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माओवादी आन्दोलन के दर्शक सतनाम उर्फ गुरमीत का यात्रानामा

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राजनीतिक व व्यक्तिगत जीवन की हताशा लोगों में इस कदर छा गई है कि अतिसंवेदनशील लोग खुद को ही खत्म कर डाल रहे हैं. साहित्यकार भी चूंकि जीवन की इसी जद्दोजहद से जूझते हैं, और उनकी संवेदनशीलता और भी ज्यादा होता है, फलतः उनकी हताशा भी व्यापक होती है. गोरख पांडे की की ही तरह पंजाब के क्रांतिकारी राजनैतिक कार्यकर्ता और ‘जंगलनामा’ जैसी प्रसिद्ध साहित्य के लेखक सतनाम उर्फ गुरमीत ने भी फांसी के फंदे से लटककर आत्महत्या कर ली. सतनाम उर्फ गुरमीत को करीब से जानने वाले सामाजिक कार्यकर्ता अर्जुन प्रसाद सिंह ने उनके बारे में लिखा है, जिसे हर किसी को जानना चाहिए.

माओवादी आन्दोलन के दर्शक सतनाम उर्फ गुरमीत का यात्रानामा

‘जंगलनामा’ का चर्चित लेखक सतनाम उर्फ गुरमीत 27 अप्रैल, 2016 की रात में इस दुनिया से सदा-सदा के लिए अलविदा हो गये. जंगलनामा, जो वास्तव में सतनाम द्वारा 2001 में बस्तर के जंगली इलाकों में की गई द्विमासिक यात्रा का एक संजीदा संस्मरण है, के अंतिम अध्याय का शीर्षक ‘अलविदाई’ है. इस अध्याय के मात्र दो पन्ने हैं, जिसमें सतनाम बस्तर के आदिवासियों एवं उनके बीच कार्यरत माओवादी गुरिल्ला एवं उनके नेताओं के साथ बिताये गए लम्हों को याद करता है और अपना किटबैग, पेन्सिल व नोटबुक गुरिल्ला दस्ते में शामिल एक नई लड़की को सौंपकर जंगल से विदा लेता है.

लेकिन 27 अप्रैल की अलविदाई की तैयारी में वह करीब सवा सौ पन्ने लिख जाता है, जिसमें अपने पारिवारिक जीवन की विसंगतियों को उजागर करने पर ध्यान केन्द्रित करता है। इस बार वह अपना सब कुछ, यानि अपना राजनीतिक जीवन एवं संगठन, परिवार एवं दोस्तों का बड़ा हुजूम, छोड़कर शोषण-दमन-उत्पीड़न की इस दुनिया से हमेशा के लिए विदा हो जाता है. 64 वर्षीय सतनाम जैसे एक प्रतिबद्ध क्रान्तिकारी कार्यकर्ता का अपने ही घर में फांसी के फंदे से लटक जाना निश्चय ही तमाम प्रबुद्ध एवं संवेदनशील लोगों एवं संगठनों के सामने एक गंभीर सवाल छोड़ जाता है.

सतनाम ने अपना राजनीतिक जीवन सत्तर के दशक में शुरू किया. उन्होंने 1971 में बी.ए. द्वितीय वर्ष की पढ़ाई छोड़ दी और पंजाब में कार्यरत नक्सलवादी धारा के संगठनों से सम्बन्ध बनाना शुरू किया. उस समय पंजाब में सीपीआई (एम.एल.) एवं यूनिटी सेंटर ऑफ कम्युनिस्ट रिवोल्यूशनरी ऑफ इण्डिया(मार्क्सवादी-लेनिनवादी) (यूसीसीआरआई- एम.एल) जैसे संगठन कार्यरत थे.

यूसीसीआरआई (एम.एल.) का नेतृत्व सीपीआई (एम.एल.) की लाइन को वामपंथी एवं अराजकतावादी मानता था. पंजाब में हरभजन सोही इस ग्रुप के नेता थे और सतनाम ने उनके साथ ही अपनी राजनैतिक जिन्दगी शुरू की. इस क्रान्तिकारी ग्रुप के मातहत उन्होंने दैनिक मजदूरों, बिजलीकर्मियों एवं शिक्षकों के बीच काफी जोश-खरोश के साथ काम किया.

इस ग्रुप के अन्दर चीन की कम्युनिस्ट पार्टी के नेता देंग शियाओ पिंग की भूमिका एवं उनके द्वारा प्रतिपादित ‘तीन दुनिया के सिद्धांत’ के सवाल पर गंभीर मतभेद हुए और 1979 में हरभजन सोही के नेतृत्व में पंजाब की पूरी कमेटी इससे अलग हो गई. इनका मानना था कि देंग संशोधनवादी हैं और ‘तीन दुनिया का सिद्धांत’ विश्व परिवेश की गलत व्याख्या करता है. सतनाम इसी कमिटी के साथ काम करते रहे लेकिन जल्द ही उन्हें इस नये ग्रुप की राजनैतिक सोच एवं सांगठनिक व्यवहार से विरक्ति हो गई. इसके बाद वे इस ग्रुप को छोड़कर ‘कम्युनिस्ट लीग ऑफ इण्डिया’ में शामिल हो गए.

इस ग्रुप का मानना था कि भारत एक पूंजीवादी देश है और भारत की क्रान्ति की मंजिल ‘समाजवाद’ है. इस ग्रुप के अन्दर भी काफी राजनैतिक-सांगठनिक विवाद थे और इसे भी सीपीआई (एम.एल.) की तरह कई टूटों का सामना करना पड़ा. इस ग्रुप में रवि सिन्हा के नेतृत्व में जब 1989 में टूट हुई तो सतनाम ने रवि सिन्हा के साथ काम करना पसन्द किया. इस ग्रुप के मातहत उन्होंने करीब एक दशक तक काम किया.

इस दौरान उन्होंने न केवल पंजाब के मजदूरों के बीच काम किया बल्कि ‘परचम’ जैसी जनवादी पत्रिकाओं में कई अच्छे लेख भी लिखे. साथ ही साथ, उन्होंने ‘आदिविद्रोही’ जैसे हावर्ड फास्ट के मशहूर उपन्यास का पंजाबी भाषा में अनुवाद भी किया, जिसका प्रकाशन करीब पांच साल पहले किया जा सका है. इसी अवधि में सतनाम अपने ही संगठन की एक कार्यकर्ता के साथ शादी के बंधन में भी बंधे. तब तक वे एक पेशेवर कार्यकर्ता एवं संगठनकर्ता के रूप में काफी हद तक विकसित हो चुके थे.

1997 आते-आते इस ग्रुप के अन्दर भी राजनैतिक-सांगठनिक मतभेद काफी गंभीर हो गए, जो आगे चलकर एक और टूट में परिणत हुआ. इसी दौरान सतनाम को अपनी पत्नी की बेरूखी का भी सामना करना पड़ा, जिसका अन्त ‘सम्मति सम्बन्ध-विच्छेद’ में हुआ. संगठन में बिखराव एवं पत्नी के साथ सम्बन्ध-विच्छेद ने सतनाम को अन्दर से झकझोर दिया और उन्होंने 1998 में संगठन से अपना नाता तोड़ लिया. इसके बाद वे गंभीर रूप से अवसादग्रस्त हो गए. उन्हें इस गम्भीर मानसिक स्थिति से उबारने में पंजाब के डॉक्टर दर्शन पाल एवं कई साथियों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई.

उस वक्त देश के बिखरे कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी आन्दोलन को एकताबद्ध करने का प्रयास किया जा रहा था और अगस्त 1998 में ही सीपीआई (एम.एल.) पीपुल्स वार एवं सीपीआई (पार्टी यूनिटी) का विलय हो चुका था. इस नये एकताबद्ध सीपीआई (एम.एल.) पीपुल्स वार के नेतृत्व में देश के करीब डेढ़ दर्जन राज्यों में कई प्रकार के जुझारू जन आन्दोलन चलाये जा रहे थे, जिसका सकारात्मक असर पंजाब पर भी पड़ रहा था. एक नये क्रान्तिकारी तेवर के साथ संचालित जनान्दोलनों ने सतनाम के दिलो-दिमाग पर असर डाला और वे इससे राजनीतिक एवं संगठनात्मक तौर पर जुड़ गये.

आगे उन्होंने अपना कार्यस्थल दिल्ली को बनाया. यहां वे छोटे-मोटे तकनीकी कामों को अंजाम देने के साथ-साथ एक पंजीकृत पत्रिका ‘पीपुल्स मार्च’ से जुड़कर काम करने लगे. पीपुल्स मार्च में उनका लेख जी. फेलो के नाम से छपता था. इस पत्रिका में उन्होंने खासकर फिलिस्तीन के सवाल पर कई महत्वपूर्ण लेख लिखे. पीपुल्स मार्च में काम करने के दौरान ही उन्होंने 2001 में बस्तर के जंगलों की यात्रा की. वहां से लौटने के बाद पंजाबी में अपना यात्रा संस्मरण लिखा, जो ‘जंगलनामा-बस्तर द जंगला विच’ नाम से 2004 में पुस्तक के रूप में छपा.

फिर 2006 में इसका हिन्दी अनुवाद भी छापा गया. इसके बाद इस पुस्तक के तमिल, तेलगु, मलयालम, कन्नड़, मराठी, बंगाली एवं गुजराती संस्करण भी सामने आये. इस किताब की लोकप्रियता को देखते हुए ‘पेंग्विन बुक्स’ ने इसे अंग्रेजी में छापने का बीड़ा उठाया, जो 2010 में ‘जंगलनामा-ट्रेवल्स इन ए माओइस्ट गुरिल्ला जोन’ के नाम से दुनिया के पाठकों के सामने आया. खुद सतनाम के शब्दों में –

‘जंगलनामा कोई शोध की पुस्तक नहीं है, न ही काल्पनिक, अर्ध-सत्य, अर्ध-मायावी और साहित्यिक रचना है. यह बस्तर के जंगलों में रह रहे कम्युनिस्ट गुरिल्लाओं और आदिवासियों के दैनिक जीवन को चित्रित करता है … इस किताब के चरित्र वैसे जिन्दा मानव हैं, जो अपने आदर्शों के लिए कुर्बान होने को हमेशा तैयार रहते हैं. व्यवस्था ने उन्हें विद्रोही एवं गैरकानूनी घोषित किया है और वे अपने सपने-नये युग व जिन्दगी के सपने को असलियत में बदलना चाहते हैं. इतिहास के खजाने में इन गुरिल्लों एवं आदिवासियों के लिए क्या कुछ रखा है, इसे आने वाला समय ही बतायेगा लेकिन इतिहास को वे क्या देना चाहते हैं, इस किताब में उसे उनके शब्दों में दर्ज किया गया है.’

सतनाम दूसरी बार 2006 में बस्तर के जंगलों में संघर्षरत आदिवासियों एवं कम्युनिस्ट गुरिल्लों से रूबरू होने गए. उस वक्त उन इलाकों में छत्तीसगढ़ सरकार एवं वहां की विपक्षी कांग्रेस पार्टी के गठजोड़ के तहत ‘सलवा जुडूम’ नामक भयंकर दमन अभियान चलाया जा रहा था. वे करीब तीन माह बाद वहां से लौटकर आये और जंगलनामा का दूसरा भाग पूरा करने का प्रयास किये. लेकिन करीब 90 पन्ने लिखने के बाद उनकी कलम रूक गई और किताब अधूरी रह गई. ‘जंगलनामा’ मूलतः आदिवासियों के संघर्ष की दास्तान है लेकिन इसका दूसरा भाग राज्य के नेतृत्व में संचालित दमन अभियान की दास्तान बनती जा रही थी. शायद यह भी एक वजह है जिसके चलते उनकी कलम रूक गई.

सतनाम 2003 के बाद अखिल भारतीय जन प्रतिरोध मंच (ए.आई.पी.आर.एफ) के दिल्ली स्थित केन्द्रीय कार्यालय में आ गये. यहां आकर उन्होंने ए.आई.पी.आर.एफ. के कामों में हाथ बंटाना शुरू किया. उन्होंने ए.आई.पी.आर.एफ. के अध्यक्ष डा. दर्शन पाल के साथ वर्ल्ड सोशल फोरम के समानान्तर आयोजित ‘मुम्बई प्रतिरोध-2004’ में काफी उत्साह के साथ भाग लिया. वहां उन्होंने विदेश से आये प्रतिनिधियों के साथ बातचीत करने का जिम्मा निभाया.

इसके बाद उसी साल उन्हें ए.आई.पी.आर.एफ. के अंग्रेजी मुखपत्र ‘पीपुल्स रेजिस्टेन्स’ के सम्पादन का पदभार भी सम्हालना पड़ा. कुछ समय बाद यह पत्रिका बन्द हो गई, तब उन्होंने ए.आई.पी.आर.एफ. के हिन्दी मुखपत्र ‘समकालीन जन प्रतिरोध’ में अपना लेख लिखना शुरू किया. 2006 में जब वे बस्तर के जंगलों से लौटकर आये तो उन्होंने वहां के आदिवासी जीवन पर 4 कविताएं भी लिखीं, जो समकालीन जन प्रतिरोध में ‘बस्तर का पिघलता लावा’ शीर्षक के तहत प्रकाशित हुईं.

इसके पूर्व फरवरी 2005 में उत्तर प्रदेश के बरेली शहर में ‘साम्राज्यवाद विरोधी आन्दोलन में भारतीय मुसलमानों की भूमिका’ विषय पर दो दिवसीय अखिल भारतीय कन्वेंशन का आयोजन किया गया. इसमें सतनाम ने ए.आई.पी.आर.एफ. की ओर से अमेरिकी-इजरायली गठजोड़ में फिलिस्तीन की जनता पर हो रहे हमले के राजनीतिक निहितार्थ को उजागर करते हुए एक पेपर प्रस्तुत किया, जिसमें मुस्लिम यूथ इण्डिया के फिरोज मिठी बोरेवाला द्वारा पेश ‘सभ्यताओं के संघर्ष’ के सिद्धांत की तीखी आलोचना की गई.

2005 में ही नागपुर और फिर दिल्ली में जाति उन्मूलन के मुद्दे को केन्द्रित करते हुए कन्वेंशन आयोजित किए गए. दिल्ली कन्वेंशन को सफल बनाने में सतनाम ने एक महत्वपूर्ण भूमिका अदा की. इसी साल अगस्त में ए.आई.पी.आर.एफ. एवं एस.एफ.पी.आर. का विलय हो गया और रिवोल्यूशनरी डेमोक्रेटिक फ्रण्ट (आर.डी.एफ.) नामक एक नये मोर्चे की घोषणा हुई. तब ए.आई.पी.आर.एफ. का दिल्ली कार्यालय आर.डी.एफ. के केन्द्रीय कार्यालय में तब्दील हो गया. साथ ही साथ, समकालीन जन प्रतिरोध अब आर.डी.एफ. का मुखपत्र बन गया. सतनाम इसी कार्यालय में रहकर अपनी राजनैतिक-सांगठनिक जिम्मेवारियां निभाते रहे.

इसके बाद जुलाई, 2006 में पीपुल्स डेमोक्रेटिक फ्रंट ऑफ इण्डिया (पीडीएफआई) का गठन हुआ. तब सतनाम इस नये लोक जनवादी मोर्चा के साथ काम करने लगे. जब इस मोर्चा का कार्यालय अलग हो गया, तो सतनाम उसमें चले आये और वहीं से पीडीएफआई की दिल्ली इकाई का मार्ग दर्शन करने लगे.

इसी दौरान उनकी करीब 90 साल की मां, जो पटियाला में अकेली रहती थीं, की तबीयत काफी खराब रहने लगी. सतनाम को उनकी देख-भाल के लिए लगातार पटियाला जाना-आना पड़ा. जब मां की तबीयत ज्यादा खराब हो गई तो उन्हें अन्ततः 2007 में अपने को पटियाला शिफ्ट करना पड़ा. वहां उन्होंने अपनी मां की देखभाल के साथ-साथ पंजाब के संगठन एवं साथियों के साथ काम करना शुरू किया. वहां के साथियों ने जब ‘सुलगते पिण्ड’ नामक पंजाबी पत्रिका को निकालना तय किया तो उनके पटियाला स्थित घर को प्रकाशन स्थान बनाया गया.

सतनाम इस पत्रिका के सम्पादक मंडल में भी शामिल हुए. यह पत्रिका कई वर्षों तक उनके घर के पते से प्रकाशित होती रही. इसी दौरान उन्होंने ‘टूवर्ड्स ए न्यू डाउन’ नामक एक अंग्रेजी पाक्षिक पत्रिका (जो कोलकाता से निकलती थी) की सम्पादकीय टीम में काम किया और इसमें उनके कई लेख भी छपे.

2010 में जब उनकी मां का देहान्त हो गया तो उन्हें दिल्ली वापस लाने के कई प्रयास किए गए लेकिन वे स्थानीय एवं घरेलू मामलों में उलझ गये. उनके पटियाला प्रवास की अवधि में क्रान्तिकारी, खासकर माओवादी आन्दोलन पर राजकीय दमन भी काफी तेज हुआ. कई महत्वपूर्ण इलाकों में आन्दोलन को गंभीर धक्के का सामना करना पड़ा और कुछ जगहों पर ठहराव व बिखराव की स्थिति पैदा हुई. इन सबों का उनके दिलो-दिमाग पर काफी नकारात्मक असर पड़ा और 2016 आते-आते वे एक बार फिर गंभीर अवसाद से ग्रस्त हो गए. डा. दर्शन पाल, प्रो. बावा सिंह एवं कई अन्य साथियों ने उन्हें इस स्थिति से उबारने का प्रयास किया, जिसमें उन्हें सफलता नहीं मिली.

अभी बस्तर के जंगली इलाकों में केन्द्र एवं राज्य सरकार की संयुक्त देख-रेख में ‘ऑपरेशन 2016’ नामक विशेष दमन अभियान चलाये जा रहे हैं. कई नागरिक अधिकार टीमों ने उन इलाकों में जाकर आदिवासियों पर हो रहे राजकीय दमन के खिलाफ आवाजें उठाई हैं. बस्तर में कार्यरत क्रान्तिकारी संगठन ऐसे समय में निश्चय ही सतनाम जैसे लोगों को याद करते होंगे कि वे हमारे बीच आयें और हमारे संगठन एवं आदिवासी जनता पर चलाये जा रहे दमन-उत्पीड़न को दुनिया की जनता के सामने उजागर करें.

क्रान्तिकारी आन्दोलन पर चल रहे क्रूर फासीवादी दमन के दौर में हमारे बीच से सतनाम का जाना निःसन्देह एक काफी दुखद घटना है. उनकी असमय आत्महत्या से न केवल उनके परिवार के लोगों और दोस्तों, बल्कि क्रान्तिकारी दलों एवं संगठनों को भी सबक लेना चाहिए, ताकि सतनाम जैसे पेशेवर क्रान्तिकारी की आवाज बन्द न हो और उनकी कलम रूक न पाये.

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