मंदिर
इस मंदिर में अब
कोई मोनालिसा नहीं रहती
बेघर हुए लोग
सांध्य बाती के लिए
ढूंंढ लेते हैं
सड़क का एक कोना
उसी काली जीभ पर ओष्ठागत प्राण
हांंफते हुए समय-सा
हरिनाम की प्रतीक्षा में
वे लोग जो घर नहीं लौटे कभी
जिनके इंतज़ार में
ज़मींदोज़ हो गए उनके गाँव शहर
वे, दुबारा गढ़ने में लगे हैं
नए नए ईश्वर
मौसम की फटी टाट पर
सपनों का रेशमी पैबंद है
और, हाथों मैं हैं
ध्वजभंग इतिहास
मैं उन औरतों को ढूंंढता हूंं
जो नहीं लौटीं जंगल से
जबकि जंगल
ठीक उनके घरों के पिछवाड़े था
मंदिर की मोनालिसा
मोम की गुड़िया थी
मेरे दीपक जलाने पर पिघल गई होगी
आंंखें खुलने पर
शून्य रहता है सामने
- सुब्रतो चटर्जी
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