मणिपुर में ये पोस्टर लगे हुए हैं. क्या जबरदस्त डरपोक आदमी है और इससे लोग आशा करते हैं ये अढ़ाई मोर्चों पर देश को फतह दिलाएगा ? जो मणिपुर नाम का शब्द ज़बान पर नहीं ला रहा जबकि देश के एक हिस्से में डेढ़ महीने से हिंसा चल रही, इंटरनेट बंद है, तीन हज़ार पुलिस और अर्धसैनिक बलों के हथियार लूट लिए गए हैं, आर्मी ग्रेड के हथियारों का लूटा जाना एक बहुत बड़ी घटना थी, ये आदमी आश्चर्यजनक तरीके से मौन है और विपक्ष इसलिए मौन है कि देश की सुरक्षा का मामला है, आतंरिक सुरक्षा का मामला है. पर मौन रहकर समस्याएं सुलझाई जा सकती हैं क्या ? कायरता का ऐसा भयानक प्रदर्शन मुझे तो नहीं लगता किसी भी देश की सरकार कर सकती है और जनता फिर भी उसे माफ़ कर दे ?
जब रोम जल रहा था तब नीरो बंशी बजा रहा था, आज जब देश जल रहा है तब नरेन्द्र मोदी गिटार बजा रहा है.
इतना ही नहीं, एक ओर जहां मणिपुर की हिंसा में सैकड़ों लोग मारे जा चुके हैं, वहीं भाजपा बिल्कुल नीचतापूर्ण शांति के साथ आगामी राज्य चुनाव और लोकसभा चुनाव की तैयारियों में जुटा हुआ है. खबर के अनुसार आगामी पांच राज्यों में इस साल होने वाले विधानसभा चुनाव में भाजपा ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की 39 रैली और 6 रोड शो कराने का योजना बनाया है. इस चुनावी रैली से पहले मोदी पांचों राज्यों में दो से तीन कार्यक्रमों में हिस्सा लेंगे और आम सभा करेंगे. मध्य प्रदेश में 44, राजस्थान में 9, छत्तीसगढ़ में 7, तेलंगाना में 4 और मणिपुर में 2 चुनावी रैली का प्रस्ताव है. इसके अलावा मध्य प्रदेश में 2 के अलावा अन्य चार राज्यों में एक-एक रोड शो हो सकता है. ऐसी नीचतापूर्ण और घृणास्पद मिसाल नरेन्द्र मोदी के अलावा और कौन हो सकता है !
मणिपुर के ताजा हिंसा में 9 लोग और मर गए. कर्फ्यू दोबारा लग गया है. अभी तक 60 हजार लोग दर–बदर हैं. लोग फिलहाल देश के प्रधानमंत्री को ढूंढ रहे हैं. मणिपुर में कई जगहों पर पीएम के पोस्टर चिपके हैं. लिखा है–अंध, मूक. मोदी फोटोग्राफरों के साथ ड्रेस बदलकर फोटू खिंचवाते हैं. वे दंगों के साए में मणिपुर नहीं जायेंगे. उन्हें ओडिशा का सबक याद होगा. वे अमेरिका जायेंगे, मणिपुर नहीं.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अगले हफ्ते अमरीका जाने वाले हैं मगर इस हफ्ते मणिपुर में उनके विदेश राज्य मंत्री आर. के. रंजन सिंह का घर जला दिया गया है. क्या यह अच्छा लगेगा कि देश का एक राज्य एक महीने से जल रहा है और अमरीका में गोदी मीडिया इस दौरे को लेकर ‘ग्लोबल लीडर’ का तमाशा करेगा. केंद्रीय मंत्री का घर जल रहा है, फिर मणिपुर के पहाड़ी इलाकों और गांवों में क्या हाल होगा !
खबरों को और तस्वीरों को इतना कंट्रोल करने के बाद भी जो खबरें आ रही हैं, वही काफ़ी है बताने के लिए कि बाहरी भीतरी की राजनीति ने, बहुसंख्यवाद की राजनीति ने एक राज्य को हिंसा के हवाले कर दिया है. प्रधानमंत्री मोदी की पूर्वोत्तर नीति दांव पर हैं. डेढ़ महीने से उनसे अपील हो रही है कि आप शांति की अपील करें लेकिन लगता है कि शांति की अपील का कॉपीराइटर मिला नहीं है.
मणिपुर में हिंसा फासिस्ट प्रयोग की अगली कड़ी है
राम कवीन्द्र सिंह लिखते हैं – मणिपुर में चालीस दिनों से जारी हिंसा थमने का नाम नहीं ले रही है. हिंसा भड़कने के लगभग एक माह के मौन के बाद अपने दौरे में गृहमंत्री ने कुछ राजनीतिक और प्रशासनिक घोषणाएं तो की, लेकिन वे मैतेई-कुकी संघर्ष को रोकने में प्रभावी साबित नहीं हो पा रही हैं.
दरअसल, वहां की एन बिरेन सिंह की भाजपा सरकार अपनी साख पूरी तरह खो चुकी है. कुकी आबादी को लगता है कि मुख्यमंत्री मैतेई समुदाय के पक्ष से कुकियों पर हमला करवा रहे हैं, वहीं मैतेई समुदाय उन्हें कमजोर और नकारा समझ खारिज करता है.
केंद्र सरकार पर दोनों को भरोसा है, लेकिन प्रधानमंत्री की चुप्पी और गृहमंत्री की असरहीन घोषणा ने इस विश्वास को डिगा दिया है. पिछले 13 जून की रात में मैतेई समुदाय के नौ लोगों की हत्या और दस के घायल होने की खबर से यह आशंका पैदा होने लगी थी कि वहां की सरकार की विफलता से उत्पन्न निराशा के फलस्वरूप कुकी आतंकवाद सर उठाने लगा है.
लेकिन आज (15 जून) के अंग्रेजी अखबार ‘दी हिन्दू’ में प्रकाशित खबर ने सचाई उजागर कर दी है. इस घटना में मारे गये लोग हरवे-हथियार से लैस मैतेई समुदाय के उस विशाल ‘भीड़’ (लगभग 3000) का हिस्सा थे, जिसे कुकी बस्ती पर सुनियोजित हमला के लिए जुटाया गया था. उनकी हत्या कुकी गांवों की रक्षा के लिए गठित सुरक्षा दस्ता की गोलियों से हुई है.
पिछले तीन दिनों से यह भीड़ कुकी बस्तियों पर हमला कर उत्पात मचा रही थी. यहां तक कि इस भीड़ ने सुरक्षा बलों के आने के रास्ते बंद कर दिये थे और मोबाइल टावर भी उड़ा दिये थे. शांति स्थापना के लिए उस इलाके में स्थापित गोरखा रेजिमेंट पर यह भीड़ भारी पड़ गयी थी. अखबार ने सूत्रों के हवाले से बताया कि गोरखा रेजमेंट इसलिए गोली नहीं चला सकी कि बहुत सारे लोग मारे जाते.
हम यह नहीं भूल सकते कि मणिपुर में मैतेई समुदाय बहुसंख्यक (53%) है और राजनीति व प्रशासन पर हावी है. दूसरी तरफ कुकी अल्पसंख्यक (लगभग 20%) हैं और पहाड़ और जंगल में बसे हैं. उनके आजीविका के स्रोतों पर लगातार हमला हो रहा है. एक तरफ वन संरक्षण के नाम पर सरकार उनके अधिकार छीन रही है और दूसरी तरफ बहुसंख्यक और राज्य मशीनरी पर हावी मैतेई समुदाय की नजर भी उनकी जमीन और अन्य संसाधनों पर है. जनजातीय समूह के स्टेटस की मांग के पीछे ये इरादे काम कर रहे हैं.
हाई कोर्ट के हाल के फैसले ने पहले से ही जड़ जमाये असंतोष और अविश्वास को हवा दे दी. मैतेई समुदाय की सशस्त्र भीड़ और पुलिस की मिलीभगत ने कोढ़ में खाज पैदा कर दी है. राज्य के मुख्यमंत्री और देश के गृहमंत्री की विफलता ठीक इसी मिलीभगत को बढ़ाने या नहीं रोक पाने की घटना से उजागर हुई है.
हिंदी-हिन्दू क्षेत्र में भीड़ द्वारा अल्पसंख्यकों पर सुनियोजित ‘भीड़’ के हमले, बुलडोजर राज तथा राजकीय आतंकी साजिश को देख और भोग चुकी जनता के लिए मणिपुर के इस प्रयोग को समझ पाना मुश्किल नहीं होगा, बशर्ते कि वे समझना चाहें.
मणिपुर की घटना पूरे देश के स्तर पर संघ परिवार की ओर से सरकारी और गैर सरकारी दमन की मशीनरियों के संयुक्त प्रयोग की अगली कड़ी है. फासिज्म थोपने के प्रयास का अगला प्रयोग है. जम्मू और कश्मीर में यह प्रयोग हो चुका है. इसलिए शेष भारत के जनतांत्रिक लोगों का दायित्व है कि वे इस लड़ाई में कुकी समुदाय की न्यायपूर्ण मांगों का समर्थन करें और मामले के शांतिपूर्ण समाधान के लिए जनमत का निर्माण करें.
कल जम्मू और कश्मीर, आज मणिपुर और कल पूरे भारत रौंदे जाने की बारी होगी. समझें, सम्भलें और एकजुट हो संघर्ष करें.
श्याम सिंह रावत लिखते हैं – मणिपुर में हालात बेहद खराब हो चले हैं. हिंसा का दौर खत्म नहीं होता. समझ नहीं आता कि गृहमंत्री वहां की आग बुझाने गये थे या फिर जलती आग में केरोसिन छिड़कने. ताजा हिंसक घटनाओं में 9 लोग और मारे गए हैं. कर्फ्यू दोबारा लगाया गया है. अभी तक 60 हजार लोग दर-बदर हैं.
प्रधान जी को चुनावी रैलियों में गप्पें हांकने और फोटो शूट करवाने से फुर्सत नहीं है. मणिपुर में दु:खी लोग उनको ढूंढ रहे हैं, उन्होंने कई जगहों पर उनकी गुमशुदगी के पोस्टर चिपका दिये हैं, जिनमें उनकी पहचान अंधा, गूंगा और 56 इंच छाती लिखी गई है.
पुतिन और जेलंस्की से बात कर युद्ध रुकवा देने की गप्प का हीरो अपने ही देश में आग से झुलसते राज्य की जनता की सुध नहीं लेता, यह कितना बड़ा दुर्भाग्य है. सिरीमान जी अमेरिका जाकर किराये की भीड़ और दुनिया भर से ढोकर लाये गये अंधभक्तों से हाउडी मोदी का शोर सुनकर आह्लादित होंगे मगर मणिपुर की रोती-बिलखती जनता का दुखड़ा नहीं सुनेंगे.
फिलहाल जातीय हिंसा की आग में झुलस रहे मणिपुर के लिए पड़ोसी राज्य असम के मुख्यमंत्री हिमंत बिस्वा सरमा एक विचित्र शांति प्रस्ताव लेकर सामने आये हैं कि मैदानों में मेतेई और पहाड़ों में कुकी आदिवासियों के बीच एक बफर जोन बनाया जाये. यानी राज्य को दो हिस्सों में बांटकर बीच में सेना तैनात रहेगी. सम्भवतः टुकड़े-टुकड़े गैंग के सरगना ने ही यह विभाजनकारी मंत्र विवादास्पद बयानवीर के कानों में फूंका हो.
इधर पश्चिमी सीमा पर लद्दाख में भी 1000 वर्ग किमी क्षेत्र ऐसे ही बांटकर चीन को दे दिया गया है, जिसे दलाल गोदी मीडिया मास्टरस्ट्रोक बताता रहा. भक्तों को आनंदित करते दुमदार चैनलों को मणिपुर से अधिक हिंसा बंगाल में दिखाई दे रही है. लानत है !
मणिपुर में क्यों नहीं दिख रहा मोदी मैजिक ?
‘देशबंधु’ अपने संपादकीय में लिखता है – मणिपुर में एक महीने से अधिक वक्त से अशांति और हिंसक तनाव का माहौल बना हुआ है. कहने को सुरक्षा बलों ने कानून व्यवस्था बनाए रखने की कमान संभाली हुई है और केंद्र सरकार भी हालात पर नजर रख रही है. लेकिन ये किस तरह की निगरानी है कि हिंसा की घटनाओं पर काबू ही नहीं पाया जा रहा ? गृहमंत्री अमित शाह तीन दिन तक राज्य में रहकर आ गए, सभी समुदायों से मुलाकात की, अधिकारियों-नेताओं के साथ बैठकें कीं, लेकिन इसका कोई नतीजा निकलता नहीं दिख रहा.
मणिपुर में उच्च पदों पर बैठे लोग भी खुद को मणिपुरी या भारतीय समझने से पहले कुकी या मैतेई के तौर पर देख रहे हैं. इसका नतीजा ये है कि आपस में अविश्वास और संदेह की खाई गहराई हुई है. कुकी समुदाय के भाजपा विधायकों का भरोसा अपने ही मुख्यमंत्री पर नहीं दिख रहा. मुख्यमंत्री वीरेन सिंह अपनी निष्पक्षता जाहिर करने में असफल साबित हुए हैं. पुलिस प्रशासन में कुकी और मैतेई समुदायों के बीच विश्वास की कमी देखी जा रही है और स्थिति ऐसी है कि मणिपुर पुलिस के महानिदेशक पद पर त्रिपुरा कैडर के अधिकारी को नियुक्त किया गया है.
नफ़रत और हिंसा वो बुरी शक्तियां हैं, जो किसी पर वार करने के लिए सात-आठ घर छोड़ने पर यकीन नहीं करतीं. वो अपनी चपेट में हरेक को ले लेती हैं, अपने जन्मदाता को भी. भाजपा ने अगर सांप्रदायिक, जातीय ध्रुवीकरण के सहारे कुछ सालों में कुछ चुनाव जीत लिए तो इसका ये कतई मतलब नहीं है कि ये बुराइयां उसके लिए फायदेमंद साबित होंगी और बाकियों के लिए घातक. इनका नुकसान उसे भी कभी न कभी उठाना ही पड़ेगा। फिलहाल मणिपुर इसका ज्वलंत उदाहरण है.
मणिपुर में जब हिंसा की चिंगारी सुलगना शुरु हुई थी, तब भाजपा और केंद्र सरकार दोनों कर्नाटक चुनाव में व्यस्त थे. नतीजा ये हुआ कि हालात हाथ से निकल गए. चुनावों से फ़ुर्सत पाकर ही अमित शाह ने मणिपुर की सुध ली और माननीय प्रधानमंत्री तो अब भी इससे दूरी बनाए दिख रहे हैं. जातीय संघर्ष का मुद्दा ऐसा नाजुक है कि जरा सी चूक से राजनैतिक नुकसान हो सकता है, शायद इसलिए श्री मोदी कुछ कर ही नहीं रहे हैं.
भाजपा सरकार में यूं भी हर समस्या का सबसे आसान इलाज इंटरनेट बंद कर देना है, तो मणिपुर में भी यही किया जा रहा है. 10 जून तक इंटरनेट बंद करने का आदेश दिया जा चुका है. इस पर 6 जून को एक जनहित याचिका भी सुप्रीम कोर्ट में लगाई गई है, जिसमें कहा गया है कि 24 दिनों से लगातार पूर्ण रूप से इंटरनेट शटडाउन का असर अर्थव्यवस्था, मानवीय और सामाजिक आवश्यकता तथा नागरिकों और याचिकाकर्ताओं एवं उनके परिजनों की मानसिक अवस्था पर भी पड़ रहा है.
गौरतलब है कि इंटरनेट बंद होने से रोजमर्रा के काम, बच्चों की पढ़ाई, बैंकों का काम, कारोबार सभी में अड़चनें आ रही हैं. लगातार कर्फ्यू के साए में जी रहे नागरिकों के लिए यह दोहरी मार है लेकिन केंद्र और राज्य सरकार कोई ऐसा कदम नहीं उठा पा रहे हैं, जिससे जनजीवन सामान्य हो.
राज्य में इस वक्त सेना और असम राइफल्स के करीब 10 हजार जवान तैनात हैं. हिंसा को काबू में लाने के लिए सेना तलाशी अभियान चला रही है. लोगों के पास से हथियार और गोला-बारूद बरामद किए जा रहे हैं. अब तक कुल 868 हथियार और 11,518 गोला-बारूद बरामद किये जा चुके हैं. मणिपुर में हथियार बनाने का कोई कारखाना तो है नहीं, जो लोगों के पास इतनी बड़ी मात्रा में हथियार आ जाएं !
जाहिर है हिंसा को जारी रखने के लिए कहीं न कहीं से हथियारों की आपूर्ति की जा रही है और इसका तंत्र एक दिन या एक महीने में बनना संभव नहीं है. हालात बता रहे हैं कि इस तरह की हिंसा को भड़काने की तैयारी काफी पहले से की जा रही होगी, बस मौका मिलने की देर थी. मैतेई समुदाय को अनुसूचित जनजाति वर्ग में शामिल करने की मांग ने यह मौका दे दिया.
सवाल ये है कि केंद्र सरकार मणिपुर में स्थिति की गंभीरता का आकलन पहले क्यों नहीं कर पाई ? म्यांमार की सीमा से लगे मणिपुर में उग्रवाद की समस्या पहले से है, फिर क्यों खुफिया एजेंसियों ने इस बात की सतर्कता नहीं बरती कि स्थानीय लोगों तक हथियार न पहुंचे ? जब सीमांत प्रदेश सुरक्षित नहीं हैं, तब किस तरह केंद्र सरकार सुरक्षित और मजबूत प्रशासन का दावा कर सकती है ?
मणिपुर पूर्वोत्तर राज्य है, लेकिन यह भारत का ही अभिन्न हिस्सा है, इस बात को देश के अन्य राज्यों के लोगों को भी याद रखना होगा. घर का एक हिस्सा जख्मी होता रहे तो बाकियों तक भी उसका दर्द किसी न किसी रूप में पहुंचेगा ही. मणिपुर में इस वक्त जातीय अस्मिता के उन्माद में मानवता को तार-तार किया जा रहा है. कुछ दिनों पहले असम राइफल्स के शिविर पर हथियारबंद लोगों ने हमला किया और वहां घायल एक बच्चे को जब उसकी मां के साथ एंबुलेंस में ले जाया जा रहा था, तो उग्र भीड़ ने एंबुलेंस को घेर कर उसमें आग लगा दी.
युद्ध में सब कुछ जायज होने की बात प्रचलित होने के बावजूद घायलों, बीमारों पर वार न करने की नैतिकता का पालन होता है. यहां तो उस नैतिकता को भी तार-तार कर दिया गया. एंबुलेंस में आग लगाकर तीन निर्दोष जानें ले ली गईं. यह वहशीपन हर हाल में रुके इसके लिए तत्काल कदम उठाने की जरूरत है. प्रधानमंत्री मोदी जब भाजपा के लिए वोट मांगने मणिपुर जा सकते हैं, तो शांति की अपील लिए जाने में क्या हर्ज है ? अगर वाकई मोदी मैजिक नाम की कोई चीज है, तो उसका इस्तेमाल मणिपुर में क्यों नहीं किया जा रहा ?
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