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मार्क्स के जन्मदिन पर विशेष : मार्क्स की स्‍मृतियां – पॉल लाफार्ज

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मार्क्स के जन्मदिन पर विशेष : मार्क्स की स्‍मृतियां - पॉल लाफार्ज
मार्क्स के जन्मदिन पर विशेष : मार्क्स की स्‍मृतियां – पॉल लाफार्ज

मैंने सबसे पहली बार कार्ल मार्क्‍स को फरवरी सन 1865 में देखा. 28 सितम्‍बर सन 1864 को सैण्‍ट मार्टिन हॉल की मीटिंग में इंटरनेशनल की स्‍थापना हो चुकी थी. मैं उनको पेरिस से इस नन्‍ही संस्‍था की प्रगति का समाचार देने आया था. मोशिये तोलां ने, जो अब फ्रांस के पूंजीवादी प्रजातंत्र के एक मंत्री हैं और जो बर्लिन की कान्‍फ्रेन्‍स में उसके एक प्रतिनिधि थे, मुझे एक परिचय-पत्र दिया था.

मेरी उम्र 24 बरस की थी. उस पहली भेंट का मुझ पर जो असर पड़ा उसे मैं अपने जीवन में कभी नहीं भूलूंगा. उस समय मार्क्‍स का स्‍वास्‍थ्‍य अच्‍छा नहीं था और वह ‘कैपीटल’ के पहले भाग के लिखने में कड़ी मेहनत कर रहे थे. (वह दो साल बाद सन 1867 में प्रकाशित हुआ). उन्‍हें यह डर था कि शायद वह उसे समाप्‍त न कर सकें. और वह युवकों से बड़ी खुशी से मिलते थे क्‍योंकि वह कहा करते थे कि ‘मुझे ऐसे आदमियों को सिखाना चाहिये जो मेरे बाद कम्युनिज्म के प्रचार का काम जारी रखें.’

कार्ल मार्क्‍स उन अनमोल आदमियों में थे जो विज्ञान और सार्वजनिक जीवन दोनों में प्रथम श्रेणी के योग्‍य हों. ये दोनों पहलू उनमें इतनी अच्‍छी तरह मिले हुए थे कि जब तक हम उन्‍हें एक साथ ही वैज्ञानिक और समाजवादी योद्धा के रूप में न जान लें, तब तक हम उन्‍हें नहीं समझ सकते. उनका यह विचार था कि प्रत्‍येक विज्ञान का स्‍वयं विज्ञान के लिये अध्‍ययन करना चाहिये और जब हम वैज्ञानिक अनुसंधान का काम शुरू करें तो फल का विचार छोड़ देना चाहिये.

फिर भी वह यह विश्‍वास करते थे कि अगर विद्वान मनुष्‍य अपनी अवनति न चाहता हो तो उसे सार्वजनिक कार्यों में हमेशा भाग लेते रहना चाहिये – अपनी प्रयोगशाला या अध्ययनशाला में अपने को बन्‍द करके, पनीर के कीड़े की तरह, अपने सहजीवियों के जीवन और सामाजिक और राजनीतिक संघर्षों की अवहेलना नहीं करनी चाहिये. ‘वैज्ञानिक को स्‍वार्थी नहीं होना चाहिय. जो लोग इतने भाग्‍यवान हैं कि वैज्ञानिक अध्‍ययन में समय बिता सकें उन्‍हें, सबसे पहले अपने ज्ञान को मनुष्‍य की सेवा में लगाना चाहिये.’ उनका एक प्रिय कथन यह था कि ‘संसार के लिये परिश्रम करो.’

मजदूर-वर्ग की विपदाओं से उन्‍हें हार्दिक सहानुभूति थी. किन्‍तु केवल भावुक कारणों से नहीं बल्कि इतिहास तथा अर्थशास्‍त्र के अध्‍ययन के उनका दृष्टिकोण समाजवादी (कम्‍युनिस्ट) बना था. उनका यह कहना था कि जिस आदमी पर निजी स्‍वार्थों का प्रभाव न हो और जो वर्ग-पक्षपात से अंधा न हो, वह अवश्‍य इसी निष्‍कर्ष पर पहुंचेगा.

मार्क्‍स ने निष्‍पक्ष भाव से मानव समाज के राजनीतिक और आर्थिक विकास का अध्‍ययन किया, किन्‍तु उन्‍होंने अपने अध्‍ययन के फल को लिखा केवल प्रचार के पक्‍के इरादे से, और अपने समय तक आदर्शवादी कुहरे में खोये हुए साम्‍यवादी आन्‍दोलन के लिये वैज्ञानिक नींव जमाने के दृढ़ निश्चय से. जहां तक सार्वजनिक कार्यों का संबंध है, उन्‍होंने उसमें केवल मजूदर-वर्ग की विजय के लिये काम करने के विचार से भाग लिया. उस वर्ग का ऐतिहासिक कर्तव्‍य है कि समाज का राजनीतिक और आर्थिक नेतृत्‍व प्राप्‍त करने के बाद कम्युनिज्म की स्‍थापना करे.

इसी तरह से, शक्तिशाली होते ही पूंजीपति वर्ग का यह कर्तव्‍य था कि वह उन सामंती बंधनों को तोड़ दे जो खेती तथा उद्योग-धन्‍धों के विकास में बाधा डाल रहे थे, मनुष्‍य और माल के लिये बेरोकटोक व्‍यापार और मालिकों और मजदूरों के बीच स्वतंत्र संबंध आरंभ कर दे, उत्‍पादन और विनिमय के साधनों को केन्‍द्रीभूत करे और कम्युनिस्ट समाज के लिये बौद्धिक और भौतिक सामग्री तैयार कर दे.

मार्क्‍स ने अपनी कार्यशीलता को अपनी जन्‍मभूमि तक ही सीमित नहीं रखा. वह कहते थे कि, ‘मैं संसार का नागरिक हूं और जहां कहीं होता हूं वहीं काम करता हू.’ वास्‍तव में जिन देशों में (फ्रांस, बेल्जियम, इंग्‍लैण्‍ड) उन्‍हें घटनावश या राजनीतिक दमन के कारण जाना पड़ा वहां के विकसित होते हुए क्रांतिकारी आन्‍दोलन में उन्‍होंने प्रमुख भाग लिया.

परन्‍तु अपनी पहली भेंट में जब मैं उनसे मेटलैण्‍ड पार्क रोड वाले घर के पढ़ने के कमरे में मिला तो वह मुझे साम्‍यवादी आंदोलन के अथक और अद्वितीय योद्धा नहीं, बल्कि एक अध्‍ययनशील पुरुष जान पड़े. सभ्‍य संसार के प्रत्‍येक कोने से पार्टी के साथी कमरे में साम्‍यवादी दर्शन के उस पंडित की सलाह लेने के लिये इकट्ठे होते थे. वह कमरा ऐतिहासिक हो गया है. यदि कोई मार्क्‍स के बौद्धिक जीवन को घनिष्‍ठता से समझना चाहता है, तो उसे इस कमरे के बारे में जरूर जानना चाहिये.

वह दुमंजिले पर था और पार्क की तरफ की चौड़ी खिड़की से उसमें खूब रोशनी आती थी. अंगीठी के दोनों तरफ और खिड़की के सामने किताबों से लदी हुई अलमारियां थीं जिनके ऊपर छत तक अखबारों की गड्डियां और हाथ की लिखी किताबें रखी हुई थी. खिड़की की एक तरफ दो मेजें थीं जो उसी तरह विविध अखबारों, कागजों तथा किताबों से भरी हुई थी. कमरे के बीचोबीच जहां रोशनी सबसे अच्‍छी थी, एक छोटी-सी लिखने की मेज थी-तीन फिट लम्‍बी और दो फिट चौड़ी, और एक लकड़ी की आरामकुर्सी थी.

इस कुर्सी और एक अलमारी के बीच में, खिड़की की तरफ मुंह किये हुए, एक चमड़े से ढंका हुआ सोफा था जिस पर मार्क्‍स कभी-कभी आराम करने के लिये लेटा करते थे. ताक पर कुछ और किताबें थी, उनके बीच में सिगार, दियासलाई की डिबिया, तम्‍बाकू का डब्‍बा, और उनकी लड़कियों, स्‍त्री, एंगेल्‍स और विलेहम वूल्‍फ की तस्‍वीरें थीं.

मार्क्‍स को तम्‍बाकू का बड़ा शौक था. उन्‍होंने मुझसे कहा कि ‘कैपीटल’ से मुझे इतना रुपया भी नहीं मिलेगा कि उसे लिखते समय मैंने जो सिगार पिये हैं उनका दाम भी निकल आये.’ दियासलाई के इस्‍तेमाल में तो वह और भी ज्‍यादा फिजूलखर्च थे. वह इतनी बार अपने पाइप या सिगार को भूल जाते थे कि उन्‍हें उसे बार-बार जलाना पड़ता था और वह दियासलाई की डिबिया बहुत ही जल्‍दी खत्‍म कर देते थे.

वह कभी भी किसी को अपनी किताबें और कागज ठीक तरह से लगाने (वास्‍तव में बिगाड़ने) नहीं देते थे. उनके कमरे की बेतरतीबी सिर्फ देखने भर की थी. वास्‍तव में हर एक चीज अपने उचित स्‍थान पर थी और वह जिस किताब या हस्‍तलेख को चाहते उसे बिना ढूंढ़े निकाल सकते थे. बातचीत करते-करते भी वह बहुधा रुक जाते और किसी अंश या आंकड़े को पुस्‍तक में से दिखाते. वह अपने कमरे की आत्‍मा को जैसे पहचानते थे और उनके कागज और किताबें उसी तरह उनकी इच्‍छा के पालक थे जिस तरह उनके अंग.

अपनी किताबों को सजाते वक्‍त वह उनकी छोटाई-बड़ाई का खयाल नहीं करते थे, बड़ी-बड़ी किताबें तथा छोटी-सी पुस्तिकाएं बराबर-बराबर रखीं रहती थीं. वह अपनी पुस्‍तकों को आकार के अनुसार नहीं बल्कि विषय के अनुसार लगाते थे. उनके लिये पुस्‍तकें सुख का साधन नहीं, बौद्धिक यन्‍त्र थी. वह कहते थे कि, ‘ये मेरी गुलाम हैं और उनको मेरी इच्‍छा पूरी करनी पड़ती है.’ उन्‍हें किताब के रूप-रंग, जिल्‍द, कागज की सुन्‍दरता या छपाई की परवाह नहीं थी. वह पन्‍नों के कोने मोड़ देते थे, कुछ हिस्‍सों के नीचे पेन्सिल से लाइन खींच देते थे और दोनों तरफ की खाली जगह को पेन्सिल के निशाने से भर देते थे.

वह किताबों में लिखते नहीं थे, पर जब लेखक उल्‍टी सीधी हांकने लगता था तो प्रश्‍न या आश्‍चर्य का चिह्न लगाये बिना नहीं रह सकते थे. पेन्सिल से लाइन खींचने का उनका ऐसा तरीका था कि वह बड़ी आसानी से किसी भी हिस्‍से को ढूंढ़ लेते थे. उन्‍हें यह आदत थी कि कुछ साल बाद अपनी कापियों और किताबों में निशाने लगाये हुए भागों को फिर पढ़ते थे ताकि उनकी स्‍मृति फिर ताजी हो जाय. उनकी स्‍मरण शक्ति असाधारण रूप में प्रबल थी. अपरिचित भाषा के पद्य याद करने की हेगल की सलाह के अनुसार बचपन से ही उन्‍होंने अपनी स्‍मरण शक्ति का विकास किया था.

उन्‍हें हाइने और गेटे कंठस्‍थ थे और बातचीत में बहुधा उन्‍हें वह उद्धृत किया करते थे. यूरोप की सब भाषाओं के प्रमुख कवियों की कविताएं वह बराबर पढ़ा करते थे. प्रत्‍येक वर्ष वह फिर ग्रीक भाषा में एसकाइलस के नाटकों को पढ़ते थे और उसको तथा शेक्‍सपियर को दुनिया के सर्वोत्‍कृष्‍ट नाट्यकार मानते थे. उन्‍होंने शेक्‍सपियर का पूरा अध्‍ययन किया था. उसके लिये उनके मन में अगाध श्रद्धा थी और उसके सबसे साधारण पात्रों को भी वे जानते थे. मार्क्‍स का परिवार शेक्‍सपियर का भक्‍त था और उनकी तीनों लड़कियों को भी शेक्‍सपियर का बहुत सा अंश जबानी याद था.

सन 1848 के कुछ दिन बाद जब मार्क्‍स अपने अंग्रेजी के ज्ञान को पूरा करना चाहते थे (उस समय भी वह अंग्रेजी अच्‍छी तरह पढ़ सकते थे) उन्‍होंने शेक्‍सपियर के सब खास-खास मुहावरों को ढूंढ़ा और उनका वर्गीकरण किया. यही उन्होंने विलियम कौबेट के वाद-विवादपूर्ण लेखों के साथ किया. कौबेट का वह बड़ा सम्‍मान करते थे. दान्‍ते तथा बर्न्‍स उनके प्रिय कवि थे और अपनी लड़कियों को बर्न्‍स की व्‍यंगात्‍मक कविता या बर्न्‍स के प्रेम के गीत गाते सुन कर उन्‍हें हमेशा आनंद आता था.

विज्ञान का प्रसिद्ध ज्ञाता, अथक परिश्रमी, कूविये जब पेरिस के म्‍यूजियम का संरक्षक था तो उसने अपने बरतने के लिये कई कमरे अलग तैयार करा लिये थे. इनमें से प्रत्‍येक कमरा अध्‍ययन की एक शाखा विशेष के लिये नियुक्‍त था और उस विषय के लिये आवश्‍यक पुस्‍तकों, यन्‍त्रों आदि से सुसज्जित था. जब कूविये एक काम से थक जाता तो वह दूसरे कमरे में चला जाता था और बौद्धिक काम के बदल देने को आराम करने के बराबर मानता था.

मार्क्‍स भी कूविये के समान अथक परिश्रमी थे परन्‍तु उसकी तरह कई कमरे रखने की उनकी सामर्थ्‍य नहीं थी. वह कमरे में इधर से उधर टहलकर आराम करते थे और दरवाजे और खिड़की के बीच में दरी पर घिसते-घिसते मैदान की पगडंडी की तरह एक साफ रास्‍ता बन गया. कभी-कभी वह सोफे पर लेट कर उपन्‍यास पढ़ते थे. बहुधा वह एक साथ कई उपन्‍यास शुरू कर देते थे जिन्‍हें वह बारी-बारी से पढ़ते थे क्‍योंकि डार्विन की तरह वह भी बड़े उपन्‍यास प्रेमी थे.

उन्‍हें 18वीं सदी के उपन्‍यास पसन्‍द थे. फील्डिंग का लिख हुआ ‘टॉम जोन्‍स’ उन्‍हें बहुत अच्‍छा लगता था. आधुनिक उपन्‍यासकारों में उनके सर्वप्रिय थे पैल डि कौक, चार्ल्‍स लीवर, ड्यूमा और सर वाल्‍टर स्‍कॉट. स्‍कॉट के ‘ओल्‍ड मॉर्टेलिटी’ नामक उपन्‍यास को वह उत्‍कृष्‍ट रचना मानते थे. उन्‍हें साहस के कामों वाली और मजाकिया कहानियां पसन्‍द थीं. उनके लिए श्रृंगार रस के सर्वोत्‍कृष्‍ट लेखक सरवेंटीज और बाल्‍जाक थे.

उनके विचार से ‘डॉन क्विक्‍सोट’ ठाकुरशाही के विनाशकाल का एक महान ग्रंथ था, जब कि नये विकसित होने वाले पूंजीवादी संसार में उस युग के गुणों को केवल मूर्खता और बौड़मपन समझा जाने लगा था. बाल्‍जाक के लिए उनकी श्रद्धा बहुत गहरी थी. उन्‍होंने निश्‍चय किया था कि अर्थशास्‍त्र का अध्‍ययन समाप्‍त करने के बाद बाल्‍जाक की ‘ह्यूमैन कॉमेडी’ की आलोचना लिखेंगे. मार्क्‍स बाल्‍जाक को समकालीन सामाजिक जीवन का इतिहासकार ही नहीं बल्कि ऐसे पात्रों का भविष्‍यदर्शी रचयिता समझते थे जो लुई फिलिप के राज्‍य में केवल अधूरे रूप में थे और बाल्‍जाक की मृत्‍यु के बाद तीसरे नेपोलियन के समय में पूर्ण रूप से विकसित हुए.

मार्क्‍स योरप की सब प्रमुख भाषाओं को पढ़ सकते थे और तीन भाषाओं में (जर्मन, अंग्रेजी तथा फ्रेंच में) ऐसा लिख सकते थे कि उस भाषा को अच्‍छी तरह जानने वाले भी उसकी तारीफ करते थे. वह बहुधा कह सकते थे कि ”जीवन के संग्राम में विदेशी भाषा एक हथियार होती है.’ उनमें भाषाएं सीखने की बड़ी योग्यता थी और इसको उनकी लड़कियों ने भी उनसे प्राप्‍त किया था. जब उन्‍होंने रूसी भाषा सीखनी शुरू की तो वह पचास बरस के हो चुके थे.

यद्यपि जो मृत तथा जीवित भाषाएं वह जानते थे उनका रूसी से कोई भी निकट का संबंध नहीं था, तब भी छ: महीने में उन्‍होंने इतनी प्रगति कर ली थी कि जो लेखक और कवि उन्‍हें पसन्‍द थे (अर्थात् पुश्किन, गोगोल और श्‍चेडरिन) उनकी रचनाएं वह मूल में पढ़ सकते थे. रूसी सीखने का कारण यह था कि वह कुछ छानबीनों का सरकारी ब्‍यौरा पढ़ना चाहते थे. उन छानबीनों के निष्‍कर्ष इतने भयानक थे कि सरकार ने उन्‍हें दबा दिया था. मार्क्‍स के कुछ भक्‍तों ने मार्क्‍स के लिए उनकी प्रतियां मंगा दी थीं और पश्चिमी योरप में केवल मार्क्‍स ही ऐसे अर्थशास्‍त्री थे जिन्‍हें उनका ज्ञान था.

कविता तथा उपन्‍यास पढ़ने के अलावा मानसिक विश्राम के लिए मार्क्‍स का एक और अद्भुत तरीका था. गणित के वह बड़े प्रेमी थे. बीजगणित से उनको नैतिक सान्‍त्‍वना तक मिलती थी और अपने तूफानी जीवन की सबसे दु:खपूर्ण घड़ियों में वे उसका आसरा लिया करते थे. उनकी पत्‍नी की अन्तिम बीमारी में अपने वैज्ञानिक काम को हमेशा की तरह चलाना उनके लिए मुश्किल हो गया था और उसकी बीमारी और कष्‍ट के बारे में सोचने से बचने का उपाय केवल यही था कि अपने को गणित में डुबो दें.

मानसिक कष्‍ट के इस समय में उन्‍होंने गणित पर एक निबन्‍ध लिखा. जो गणितशास्‍त्री इसे जानते हैं उनका कहना है कि यह रचना बड़ी महत्‍वपूर्ण है और मार्क्‍स की ग्रन्‍थावली में छपेगी. उच्‍च गणित में वह द्वंद्वात्‍मक गति का सबसे सादा और तर्कपूर्ण रूप निकाल सकते थे. उनकी विचारधारा के अनुसार विज्ञान की कोई शाखा तभी सचमुच विकसित कही जा सकती है जब उसका रूप ऐसा हो जाय कि वह गणित का प्रयोग कर सके.

मार्क्‍स का पुस्‍तकालय, जिसमें जीवन भर की खोज के परिश्रम से एक हजार से ज्‍यादा किताबें जमा थीं, उनकी आवश्‍यकताओं के लिए काफी नहीं था इसलिए वह ब्रिटिश म्‍यूजियम के वाचनालय में नियम से जाते थे और वहां की सूची को बहुत मूल्‍यवान समझते थे. उनके विपक्षियों को भी यह स्‍वीकार करना पड़ता था कि वह प्रकाण्‍ड विद्वान थे. और केवल अपने प्रिय विषय अर्थशास्‍त्र में ही नहीं बल्कि सब देशों के इतिहास, दर्शन और साहित्‍य में भी उनका ज्ञान अगाध था.

यद्यपि वह हमेशा देर से सोते थे तब भी वह हमेशा आठ और नौ बजे के बीच में उठ जाते थे. काली कॉफी का प्‍याला पीकर और अखबारों को पढ़कर वह अपने पढ़ने के कमरे में चले जाते, और दूसरे दिन सबेरे के दो-तीन बजे तक काम करते रहते थे. बीच में वह सिर्फ खाने के लिए, और – अच्‍छे मौसम में – हैम्‍पस्‍टेड के मैदान में टहलने के लिए उठते थे. दिन में वह एक या दो घंटे सोफे पर सो लेते थे. युवावस्‍था में उन्‍हें सारी रात काम करते हुए बिताने की आदत थी.

मार्क्‍स के लिए काम करना तो एक व्‍यसन हो गया था और वह भी ऐसा तल्‍लीन करने वाला कि वह खाना तक भूल जाते थे. बहुधा उन्‍हें कई बार बुलाना पड़ता था; तब वह खाने के कमरे में आते थे और अन्तिम कौर मुश्किल से खत्‍म होता था कि वह उठ कर वापिस अपनी मेज पर जा बैठते थे. वह खाते कम थे और उन्‍हें भूख न लगने की शिकायत तक रहा करती थी. सुअर का गोश्‍त, धुँए पर पकी मछली और अचार जैसे चटपटे खानों से वह वह इस कमी को पूरा करने की कोशिश करते थे.

उनके मस्तिष्‍क की अपूर्व कार्यशीलता का दण्‍ड उनके पेट को भरना पड़ता था; दिमाग के लिए वास्‍तव में उन्‍होंने अपने पूरे शरीर को बलिदान कर दिया था. विचार करना उनके लिए सबसे बड़ा सुख था. मैंने बहुधा उनको अपनी युवावस्‍था के गुरु हेगेल का यह कथन उद्धृत करते हुए सुना है कि, ‘किसी धूर्त का एक पापपूर्ण विचार भी किसी दैवी चमत्‍कार से उच्‍च और पवित्र है.’

उनका शरीर निश्‍चय ही बड़ा बलवान रहा होगा, नहीं तो वह कभी इतने असाधारण जीवन और ऐसी थकाने वाली दिमागी मेहनत को नहीं सह सकते. औसत से कुछ ज्‍यादा लम्‍बे, चौड़े कन्‍धे, चौड़ी छाती-कुल मिलाकर उनके अंग सुडौल थे, यद्यपि उनके पैर शरीर की तुलना में छोटे थे (जैसा कि यहूदी जाति में अकसर होता है). अगर अपनी जवानी में वह व्‍यायाम का अभ्‍यास करते तो अत्‍यन्‍त बलवान आदमी बन जाते.

उनका एकमात्र शारीरिक व्‍यायाम था हवाखोरी. लगातार सिगार पीते और बातचीत करते हुए और थकान की कोई भी निशानी दिखाये बिना यह घन्‍टों चल सकते थे और पहाड़ों पर चढ़ सकते थे. यह कहा जा सकता है कि वह अपना काम कमरे में टहलते हुए करते थे. केवल थोड़ी देर के लिये वह डेस्‍क के सामने बैठ जाते ताकि फर्श पर टहलते हुए उन्‍होंने जो सोचा है उसे लिख डालें. इस तरह टहलते-टहलते बातचीत करने का भी उन्‍हें शौक था. हां, जब तर्क-वितर्क गरमागरम होता या बात विशेष महत्‍वपूर्ण होती तो वे बीच-बीच में जरा रुक जाते थे.

बहुत साल तक हैम्‍पस्‍टेड के मैदान में उनके साथ शाम को हवाखोरी करने मैं भी जाया करता था. और मैदानों के बीच इन्‍हीं हवाखोरियों में मैंने उनसे अर्थशास्‍त्र की शिक्षा पायी. मेरे साथ इस बातचीत में उन्‍होंने ‘कैपीटल’ के पहले भाग को, जिसे वे उस समय लिख रहे थे, मेरे सामने विकसित किया. जैसे ही मैं घर पहुंचता वैसे ही अपनी योग्‍यतानुसार जो कुछ मैंने सुना था उसका सार लिख लेता था. परन्‍तु शुरू में मार्क्‍स की तीक्ष्‍ण और जटिल विचारधारा को समझने में बड़ी मुश्किल हुई.

दुर्भाग्‍यवश मेरे ये अमूल्‍य कागज खो गये हैं क्‍योंकि कम्‍यून के बाद पैरिस और बोरदों में पुलिस ने मेरे कागज हथिया लिये और जला डाले. एक दिन मार्क्‍स ने अपने स्‍वभावानुसार बहुत से प्रमाणों और विचारों के साथ मानव समाज के विकास के अपने अद्भुत सिद्धांत का बखान किया था. वह मैंने लिख लिया था. पर अन्‍य कागजों के साथ वे भी पुलिस के हाथों पड़ गये. मुझे उन कागजों के खो जाने का विशेष दु:ख है.

मुझे ऐसा मालूम हुआ जैसे मेरी आंखों के सामने से पर्दा हट गया हो. पहली बार मैंने विश्‍व-इतिहास के तर्क को समझा और समाज और विचारों के विकास के भौतिक कारणों को ढूंढ़ निकालने लायक हो गया-वह विकास जो बाहर से देखने से इतना तर्कहीन जान पड़ता है. इस सिद्धांत से मैं चकित हो गया और यह प्रभाव बरसों तक रहा. अपनी मामूली योग्‍यता से जब मैंने यह सिद्धांत मैड्रिड के साम्‍यवादियों को समझाया तो उन पर भी यही प्रभाव हुआ. मार्क्‍स के सिद्धांतों में यह सबसे महान है और निस्‍संदेह आदमी के दिमाग से निकला हुआ सर्वोत्‍कृष्‍ट सिद्धांत है.

मार्क्‍स का दिमाग ऐतिहासिक और वैज्ञानिक तथ्‍यों तथा दार्शनिक सिद्धांतों से अकल्‍पनीय मात्रा में सुसज्जित था और कड़े बौद्धिक परिश्रम से इकट्ठे किये हुए अपने ज्ञान और अनुभव का प्रयोग करने में उन्‍हें आश्‍चर्यजनक निपुणता प्राप्‍त थी. चाहे जिस समय और चाहे जिस विषय पर वह किसी भी प्रश्‍न का ऐसा जवाब दे सकते थे जो हर एक के लिये पूरी तरह संतोषजनक होता था.

उनके उत्तर के पीछे हमेशा महत्‍वपूर्ण दार्शनिक विचार भी होते थे. उनका दिमाग उस लड़ाई के जहाज के समान था जो पूरी तैयारी से बन्‍दरगाह में खड़ा रहता है और इस बात के लिये तैयार रहता है कि किसी भी क्षण विचार के किसी भी सागर में चले पड़े. निःस्‍संदेह ‘कैपीटल’ ऐसे दिमाग की देन है जिसकी शक्ति अद्भुत और ज्ञान अगाध है. परन्‍तु मेरे लिये और उन सबके लिये जो मार्क्‍स को अच्‍छी तरह जान चुके हैं, न तो ‘कैपीटल’ और न उनकी अन्‍य कोई रचना उनके ज्ञान की पूरी मात्रा को, या उनकी योग्‍यता और अध्‍ययन की महानता को पूरी तरह प्रदर्शित करती है. वह स्‍वयं अपनी रचनाओं से कहीं महान थे.

मैंने मार्क्स के साथ काम किया है. यद्यपि मैं मार्क्‍स का केवल मुंशी था तो भी उनके लिखते समय मुझे यह देखने का अवसर मिला कि वह सोचते और लिखते किस प्रकार थे. उनके लिये उनका काम मुश्किल और साथ ही साथ आसान भी था. आसान इसलिये कि चाहे जो विषय हो, उसके संबंध में तथ्‍य और विचार प्रथम प्रयास में ही बहुतायत से उनके दिमाग में उठ खड़े होते थे. परन्‍तु इसी बाहुल्‍य से उनके विचारों की पूर्ण अभिव्‍यक्ति कठिन हो जाती थी और उन्‍हें परिश्रम अधिक करना पड़ता था.

बीको ने लिखा है, ‘केवल सर्वज्ञ ईश्‍वर ही वस्‍तु की वास्‍तविकता को जान सकता है. मनुष्‍य वस्‍तु के बाहरी रूप से अधिक कुछ नहीं जानता !’ मार्क्‍स बीको के ईश्‍वर की भांति वस्‍तुओं को देखते थे. वह केवल ऊपरी सतह को नहीं देखते थे बल्कि गहराई में जाकर प्रत्‍येक भाग के परस्‍पर संबंधों का निरीक्षण करते, प्रत्‍येक भाग को अलग-अलग करते और उसके विकास के इतिहास का अनुसंधान करते. फिर वस्‍तु के बाद वह उसके वातावरण को लेते और एक दूसरे पर दोनों के असर को देखते.

अपने अध्‍ययन के विषय का पहले वह उद्गम देखते, उसमें जो परिवर्तन, विकास और क्रांति हुई है उस पर विचार करते. वह किसी वस्‍तु को अपने ही अस्तित्‍व में पूर्ण अपने वातावरण से अलग नहीं समझते थे, बल्कि संसार को अत्‍यंत जटिल और सदैव गतिशील मानते थे. उसकी विभिन्‍न तथा निरन्‍तर परिवर्तनशील क्रियाओं और प्रतिक्रियाओं के साथ संसार के पूर्ण जीवन की व्‍याख्‍या करना उनका ध्‍येय था.

फ्लॉबेअर और डी गॉन्‍क्‍वा के मत के लेखक यह शिकायत करते हैं कि जो कुछ हम देखते हैं उसका सच्‍चा वर्णन करना मुश्किल है परंतु वे जिसका वर्णन करना चाहते थे वह तो वीको का बताया हुआ बाहरी रूप मात्र है, उस वस्‍तु द्वारा उनके अपने मन पर पड़ी हुई छाप से अधिक किसी बात का वर्णन वे लोग नहीं करना चाहते थे. जिस काम का बीड़ा मार्क्‍स ने उठाया उसके मुकाबले में उनका साहित्यिक काम तो बच्‍चों का खेल था. वास्‍तविक सत्‍य को जानने के लिये, और उसकी इस भांति व्‍याख्‍या करने के लिये कि दूसरे उसे समझ सकें, असाधारण विचारशक्ति और योग्‍यता की आवश्‍यकता है.

मार्क्‍स अपनी रचनाओं में बराबर परिवर्तन करते रहते और सदा यही समझते थे कि व्‍याख्‍या विचार के अनुकूल नहीं हुई. बाल्जाक की एक मनोवैज्ञानिक रचना, ‘अज्ञात महान रचना’ का, जिसमें से जोला ने बहुत कुछ चुरा लिया था, उन पर बड़ा प्रभाव पड़ा क्‍योंकि कुछ हद तक उसमें उनके भावों का वर्णन था. योग्‍य चित्रकार अपने दिमाग में बने हुए चित्र को ठीक वैसा ही बनाने की इच्छा से इतना पागल बना रहता है कि वह तूलिका से बार-बार कपड़े पर रंग लगाता है. यहां तक कि अंत में वह चित्र केवल रंगों का एक रूपहीन मिश्रण बन जाता है. परन्‍तु तब भी चित्रकार की पक्षपातपूर्ण आंखों को वह वास्‍तविकता का निर्दोष चित्र जान पड़ता है.

कुशल विचारक (दार्शनिक) होने के दोनों आवश्‍यक गुण मार्क्‍स में थे. उनमें किसी वस्‍तु को उसके विभिन्‍न अंगों में विभाजित करने की अनुपम शक्ति थी, और वह वस्‍तु को उसके सब अवयवों और विकास के रूपान्‍तरों के साथ पुननिर्माण करने में और उसके आन्‍तरिक संबंधों को खोज निकालने में भी निपुण थे. कुछ अर्थशास्त्रियों ने, जो विचार करने में असमर्थ है, उन पर आरोप किया है कि किसी बात को समझाते समय मार्क्‍स अमूर्त सिद्धांतों से उलझते रहते हैं, ठोस वस्‍तुओं की बात नहीं करते. किन्‍तु यह आरोप सही नहीं है.

मार्क्‍स रेखागणित के विद्वानों की विधि का व्‍यवहार नहीं करते, जो अपनी परिभाषा को चारों ओर के संसार से अलग करके असलियत से दूर किसी जगत में अपने निष्‍कर्ष निकालने बैठते हैं. ‘कैपीटल’ की विशेषता इस बात में नहीं है कि उसमें विलक्षण परिभाषाएं अथवा चीजों को समझाने के विलक्षण गुर दिये हुए हैं. ये चीजें हम उस ग्रंथ में नहीं पाते किन्‍तु उसमें अत्‍यंत सूक्ष्‍म विश्‍लेषणों की लड़ी-सी मिलती है.

इन विश्‍लेषणों के द्वारा मार्क्‍स वस्‍तु के क्षणिक से क्षणिक रूप, और मात्रा में होने वाले छोटे से छोटे अंतर अथवा हरेफेर को भी सूक्ष्‍मता से प्रगट कर देते हैं. वह रूप में इस बात को देखते हैं कि जिन समाजों में उत्‍पादन की प्रणाली पूंजीवादी है उनकी संपत्ति माल के विशाल संग्रह के रूप में होती है. माल, यानी स्‍थूल वस्‍तुएं ही वे अवयव हैं जिनसे पूंजीवादी संपत्ति बनती है, गणित के निर्जीव तथ्‍य नहीं.

मार्क्‍स फिर माल की अच्‍छी तरह जांच-पड़ताल करते हैं. उसे प्रत्‍येक दिशा में घुमाते फिराते है, उलटते पलटते हैं और उसमें से एक के बाद दूसरा भेद निकालते हैं-वे भेद जिनका सरकारी अर्थशास्त्रियों को कभी पता भी नहीं लगा और जो कैथोलिक धर्म के रहस्‍यों से संख्‍या में ज्‍यादा और अधिक गूढ़ हैं. माल का हर ओर से अध्‍ययन करने के बाद वह उसके अन्‍य मालों के साथ संबंध, यानी विनिमय को देखते हैं, फिर उसके उत्‍पादन और उत्‍पादन के लिये आवश्‍यक ऐतिहासिक परिस्थिति को देखते हैं.

वह माल के विभिन्‍न रूपों का निरीक्षण करते हैं और यह दिखाते हैं कि एक रूप कैसे दूसरे में बदल जाता है और किस प्रकार एक रूप अवश्‍यमेव दूसरे रूप का जन्‍मदाता होता है. इस क्रिया के विकास का तर्कपूर्ण चित्र इस अपूर्व क्षमता के द्वारा दिखाया गया है कि हम शायद यह समझें कि मार्क्‍स ने उसे गढ़ लिया है. परंतु वह वास्‍तव है और माल की असली गति की ही अभिव्‍यक्ति है.

मार्क्‍स हमेशा बड़ी ईमानदारी से काम करते थे. वह कोई ऐसी बात नहीं लिखते थे जिसे वह प्रमाणित न कर सकें. इस मामले में उन्‍हें उद्धृत कथन से संतोष नहीं होता था. वह सदैव मौलिक स्रोत खोज निकालते थे, उसके लिये चाहे जितना कष्‍ट उठाना पड़े. किसी साधारण-सी चीज की सच्‍चाई की खोज में वह बहुधा ब्रिटिश म्‍यूजिअम जाते थे इसलिये उनके आलोचक कोई ऐसी त्रुटि नहीं निकाल सके जो लापरवाही के कारण हुई हो, न वे यह दिखा सके कि मार्क्‍स के कोई निष्‍कर्ष ऐसे तथ्‍यों पर आधारित हैं जो जांच करने से सही न निकलें.

मौलिक लेखकों को पढ़ने की उनकी आदत के कारण उन्‍होंने बहुत से ऐसे लेखकों को पढ़ा जो लगभग अज्ञात थे और जिनको केवल मार्क्‍स ने ही उद्धृत किया है. ‘कैपीटल’ में अज्ञात लेखकों के इतने उद्धरण हैं कि यह समझा जा सकता है कि उन्‍हें ज्ञान का दिखावा करने के लिये रखा गया है. परन्‍तु मार्क्‍स को बिल्‍कुल दूसरी भावना प्रेरित कर रही थी. वह कहते थे कि ‘मैं ऐतिहासिक न्‍याय करता हूं और प्रत्‍येक मनुष्‍य को जो उचित होता है, देता हूं.’ जिसने सबसे पहले एक विचार की अभिव्‍यक्ति की थी अथवा औरों से अधिक सच्‍चाई से अभिव्‍यंजना की थी, उस लेखक का नाम लिखना वह अपना कर्त्तव्‍य समझते थे, चाहे वह कितना ही साधारण और अज्ञात क्‍यों न हो.

उनका साहित्यिक अन्‍त:करण उनके वैज्ञानिक अन्‍त:करण से कम न्‍यायप्रिय नहीं था. जिस तथ्‍य की सत्‍यता का उन्‍हें पूरा भरोसा नहीं होता था उसका वह कभी विश्‍वास नहीं करते थे, बल्कि जब तक किसी विषय का पूरा अध्‍ययन न कर लें तब तक वह उसके बारे में बोलते ही न थे. जब तक वह अपना लेख बार-बार पढ़ नहीं लेते थे और जब तक उसका रूप संतोषजनक नहीं हो जाता था, तब तक वह कुछ भी नहीं छपवाते थे. पाठकों के सामने अपने अधूरे विचार रखना उनके लिये असह्य था. पूरी तरह दुहराये बिना अपनी पुस्‍तक दिखाने में उनको अत्‍यन्‍त कष्‍ट होता। उनकी यह भावना इतनी प्रबल थी कि उन्‍होंने मुझसे कहा कि अधूरा छोड़ने की अपेक्षा मैं अपनी पुस्‍तकों को जला देना पसन्‍द करूंगा.

उनके काम करने के तरीके की वजह से उन्‍हें बहुत बार ऐसी मेहनत करनी पड़ती जिसका अनुभव उनकी पुस्‍तकों के पाठकों को मुश्किल से हो सकता है. जैसे इंग्‍लैण्‍ड के कारखानों के संबंध में पार्लियामेंट के बनाये हुए नियमों के बारे में ‘कैपीटल’ में लगभग बीस पन्‍ने लिखने के लिये उन्‍होंने जांच की समितियों तथा अंग्रेजी और स्‍कॉटलैण्‍ड की मिलों के इन्‍सपेक्‍टरों की लिखी हुई सरकारी रिपोर्टों का एक पूरा पुस्‍तकालय पढ़ डाला. पेन्सिल के निशानों से मालूम होता है कि उन्‍होंने इन्‍हें एक सिरे से दूसरे सिरे तक पढ़ा था.

उनका विचार था कि ये पूंजीवादी उत्‍पादन प्रणाली के विषय में सबसे महत्‍वपूर्ण और उपयोगी कागजों में से थे. जिन आदमियों ने इन्‍हें तैयार किया था उनके बारे में मार्क्‍स की बहुत अच्‍छी राय थी. मार्क्‍स कहते थे कि अन्‍य देशों में ऐसे आदमी शायद ही मिल सकेंगे जो, ‘इतने योग्‍य, इतने पक्षपात रहित और बड़े आदमियों के डर से इतने मुक्‍त हों, जितने कारखानों के अंग्रेज इन्‍सपेक्‍टर होते हैं.’ ‘कैपीटल’ के पहले भाग की भूमिका में यह असाधारण प्रशंसा लिखी मिलेगी.

मार्क्‍स ने इन सरकारी पुस्तिकाओं में से अनेक तथ्‍य निकाले. ये पुस्तिकाएं हाउस ऑफ कामन्‍स और हाउस ऑफ लॉर्ड्स के सदस्‍यों को बांटी जाती थी. वे लोग इनको निशाना बना कर इस बात से अपने हथियारों की शक्ति का अनुमान किया करते थे कि गोली ने कितने पन्‍नों को पार किया. कुछ लोग तोल के हिसाब से इन्‍हें रद्दी कागजों में बेच देते थे. यह उपयोग सबसे अच्‍छा था क्‍योंकि इसके कारण मार्क्‍स को अपने लिये लौंग एकर के एक रद्दी बेचने वाले कबाड़ी से ये पुस्तिकाएं सस्‍ते दामों में मिल गयीं.

प्रोफेसर बीजले का कहना है कि मार्क्‍स ही एक ऐसा आदमी था जो इन सरकारी छानबीनों की ज्‍यादा कदर करता था और उसी ने दुनिया में इनकी जानकारी फैलायी. परन्‍तु बीजले को यह नहीं मालूम था कि सन 1845 में एंगेल्‍स ने इन अंग्रेजी सरकारी पुस्‍तिकाओं में से अपने लेख ‘सन 1844 में इंग्‍लैण्‍ड में मजूदर-वर्ग की दशा’ के लिये बहुत से अंश लिये थे.

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