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26 मार्च : बांका में शहीद स्मृति दिवस समारोह

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26 मार्च : बांका में शहीद स्मृति दिवस समारोह

शहीद स्मृति आयोजन समिति, बांका के तत्वावधान में कटोरिया के बंगालगढ़ में शहीदों की स्मृति में आगामी 26 मार्च को एक विशाल जनसभा का आयोजन किया जा रहा है. सभा की सफलता के लिए इस समिति ने अपना उद्देश्य बताते हुए एक पर्चा भी जारी किया है, जिसका मजमून हम अपने पाठकों के लिए प्रस्तुत कर रहे हैं.

आज हम एक ऐसे दौर से गुजर रहे हैं जहां साम्राज्यवाद-सामंतवाद- ब्राह्मणवाद-पूंजीवाद-दलाल नौकरशाह का गठजोड़ चरम पर है. प्रक्रिया की शक्तियों पर प्रतिक्रिया की शक्तियां हावी है. शिक्षित जनमानस में जङता है. प्रतिरोध की शक्तियां बिखरी नजर आ रही है. शहीदों के विचार और सपनों को दरकिनार कर उनके बलिदान दिवस का उत्साहधर्मी खोखला और पाखंडी आयोजन करने की होड़ लगी है.

जाति-धर्म के तंग दायरे से ऊपर उठकर देश और समाज के लिए सर्वस्व न्योछावर करने वाले भगत सिंह और उनकी राहों पर चलकर समाजवाद की स्थापना के लिए उनकी राहों पर चलनेवाले उनके साथियों को सीमाओं में बंद करने की साजिश हो रही है. समता, स्वतंत्रता और बंधुत्व जैसे पुराने पूंजीवादी नारों के स्थान पर निजीकरण, उदारीकरण और मुक्त बाजार की आकर्षक नव औपनिवेशिक अवधारणाएं प्रचलित-प्रसारित की जा रही है.

हम जिस लोकतंत्र पर इतराकर अपना सीना 56 इंच करके झूठी शान बघार रहे हैं, वह लोभतंत्र और एक खास किस्म के मायाजाल के रूप में सामने आया है, जिसमें एक ओर व्यवस्था के समर्थक अंधभक्तों द्वारा खुशहाली के आंकड़े हैं तो दूसरी ओर अभाव, शोषण, अत्याचार, भय व आतंक के तले पिसता हुआ सामान्य नागरिक है.

राजनीति के अपराधीकरण का यह आलम है कि तस्कर-ठेकेदार- बिल्डर शराब की दुकानों और पेट्रोल पंपों के परमिटधारी अपराधी सरगना और माफिया डॉन खादी पहनकर राजनीति में आ गए हैं और अधिकांश तो संसदीय राजनीति की धुरी बनकर देश को दीमक की तरह चाट रहे हैं.

आज के हमारे समय और समाज में तेजी से अंधेरा फैल रहा है. हिंसा की, हत्या की, नफरत और विश्वास की, झूठ और प्रपंच सबके फैलने की गति बहुत तेज हो गई है. पेट्रोल-डीजल के दाम बढ़ गए हैं और घटने की कोई उम्मीद भी नहीं है. छोटे व्यापारी भयंकर वित्तीय संकट से गुजर रहे हैं. मजदूर बेबसी की अंतिम सीमा पर खड़े हैं. किसानों के आत्महत्या का सिलसिला थम नहीं रहा है. गरीबों-दलितों-पिछड़ों-अल्पसंख्यकों-आदिवासियों के विरुद्ध हिंसा बेलगाम है.

युवा लोग करोड़ों की संख्या में बेरोजगार हैं. सरकार की गलत नीतियों के कारण समाज में गरीबी और अमीरी की खाई लगातार चौड़ी होती जा रही है. शिक्षा में संकीर्ण विचारधारा का हस्तक्षेप बढ़ता जा रहा है. असली समस्या महंगाई, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार से लोगों का ध्यान भटकाकर उनके बीच आतंक और असुरक्षा का माहौल बनाकर समाज व देश को जाति-धर्म व संप्रदाय में बांटने की शर्मनाक कोशिश की जा रही है. हर दिन शिखर से दस झूठ बोले जा रहे हैं.

मीडिया अधिकतर गोदी मीडिया होकर संतुष्ट है. इन सब का विरोध करने वाले मानवाधिकारवादी कार्यकर्ताओं पर झूठे केस लादकर उन्हें मरने पर मजबूर किया जा रहा है. देश का शासक वर्ग हमारे जनतांत्रिक अधिकारों पर लगातार हमला कर रहा है. एक-एक करके सारे अधिकारों पर कुठाराघात किया जा रहा है, जिसे दशकों के जन संघर्षों से हासिल किया गया था.

श्रम कानूनो में अनावश्यक छेड़छाड़ कर उन्हें 44 से 4 तक सीमित कर दिया गया है. उनके संगठन बनाने तक पर रोक लगाकर बचे-खुचे लोकतंत्र के भी पर काट डाले गये हैं. जनविरोधी कृषि कानूनों को जबरन थोपने की कोशिश करके पूंजीपतियों के इशारे पर लोकतंत्र को हांकने का प्रयास किया जा रहा है.

शिक्षण संस्थानों में मजहबी नफरत फैलाकर वातावरण को विषाक्त बनाया जा रहा है. मौजूदा उदाहरण हिजाब प्रकरण है, जिसे बेवजह तूल देकर देश को सांप्रदायिक रंग में झोंकते हुए उस पर सियासी रोटियां सेंकने की शर्मनाक हरकत की गई. न्यायालय वर्गभेद, नस्लभेद और वर्णभेद के आधार पर फैसला देकर खुद को कटघरे में खड़ा करते हुए गौरवान्वित महसूस कर रहा है.

सरकारें आतंकवाद और राष्ट्रीय सुरक्षा की दुहाई देते हुए निगरानी और दमनतंत्र को मजबूत करने के दावे करती हैं और इस नाम पर वैसे जागरूक बुद्धिजीवियों, सामाजिक कार्यकर्ताओं को अपने निशाने पर लेती है जो जातिवाद, संप्रदायवाद, मजदूरों-मेहनतकशों की समस्याओं, महिला सुरक्षा, राजकीय दमन आदि के मसले पर आवाज उठाते हैं, जनता को गोलबंद करते हैं, आन्दोलन व संघर्ष करते हैं. वैसे जनपक्षधर पत्रकार जो सरकार की बेरुखी, दमन, कुकर्मों को जाहिर कर जन-जन तक पहुंचाते हैं, इसके मुख्य टारगेट में हैं.

इजरायली साइबर सुरक्षा कंपनी एनएसओ से पेगासस स्पाईवेयर खरीदकर अपने ही देश के नागरिकों की जासूसी कराकर सरकार ने अपने कुत्सित मंसूबे को जगजाहिर किया है. हांलाकि मामला उजागर होने के बाद यह साफ हो गया कि भारत जैसे विशाल देश को गैर लोकतांत्रिक तरीके से नियंत्रित करने की कोशिश आत्मघाती साबित होगी. सरकार की ऐसी गलत मंसूबों के खिलाफ देशभर में जबरदस्त आक्रोश है.

आज हम जिस दौर से गुजर रहे हैं वह निश्चित ही जनतंत्र के लिए घोर संकट का दौर है, जिसमें तथाकथित जनतांत्रिक सरकार द्वारा अभिव्यक्ति की आजादी और असहमति के स्वर का गला घोंटने का कुचक्र चलाया जाता है. सरकार नागरिकों से बोलने, लिखने-पढ़ने, शासन व्यवस्था की जनविरोधी नीतियों का प्रतिकार करने और अपनी बात कहने के लिए किसी मंच-संगठन से जुड़ने के अधिकार को कुचल देना चाहती है.

आज पूरे मुल्क में खत्म होते रोजगार, कमजोर पड़ते व्यापार, खस्ताहाल अर्थव्यवस्था एवं सांप्रदायिक शक्तियों के उभार से बदहाली की स्थिति हो गई है. स्वास्थ्य, शिक्षा, ऊर्जा, सिंचाई, व्यापार, सड़क, रेल, हवाई, बीमा व संचार आदि सेवाओं का धड़ल्ले से निजीकरण किया जा रहा है. परिणाम सामने है – सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी (सीएमआईई) की रिपोर्ट के अनुसार 2020 से अप्रैल 2021 तक 12.6 करोड लोगों के हाथ से रोजगार छीनकर उन्हें बेमौत मरने के लिए छोड दिया गया है, जिनमें 9 करोड लोग ऐसे हैं जो दिहाड़ी मजदूर हैं.

बांका, जमुई, मुंगेर, और भागलपुर आधारित जिस क्षेत्र में हम इस बलिदानी दिवस का आयोजन कर रहे हैं, वहां आदिवासी व परंपरागत जंगलवासियों का जल-जंगल-जमीन पर प्राकृतिक, नैतिक व संवैधानिक अधिकार है, चास-वास की जमीन पर रहने का हक है. इसके उलट सरकारी अधिकारी, वन माफिया व दबंगों का गठजोड इन्हें वहां से बेदखल करने का कुचक्र चलाते रहते हैं

एक सुनियोजित साजिश के तहत फलदार और लोगों के उपयोग वाले पेड़ पौधों की जगह ख़ैर, अरकसिया, कांटेदार बांस, बबूल, यूकेलिप्टस आदि पेड़ लगवाते हैं ताकि जंगलवासी वहां टिक नहीं पाये और जंगल छोड़कर पलायन कर जाएं. कमरतोड़ आर्थिक नीतियों के कारण बीड़ी मजदूर बाहुल्य इन क्षेत्रों के मजदूर असमय मरने को मजबूर हैं. समूचे दैश की तरह इस क्षेत्र के भी किसान जमीन के मालिकाना हक, कृषि लागत और उचित दर पर बाजार की समस्या से हलकान हैं.

ऐसे चुनौतीपूर्ण समय में जल-जंगल-जमीन, इज्जत-आबरू की रक्षा और इंसाफ की लड़ाई में हर वैसे संवेदनशील नागरिक, जो एक सहिष्णु, सुसंस्कृत, समतावादी समाज के पक्षधर हैं, के लिए उम्मीद छोड़ने और हिम्मत हारने का वक्त नहीं हैं क्योंकि दमन के बावजूद आमजन के आन्दोलन और प्रतिरोध के स्वर घटने की बजाय बढ़ते ही जा रहे हैं. हमें अपनी कमर और कसते की जरूरत है.

दिल्ली की बॉडरों पर लगातार एक साल तक अपनी मांगों की खातिर तमाम कष्टों और संकटों को झेलते हुए किसानों ने अपनी जिस चट्टानी एकता और जज्बे के साथ सरकार को पीछे हटने पर मजबूर किया है, उसने हममें साहस का संचार किया है और आन्दोलन के बल पर सफलता की उम्मीद को जगाया है.

बेरोजगार युवाओं ने जब समझ लिया कि उन्हें रोजगार की जगह अंधराष्ट्रवाद और सांप्रदायिक उन्माद से बहलाया जा रहा है, तब उनके जोरदार आक्रोशपूर्ण आन्दोलन ने फासीवादी हुक्मरान को घुटनों के बल बैठने को मजबूर कर दिया.

ऐसे माहौल में हमें मजदूरों, किसानों, दलितों, महिलाओं, छात्र-नौजवानों, अल्पसंख्यकों, मेहनतकशों के जनवादी संघर्ष की दिशा और एकता को बचाने के लिए शहीद भगत सिंह, बिरसा मुण्डा, सिद्दू-कान्हू, भूमकाल विद्रोह के महान आदिवासी क्रांतिकारी गुंडाधुर (जो समूचे आन्दोलन के दौरान न तो कभी पकड़े गये और न ही मारे गये, यही कारण है कि आज भी आदिवासी समुदाय गुंडाधुर को जीवित मानते हैं और जंगल के चीखते सन्नाटे आज भी अपने नायक गुंडाधुर का इंतज़ार कर रहे हैं) सहित सभी शहीदों को याद करने, उनके विचार और लक्ष्य पर चर्चा करके प्रेरणा लेने तथा संकल्पित होकर आत्मबलिदानी जज्बा के साथ आगे बढ़ने के लिए बड़ी संख्या में उत्साहित होकर इस स्मृति दिवस में शामिल होने आ रहे हैं.

शहीद स्मृति दिवस आयोजित करने का हमारा उद्देश्य दुनिया को वर्ग-संघर्ष की लड़ाई में शहादत देने वाले तमाम शहीदों के साथ शहीद-ए-आजम भगत सिंह के उस संदेश को बताना है, जिसमें उन्होंने समानता पर आधारित जनवादी समाज के निर्माण हेतु चल रही लड़ाई का हिस्सा बनने का आह्वान करते हुए कहा था – यह लड़ाई तबतक जारी रहेगी जबतक आदमी द्वारा आदमी का एवं साम्राज्यवादी राष्ट्र द्वारा कामजोर राष्ट्रों का शोषण व दमन जारी रहेगा.

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