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मनुस्मृति फाइल्स

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मनुस्मृति फाइल्स
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मनुस्मृति (10/4) के अनुसार –  ‘अर्थात, ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य ये तीनों वर्ण द्विजाति कहाते हैं, (उपनयन संस्कारहीन चौथा वर्ण) शूद्र एक-जाति है, इसके सिवाय पांचवां वर्ण नहीं है.’

मनुस्मृति (10/126) – ‘अर्थात द्विजों के घर में सेवा करने वाले शूद्र को पाप नहीं लगता और न ही उसके लिए किसी प्रकार की शुद्धि का कोई नियम है. शूद्र संस्कारों (उपनयन व यग्योपवीत) के योग्य नहीं और अग्निहोत्र आदि यज्ञों में उसका अधिकार नहीं और पाकयज्ञ आदि धर्मकार्यों का उसे निषेध नहीं है, वह भले ही करे.’

मनुस्मृति (2/67) – ‘अर्थात स्त्रियों का विवाह ही उसका वैदिक संस्कार अर्थात यग्योपवीत धारण है, उसके द्वारा पति की सेवा करना ही उसका वेदाध्ययन है और घर-गृहस्ती के काम करना ही अग्निहोत्र (हवन आदि) है.’

मनुस्मृति (10/1) के अनुसार – ‘अर्थात अपने-अपने कर्म करते हुए तीनों द्विजातियां वेद पढ़ें, परन्तु इनमें से ब्राह्मण ही वेद पढावे, वैश्य व क्षत्रिय नहीं, यह निश्चित है.’

मनुस्मृति (10/5) में स्पष्ट रूप से कहती है कि जाति का सम्बन्ध जन्म से है- ‘अर्थात, चारों वर्णों में विवाहिता, सवर्णा, अक्षतयोनि स्त्रियों में जो ब्राह्मण से ब्राह्मणी में, क्षत्रिय से क्षत्रिया में, इस क्रम से पैदा हुए हैं उन्हें माता-पिता की जाति का ही जानना चाहिए.’

इसी तरह मनुस्मृति (2/38) में कहती है – “अर्थात, हर हाल में ब्राह्मण का 16वें वर्ष तक, क्षत्रिय का 22वें वर्ष तक और वैश्य का 24वें वर्ष तक यग्योपवीत हो जाना चाहिए.’ मतलब यग्योपवीत संस्कार से पहले ही बालक क्षत्रिय, ब्राह्मण या वैश्य होता था.

इसी तरह शिक्षा और योग्यता हासिल करने से पहले ही आश्रम में, मनुस्मृति (2/44) के अनुसार जनेऊ की सामग्री तय हो जाती थी- ‘ब्राह्मण का यग्योपवीत कपास का, क्षत्रिय का सन का और वैश्य का भेड़ के बालों (ऊन) का होना चाहिए.’

शुंगों के समय की प्रारम्भिक मनुस्मृति में लेखक ने ब्राह्मण को खुल्लमखुल्ला श्रेष्ठ कहा और असमानता को पक्का किया –

  1. मनुस्मृति 1/93 ‘अर्थात, उत्तम अंग (मुख) से उत्पन्न होने से, (क्षत्रिय आदि से) पहले उत्पन्न होने से और वेद के धारण करने से ब्राह्मण इस जगत का धर्म से स्वामी होता है.’
  2. मनुस्मृति 1/95 ‘अर्थात, जिसके मुख से देवता हव्य और पितर कव्य खाते हैं, उससे बड़ा कौन प्राणी हो सकता है.’
  3. मनुस्मृति 1/96 ‘अर्थात, जीवों में प्राणधारी, प्राणधारियों में बुद्धिमान, बुद्धिमानों में मनुष्य और मनुष्यों में ब्राह्मण श्रेष्ठ कहे गए हैं.’
  4. मनुस्मृति 1/99 ‘अर्थात (मुख से) उत्पन्न हुआ ब्राह्मण पृथ्वी पर सबसे श्रेष्ठ है, क्योंकि वह सब प्राणियों के धर्म समूह की रक्षा के समर्थ होता है.’
  5. मनुस्मृति 1/100 ‘अर्थात, जो कुछ पृथ्वी पर धन है वह सब ब्राह्मण का है. (ब्रह्मा के मुख से) उत्पन्न होने के कारण श्रेष्ठ होने से यह सब ब्राह्मण के ही योग्य है.’

मनुस्मृतिकार ने ब्राह्मण का महिमागान किया है तथा अद्विजों को निम्न एवं हीन जाति बताया है. सुरेश जायसवाल मनुस्मृति (10/68) के अनुवाद में प्रतिलोम द्वारा उत्पन्न लोगों के बारे में लिखते हैं कि – ‘अर्थात, धर्म मर्यादा के अनुसार ये दोनों ही उपनयन के योग्य नहीं हैं, क्योंकि एक जाति से हीन है तथा दूसरा प्रतिलोम द्वारा जन्मा है.’

पण्डित रामेश्वर दयाल भट्ट ने इसका अर्थ इस तरह किया है- ‘शास्त्र की व्यवस्था के अनुसार (पाराशव व चांडाल) इन दोनों में से कोई भी यज्ञपवीत संस्कार के योग्य नहीं क्योंकि पहला निंदित क्षेत्र में पैदा हुआ और दूसरा प्रतिलोमज है (अर्थात शूद्र से ब्राह्मणी में पैदा होने से संस्कार के योग्य नहीं).’

मनुस्मृतिकार 2/30-32 में लिखता है- ‘अर्थात बालक का नामकरण दसवें या बारहवें दिन अथवा पुण्य तिथि व मुहूर्त में गुणयुक्त नक्षत्र में करावें. ब्राह्मण का नाम मंगलयुक्त, क्षत्रिय का बलयुक्त, वैश्य का धनयुक्त और शूद्र का निंदायुक्त होना चाहिए. ब्राह्मण का शर्मा युक्त, राजा का रक्षा युक्त, वैश्य का पुष्टि युक्त और शूद्र का दास युक्त नाम रखना चाहिए.’

मनुस्मृति 2/38, 2/67, 10/1, 10/4, 10/5, 10/31 से स्पष्ट है कि ब्राह्मण, क्षत्रिय व वैश्य जातियां न केवल जन्म से मिलती हैं, अपितु द्विजों के बालक उपनयन व यग्योपवीत संस्कारों द्वारा पक्के द्विज अर्थात द्विजाति हो जाते हैं.

नारी, अनुलोम-प्रतिलोम से उत्पन्न वर्ण-संकर तथा शूद्र उपनयन अथवा यग्योपवीत के अधिकारी नहीं थे. अनुलोम सम्बन्धों से उत्पन्न तथा शूद्र जनता ‘एकजाति’ रह जाती थी, जबकि प्रतिलोम सम्बन्धों से उत्पन्न को बहिष्कृत कर दिया जाता था. स्पष्ट है कि जाति कर्म पर नहीं बल्कि पिता की जाति पर निर्भर करती रही है.

मनुस्मृति (8/418) में कहा गया है- ‘अर्थात, राजा को चाहिए कि वैश्यों और शूद्रों को अपने-अपने कर्मों में लगाए रहे, क्योंकि यदि ये अपने-अपने कार्यों से भ्रष्ट होंगे तो ये जगत को व्याकुल कर देंगे.’

मनुस्मृति के 10/96 तथा 11/12 श्लोक भी वैश्य की स्थिति को दर्शाते हैं. गीता (18/43) भी न केवल वैश्य का कर्म/धर्म निर्धारित करती है, अपितु उसे पापयोनि घोषित करती है. गीता (9/32) के श्लोक का अर्थ रजनीकांत शास्त्री ने इस प्रकार किया है- ‘हे अर्जुन ! मेरी शरण में आकर स्त्री, वैश्य तथा शूद्र, जिनकी उत्पत्ति पाप से हुई है, परमगति को प्राप्त हो जाते हैं.’

श्लोक संख्या 9/32, 33 का अनुवाद डा. धौम्य ने अपनी पुस्तक ‘सनातन संस्कृति का स्वरूप’ में इस प्रकार किया है- ‘हे पार्थ, मेरी शरण में आकर पापयोनियों में माने जाने वाले नारियां, वैश्य और शूद्र भी परम् गति को प्राप्त होते हैं, फिर पुन्ययोनि वाले ब्राह्मणों और राजर्षि भक्तों का तो कहना ही क्या !’

मनुस्मृति 10/124-125 में लिखा है- ‘ब्राह्मणों को चाहिए कि शूद्र (दास-शूद्र) को परिचारक नियुक्त करते समय उसकी कार्यक्षमता/सामर्थ्य, कार्य में उत्साह, विश्वसनीयता, उसके परिवार, अपने घर की स्थिति तथा कार्य का स्वरूप देखकर उसकी आजीविका नियत कर दे. शूद्र को जूठा अन्न, पुराना वस्त्र, निकृष्ट धान्य और घर की निकृष्ट सामग्री दे देनी चाहिए.’

नोट- मनुस्मृति के सभी अनुवाद पण्डित रामेश्वर भट्ट और सुरेश जायसवाल ने किए हैं.

  • विनोद कुमार

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