लांसनायक हनुमंथप्पा और उनका परिवार
देश की सीमा और सीमा के अंदर मारे जाने वाले सुरक्षाकर्मियों, सेनाओं, अर्द्धसेनाओं के जवानों की मौत के बाद सरकार द्वारा बड़े-बड़े वादे किये जाते हैं. ऐसा लगता है मानो सरकार और मीडिया उसके दुःख-दर्द के साझी बन गये हों. मारे गये उक्त जवानों के परिवारों के भविष्य तक को सरकार ने सुरक्षित कर दिया हो, परन्तु, हकीकत तो सामने तब आती है, जब उस जवानों की मौत के बाद उसका परिवार दर-दर की ठोकरें खाता हुआ, मामूली-सी सरकारी सहायता का मोहताज बन जाता है.
पुलवामा में मारे गये अर्द्ध-सेना के जवानों पर देश में राजनीतिक रोटियां सेंकने का खेल जारी है. वही लंबे-लंबे वादे, मुआवजा का आश्वासन जारी किये जा रहे हैं. परन्तु, सरकारों के किये वादों की हकीकत तब ही सामने आती है, जब मारे गये जवानों के परिजनों का हाल जानने का मौका मिलता है. ऐसे ही एक मारे गये जवान हनुमंथप्पा का परिवार ऐसा है जो सालों बाद भी पेंशन और नौकरी के लिए भटक रहा है. इस परिवार को जुमलेबाजों की तरफ से सिवाय आश्वासन के कुछ नहीं मिला, जबकि उस वक्त मीडिया ने भी तब भरपूर कवरेज दी थी. मगर अब जब उनका परिवार आर्थिक दिक्कतों से दो चार हो रहा है, तब कोई भी उनका साथ देने के लिए तैयार नहीं है.
बात हो रही है 3 साल पहले शहीद हुए कर्नाटक के लांसनायक हनुमंथप्पा की, जिनको सियाचिन से बर्फ के नीचे से छह दिन बाद जिंदा बाहर निकाला गया था, मगर बाद में उनकी मौत हो गई थी. हनुमंथप्पा की मौत के बाद केंद्र की मोदी सरकार और राज्य सरकार ने उनके परिवार को नौकरी, जमीन और घर देने के बड़े-बड़े दावे किए थे, पर उन तमाम दावों की हवा तब निकल गई जब हनुमंथप्पा के परिवार की बातें सामने आयी.
हनुमंथप्पा की मौत के बाद केंद्र और राज्य सरकार ने कहा था कि उनकी पत्नी महादेवी को तुरंत नौकरी दी जाएगी और उनकी मासूम बेटी नेत्रा का भविष्य सुरक्षित करने की दिशा में भी ठोस कदम उठाया जाएगा, मगर दावों और वादों के उलट इन मुआवाजों का सच इतना भयावह है कि महादेवी को 3 साल बीत जाने के बावजूद नौकरी नहीं मिल पाई है. ऐसा तब है जबकि महादेवी के पास कोई भी ऐसा आर्थिक स्रोत नहीं है, जिससे वह अपनी बेटी नेत्रा का भविष्य सुरक्षित करने के लिए उसे बेहतर शिक्षा दिलवा सके.
नवभारत टाइम्स में प्रकाशित एक खबर के मुताबिक महादेवी कहती हैं, ‘दो साल पहले मुझे केंद्र की मोदी सरकार की तरफ से एक पत्र मिला था, जिसमें मुझसे धारवाड़ जिले में रेशम उत्पादन विभाग में नौकरी करने के संबंध में पूछा गया था. मैंने रेशम उत्पादन विभाग में छह से आठ महीने तक अस्थायी कर्मचारी के रूप में नौकरी की, इस दौरान मुझे छह हजार रुपये तनख्वाह दी जाती थी. मगर जब मैंने अधिकारियों से अपनी नौकरी पक्की करने की बात की तो उन्होंने कोई भी संतोषजनक जवाब नहीं दिया.’
‘सरकारी नौकरी पाने के लिए मैंने काफी मशक्कत की. मुख्यमंत्री, कलेक्टर से लेकर कई विभागों को सरकार के दावों और वादों को याद दिलाते हुए इस संबंध में पत्र लिखा, मगर किसी का कोई जवाब नहीं आया. शासन-प्रशासन का निराशाजनक रुख देख अब मेरी स्थायी नौकरी पाने की मेरी सारी आशाएं खत्म हो गईं हैं.’
‘मोदी सरकार में केंद्रीय मंत्री स्मृति ईरानी ने मुझे मेरे पति की शहादत के बाद सरकारी नौकरी दिलाए जाने को लेकर एक ट्वीट किया था. स्मृति ईरानी के हुबली आने पर मैंने उनसे मुलाकात भी की थी, मगर हैरत तब हुई जब उन्होंने ऐसा कोई ट्वीट किए जाने से इनकार कर दिया. नौकरशाहों और नेताओं-मंत्रियों की असंवेदनशीलता देख मैंने अब नौकरी के लिए किसी से सिफारिश करना छोड़ दिया है.’
हालांकि अपने वादे की खानापूर्ति के लिए कर्नाटक सरकार ने महादेवी को बेगदूर के पास चार एकड़ कृषि भूमि दी, मगर बंजर होने की वजह से यह किसी काम की नहीं है. इसके अलावा बारीदेवरकोप्पा में महादेवी को एक एकड़ का प्लॉट भी मिला, मगर आर्थिक दिक्कतों के चलते उसमें भी अभी तक घर नहीं बनवाया गया है. शासन-प्रशासन की बेरुखी को देखते हुए अब महादेवी को अपनी बेटी के भविष्य की चिंता सता रही है. नौकरी की तरफ से लगभग निराशा हो चुकी महादेवी ने अपनी बेटी को निशुल्क शिक्षा दिलाए जाने की मांग की है.
मालूम हो कि मारे जाने वाले जवानों को मिलने वाली पेंशन को 2004 में केन्द्र की सत्ता में आई भाजपा की वाजपेयी सरकार ने बंद कर दिया था. बात यही खत्म नहीं होती, बल्कि जवानों को कभी भी शहीद का दर्जा नहीं दिया जाता. मारे जाने वाले जवानों को ‘शहीद’ का दर्जा न देना शासक वर्ग के द्वारा सेना में काम कर रहे जवानों के प्रति हिकारत की भावना को ही दर्शाती है, जो यह बताती है कि सीमा पर या सीमा के अंदर मारे जाने वाले जवान, देश के गरीब-मध्यवर्ग से आते हैं, के प्रति शासक वर्ग का रवैया क्या होता है ?
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