह कौन नहीं जानता है.

दरअसल मास्क ना तो कोरोना संक्रमण से बचने के लिए जरूरी है उल्टे यह मौत का सबसे बड़ा कारण बनकर सामने आया है. पवन कुमार पाहवा के सोशल मीडिया पेज पर इसी आशय का एक बेहतरीन विश्लेषण प्रस्तुत किया गया है, जिसमें बताया गया है कि मास्क पहनने से शरीर में ऑक्सीजन की कमी होती है, जो मौत की सबसे बड़ी वजह है.

अगर ये मान भी ले कि हवा में कोई कोरोना नामक घातक वायरस है, जिसे मास्क, सैनिटाईजर, PPE-किट आदि के उपयोग से शरीर में प्रवेश करने से रोका जा सकता है तो भी मास्क, सैनिटाईजर, PPE-किट आदि का उपयोग अत्यंत ही सीमित करना चाहिये क्योंकि मास्क, सैनिटाईजर एवं PPE-किट तीनों की प्रकृति शरीर में ऑक्सीजन घटाने वाली होती है.

वायरस और वैक्टीरिया जनित अन्य बीमारियों से लड़ने हेतु हमारा इम्युनिटी-सिस्टम सदैव तैयार रहता है. अनेकों देशी-नुस्खे भी वायरस के इलाज में बहुत ही कारगर रहते हैं लेकिन अगर ब्लड में ऑक्सीजन घट जाये तो इसमें इम्युनिटी-सिस्टम भी कुछ नहीं कर सकता, ना ही कोई देशी / अंग्रेजी नुस्खा काम आता है. बल्कि ऑक्सीजन घटने से इम्युनिटी-सिस्टम शिथिल हो जाता है, जिस कारण वायरस के अटैक करने की सम्भावनाएं बढ़ जाती हैं. अतः मास्क सैनिटाईजर PPE-किट आदि COVID-रक्षक ना होकर वास्तव में COVID-उत्पादक ही हैं !

शरीर में ऑक्सीजन घटने से शरीर के बाकि अंगों के साथ-साथ फेफड़ों की भी कार्यशीलता धीमी पड़ जाती है. फेफड़े उतना ऑक्सीजन अवशोषित नहीं कर पाते जितनी हमें चाहिये होती है. अतः घटे हुये ऑक्सीजन लेवल को वापिस हासिल करना बहुत मुश्किल हो जाता है; जानलेवा हो जाता है.

श्वास-वायु में ऑक्सीजन का प्रतिशत 20% के आसपास रहने व बाकि नाइट्रोजन जैसी कम क्रियाशील गैस होने पर हमारे फेफड़े बेहतर रूप से ऑक्सीजन अवशोषित करते हैं, खून में ऑक्सीजन-लेवल मेन्टेन रखते हैं. वायुमंडल में 21% ऑक्सीजन 78% नाइट्रोजन व 1% वाष्प व अन्य गैसें होती हैं जो कि इंसानों व अन्य जीव-जन्तुओं के लिये एक प्राइम-मिश्रण है. अतः खुली व फ्रेश हवा एक तरह से प्राण-वायु होती है, इसका सेवन स्वास्थ्य की दृष्टि से अत्यंत ही लाभकारी होता है.

श्वास-वायु में ऑक्सीजन का प्रतिशत 17% से कम या 23% से ज्यादा रहने अथवा कार्बन डाई आक्साइड सैनिटाईजर-वैपर जैसी क्रियाशील गैसें मौजूद होने पर ब्लड में ऑक्सीजन-लेवल शैने-शैने घटने लगता है लेकिन हमें महसूस नहीं होता. ऑक्सीजन कम होने का पता तभी चलता है, जब देर हो चुकी होती है. जब ऑक्सीजन-लेवल खतरे के निशान से नीचे चला जाता है, तब इसे पुनः प्राप्त करना बहुत ही मुश्किल हो जाता है.

श्वास-वायु की सप्लाई रूक जाये अथवा श्वास-वायु में ऑक्सीजन प्रतिशत अत्यंत घट जाये तभी हमारा दम घुटता है और हमें महसूस होता है; श्वास-वायु में ऑक्सीजन प्रतिशत 5% तक हो तो भी हमारा दम नहीं घुटता; हमें महसूस नहीं होता लेकिन ब्लड में ऑक्सीजन लेवल घटना जारी रहता है. विवेकहीनता में वहमी व साईको बनकर मास्क सैनिटाईजर का बेजा उपयोग खुद से दुश्मनी निकालना ही है.

वहीं, टॉप सरकारी अस्पतालों के कोरोना वार्डों में काम करने वाले संक्रामक रोग विशेषज्ञों ने ब्लैक फंगस यानी म्यूकोर्मिकोसिस को लेकर आउटलुक पत्रिका से कई चौकाने वाले खुलासे किए हैं. म्यूकोर्मिकोसिस यानी ब्लैक फंगस इस वक्त कोरोना से ठीक हुए मरीजों में सामने आ रहे हैं जो जानलेवा साबित हो रहा है. म्यूकोर्मिकोसिस एक फंगस है जो हमारे वातावरण में पाया जाता है. अमूमन ये उन्हीं लोगों को संक्रमित कर सकता है, जिनकी रोग प्रतिरोधक क्षमता बीमारियों की वजह से कमजोर हो गई हो.

ये कई माध्यमों से शरीर में प्रवेश कर सकता है. उदाहरण के लिए सांस के जरिए या फफुंदी वाले संक्रमित भोजन के सेवन से ये हमारे शरीर के भीतर पहुंचता है. ये शरीर के अंगों को काफी नुकसान पहुंचा सकता है और मृत्यु का कारण भी बन सकता है.

इन डॉक्टरों का कहना है कि ब्लैक फंगस से संक्रमित करीब 60 फीसदी मरीज ऐसे हैं जिन्होंने कोविड-19 के इलाज के दौरान न तो स्टेरॉयड लिया है और ना ही वो ऑक्सीजन स्पोर्ट के सहारे रहे हैं. ऐसे कई संक्रमित मरीजों के सामने आने के बाद डॉक्टरों की आशंका है कि आरटी-पीसीआर टेस्टिंग के दौरान नाक में डाले जाने वाले स्वाब संक्रमण के फैलने का मुख्य कारण हो सकता है.

दिल्ली के एक प्रतिष्ठित सरकारी अस्पताल में काम करने वाले संक्रामक रोग के डॉक्टर बताते हैं, ‘हम उन लोगों की स्वच्छता के बारे में नहीं जानते हैं जो ये स्वाब बना रहे हैं या जहां इसे बनाया और पैक किया जा रहा है.’

आगे वो कहते हैं, “हमने म्यूकोर्मिकोसिस संक्रमित ऐसे कई मरीजों को भर्ती किया है जिनका इलाज कोरोना संक्रमण के दौरान घर पर हीं किया गया था. उन्हें माइल्ड संक्रमण था. ऐसे मरीजों को ना तो स्टेरॉयड दिया गया और ना हीं उन्हें ऑक्सीजन सपोर्ट पर रखा गया.’

पिछले साल कोरोना संक्रमण की पहली लहर के दौरान 80 मरीजों पर ‘कोविड-19 से जुड़े म्यूकोर्मिकोसिस की शिकायत : 18 देशों के मामलों का विश्लेषण’ शीर्षक से ग्लोबल अध्ययन किया गया था, इनमें 42 मामले भारत के थे. पोस्टग्रेजुएट इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल एजुकेशन एंड रिसर्च चंडीगढ़ के प्रसिद्ध माइक्रोबायोलॉजिस्टों में से एक डॉ. अरुणालोक चक्रबत्री जो एमडी, प्रोफेसर, माइक्रोबायोलॉजी विभाग के हैं, इस टीम का हिस्सा थे.

वहीं, इसी पत्रिका ने अपने एक अन्य रिपोर्ट में बताया है कि देश में कोविड 19 के मरीजों में म्यूकोरमायकोसिस (ब्लैक फंगस) के मामलों वृद्धि को मास्क में नमी होना माना जा रहा है. वरिष्ठ नेत्र रोग विशेषज्ञ डॉ. एस. एस. लाल ने आज यूनीवार्ता से बातचीत मे कहा कि म्यूकोरमायसिस ( ब्लैक फंगस) नामक इस रोग होने के पीछे लम्बी अवधि तक इस्तेमाल किया गया मास्क हो सकता है. मास्क पर जमा होने वाली गन्दगी के कण से आंखों में फंगस इन्फेकशन होने की सम्भावना रहती है. मास्क में नमी होने पर भी इस प्रकार के इन्फेक्शन हो सकते हैं.

डॉ. लाल ने बताया कि आईसीयू में भर्ती कोविड 19 के मरीज को लम्बे समय तक इलाज के समय लगाये जा रहे ऑक्सीजन के कारण भी यह फंगल इन्फेक्शन हो सकता है. उन्होंने बताया कोविड पेशन्ट को स्टेरॉयड की हाई डोज दी जाती है, तब मरीज का शुगर लेवल बढने से इस तरह के संक्रमण बढने की अपार सम्भावना होती है.

डॉ. लाल ने बताया कि फंगस के संक्रमण की शुरूआत नाक से होती है. नाक से ब्राउन या लाल कलर का म्यूकस जब बाहर निकलता है तो यह शुरुआती लक्षण ब्लैक फंगस का माना जाता है, फिर यह धीरे-धीरे आंखों में पहुंच जाता है.

नेत्रों में लालीपन, डिस्चार्ज होना, कन्जक्टिवाईटिस के लक्षण इस रोग में उभरते हैं. नेत्रों में भंयकर पीड़ा होती है और फिर विजन पूरी तरह समाप्त हो जाता है. उन्होंने कहा कि मेडिकल कालेज में ब्लैक फंगस के इलाज के समुचित इन्तजाम किये गये हैं. इलाज समय पर होने से रोगी को बचाया जा सकता है.

जिला अस्पताल में ही कार्यरत नेत्र रोग विशेषज्ञ डॉ. केशव स्वामी ने बताया कि फंगस वातावरण में पाया जाता है. बरसात के मौसम में ब्लैक फंगस फैलने की आशंका अधिक होती है. कोविड 19 से रिकवर हुए लोग प्रतिदिन मास्क को डिटोल में धोकर धूप में सुखा कर ही पहने. इस फंगस का असर नेत्रों के रेटिना पर पड़ता है फिर ब्रेन, नर्वस सिस्टम व ह्रदय तक हो जाने से मृत्यु तक हो जाती हैं.

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