बिहार में दशकों से जारी नक्सलबाड़ी की राजनीति ने माओवाद तक का सफर तय किया है. इसका प्रभाव ही रहा है कि बिहार की राजनीतिक तौर पर बेहद जागरूक जनता ने भाजपा-आरएसएस की घिनौनी साम्प्रदायिक राजनीति को ठोकर मारती रही है और उसका वस्तुतः यहां कोई जनाधार नहीं है, वाबजूद इसके भाजपा कई बार राजनीतिक सत्ता पर गठबंधन की सरकार बनाई है.
ऐसे में बिहार में भाजपा को एक ऐसे चेहरे की जरूरत थी, जो संघ की साम्प्रदायिक राजनीति को जनता के बीच लोकप्रिय बना सके. ऐसे में त्रिपुरारी तिवारी ने मनीष कश्यप बनकर इस खाली जगह को भरने की कोशिश की. इस बहसी ठग ने पत्रकारिता का भेष धरकर आज की सबसे विश्वसनीय मीडिया सोशल मीडिया (यू-ट्यूब) पर एक चैनल बनाकर संघ की साम्प्रदायिक राजनीति के लिए आधार बनाने लगा. संघ इसी तरह काम करती है.
अपने शुरुआती दिनों में इसने बेहद छोटे-छोटे मुद्दों को उठाया. मसलन, टुटी सड़कें, गलत स्ट्रीट लाइट, इंजीनियरिंग की छोटी-छोटी गलतियों और इसी तरह के मुद्दों को जोरदार तरीके से उठाकर वह लोगों के बीच अपनी पहचान बनाने में कामयाब हो गया. और इसी आत्मविश्वास से लबरेज यह संघी ऐजेंट आरएसएस के नफरती एजेंडे को लोगों के बीच परोसने लगा. और फर्जी विडियो स्टूडियो में सूट कर लोगों के बीच नफरत फैलाने लगा.
अब जब वह बिहार की गैर-भाजपाई सत्ता के निशाने पर आ गया और सुप्रीम कोर्ट ने भी इसे असामाजिक तत्व घोषित कर दिया, तब उसकी पीड़ा भी जाहिर होने लगी. बतौर मनीष कश्यप की ओर से एक ट्वीट जारी किया गया है (हम उसके ट्वीट की प्रमाणिकता सत्यापित नहीं कर पाये हैं), जिसमें कहा गया है –
‘मनीष कश्यप को अभी कम से कम साल जेल में रहना होगा, ऐसा तमिलनाडु के राज्यपाल ने अधिसूचना जारी किया है. यदि राष्ट्रवाद के विचारधारा पर चलते हैं और देश धर्म की बात करते हैं, तो भक्तों अपनी रक्षा स्वयं करें. नरेंद्र मोदी जी, अमित शाह या भाजपा का कोई भी आपका साथ नहीं देने वाला है, ना कोई आपके काम आएगा.
‘आपके जेब में मोटी रकम है और आपके पीठ पीछे आपके परिवार को कोई संभालने वाला है तो जरूर भगवा ध्वज उठाकर दौड़ते रहिए.’
इस ट्वीट में यह संघी एजेंट साफ तौर पर ‘राष्ट्रवाद’, ‘देश और धर्म’ की आड़ में खुद के बुरे कुकृत्यों को छिपाने का असफल प्रयास करता है. इस भांड को यह तक नहीं मालूम की नक्सलवाद से लेकर माओवाद तक की तेज आंच पर पकी बिहार की जनता सही और गलत का भेद बहुत जल्दी समझ लेती है, यही कारण है कि जनता के बीच लताड़े जा चुके इस मोहरे को बचाना खुद मोदी-शाह जैसे संघी गिरोह के लिए भी असंभव है.
गिरीश मालवीय लिखते हैं – फर्जी वीडियो वायरल कर के हिंसा फैलाने का एक पार्टी का लंबा इतिहास रहा है. अभी जो बिहार में फर्जी वीडियो वायरल किए गये हैं वो किस तरह से बनाए गये, यह पूरी स्टोरी सामने आ चुकी है. बिहार में भी विपक्षी दल की सरकार है और तमिलनाडु में भी यानी एक तीर से दो निशाने लगाए गये हैं. सोशल मीडिया के दौर में इस तरह के हिंसक वीडियो वायरल करना बहुत ही आसान है और ये खेल पूरी दुनिया में चल रहा है.
वाशिंगटन पोस्ट ने अपने एक लेख में खुलासा किया है कि कैसे केन्या में फेसबुक और टिकटोक की मदद से फर्जी वीडियो वायरल कर के वहां होने वाले राष्ट्रपति चुनाव पर प्रभाव डाला जा रहा है. वाशिंगटन पोस्ट बता रहा है कि एक वीडियो क्लिप ने एक डिटर्जेंट विज्ञापन की नकल की, जिसमें एंकर ने दर्शकों को बताया कि ‘डिटर्जेंट’ कंबा, किकुयू, लुह्या और लुओ जनजातियों के सदस्यों सहित ‘मडोडोआ’ को खत्म कर सकता है.
शाब्दिक रूप से व्याख्या की गई, ‘मडोडोआ’ एक अहानिकर शब्द है जिसका अर्थ धब्बा या धब्बा है, लेकिन यह एक कोडित जातीय गाली और हिंसा का आह्वान भी हो सकता है. वीडियो में पिछले वर्षों के चुनाव के बाद की झड़पों की ग्राफिक छवियां थी.
कुछ साल पहले क्रिस्टोफर वायली जो डेटा साइंटिस्ट थे. उन्होंने केम्ब्रिज एनलिटिका जैसी कम्पनियों की मोडस ऑपरेंडी को लेकर भी एक खुलासा किया था, जिसमें उन्होंने बताया था कि ‘नाईजीरिया में चुनाव के समय कनाडा की कंपनी एग्रेगेट आईक्यू ने लोगों भयभीत करने के लिए हिंसक वीडियो वायरल किए थे.’
भारत में भी यही सब तो हो रहा है. 2013 का मुजफ्फरनगर दंगा याद है आपको ? संगीत सोम जो एक भाजपा विधायक थे, वे मुजफ्फरनगर जिले में भीड़ को उकसाने वाला एक फर्जी वीडियो क्लिप अपलोड करने वाले नेताओं में से एक थे. पुलिस ने उस वीडियो को झूठा करार दिया. उसमें भीड़ द्वारा दो लड़कों को पीट-पीट कर मार डाले जाने का दृश्य दिखाया गया है.
बाद में यह खुलासा हुआ कि वीडियो स्पष्ट रूप से अफगानिस्तान या पाकिस्तान में शूट किया गया था, लेकिन वहां एक बड़े वर्ग का मानना था कि वीडियो की घटनाएं वास्तव में मुजफ्फरनगर के एक गांव में हुई थीं, जिसके कारण बाद में घातक दंगे हुए जिसमें 48 लोग मारे गए.
2020 में हुए उत्तर-पूर्व दिल्ली में हुए दंगे में भी ऐसी ही कहानी दोहराई गयी. 25 फरवरी 2020 को, उत्तर-पूर्वी दिल्ली में पहले दंगे के एक दिन बाद, सोशल मीडिया पर एक वीडियो वायरल होने लगा. प्रसारित करने वालों में से एक अविरल शर्मा द्वारा अपने ट्विटर हैंडल @sharmaAvi के माध्यम से किया गया था.
उन्होंने दावा किया कि मुस्लिम समुदाय के लोग पूर्वोत्तर दिल्ली के मौजपुर इलाके में एक बस चालक पर हमला कर रहे थे, जहां उनके रिश्तेदार रहते थे और वे हिंसा के डर से रह रहे थे. संलग्न वीडियो में टोपी पहने एक व्यक्ति को खाकी वर्दी में एक बस चालक पर डंडे से हमला करते हुए दिखाया गया है. वीडियो को जल्दी ही एक लाख से अधिक बार देखा गया.
तथ्य की जांच से पता चला, यह घटना 18 फरवरी को महाराष्ट्र के औरंगाबाद जिले के कन्नड़ में हुई, जिसमें एक बस ने एक कार को टक्कर मार दी, जिसके परिणामस्वरूप उसमें सवार लोगों ने बाहर आकर चालक की पिटाई कर दी. यह किसी सांप्रदायिक उकसावे के बजाय रोड रेज का मामला था.
दिल्ली पुलिस की ओर से दायर चार्जशीट में कहा गया है कि दंगों के दौरान वॉट्सऐप ग्रुप्स में कई तरह के भड़काऊ मैसेज चले, जिनसे हिंसा और भड़की उठी.
यही नहीं दक्षिणपंथी अफवाहतंत्र का हिस्सा बन चुकी ‘ऑप इंडिया’ नाम की एक वेबसाइट ने एक रिपोर्ट प्रकशित की, जिसमें दावा किया गया कि दंगों के दौरान मुस्लिम समुदाय ने एक मंदिर पर कब्जा कर उसे नुकसान पहुंचाया है. इस लेख का शीर्षक था- ‘ग्राउंड रिपोर्ट: मुस्लिम भीड़ ने शिव मंदिर पर किया था कब्जा, छत से हिन्दुओं पर हो रही थी पत्थरबाजी.’
रवि अग्रहरि के द्वारा लिखे गए इस तथाकथित ग्राउंड रिपोर्ट में कई तरह के दावे किए गए ये दावे बेहद भड़काऊ और उकसावे से भरे थे लेकिन जब ग्राउंड पर जाकर पूछताछ की गयी तो पाया गया कि मामला वैसा नहीं था जैसा रिपोर्ट में लिखा गया.
ये तो कुछ ही उदाहरण हैं. ऐसे सैकड़ों उदाहरण दिये जा सकते हैं. इन सबसे साफ हो जाता है कि कौन सा दल है, जो सत्ता के लालच में ऐसे फर्जी वीडियो वायरल कराने के लिए हमेशा तत्पर रहता है !
गिरीश मालवीय की टिप्पणी यहां समाप्त हो जाती है. और उनकी टिप्पणी कितनी सही थी, इसका पता इस बात से चलता है कि मनीष कश्यप पर सुप्रीम कोर्ट का आदेश लगभग यही है. बहरहाल, फिलहाल यह संघी भांड जेल में हैं और देश में खासकर बिहार की राजनीति में पिटा यह संघी मोहरा दूसरे भांडों के लिए एक सबक है.
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