रविश कुमार, मैग्सेसे अवार्ड विजेता अन्तर्राष्ट्रीय पत्रकार
बिहार में मंडी ख़त्म हुई तो बिहार के किसान बर्बाद हो गए. बेशक भाजपा इस बात पर गर्व कर सकती है कि बिहार का किसान उसे ही वोट करता है लेकिन वह यह साबित नहीं कर सकती है कि 2006 में बिहार में मंडी समाप्त कर बिहार का किसान अमीर हो गया.
बिहार के किसानों को गेहूं और धान का दाम नहीं मिलता है. मक्का और दाल का भी नहीं मिलता है. अगर वहां मंडी होती तो कुछ प्रतिशत ही सही किसानों को MSP तो मिलती. लेकिन मंडी समाप्त करने के बाद MSP की हर संभावना समाप्त हो गई. किसान को अपने दरवाज़े पर ही कम दाम में धान गेहूं बेचने के लिए मजबूर होना पड़ा.
उन्हें पता ही नहीं चला कि मंडी ख़त्म कर कैसे उन्हें ग़रीब बनाने का रास्ता खोल दिया गया ताकि वे खेती छोड़ कर दूसरे शहरों की तरफ़ पलायन करें और सस्ते दर में मज़दूरी के लिए उपलब्ध हो सकें.
बिहार की ज़मीन उर्वर है. सिंचाई की भी ख़ास समस्या नहीं है. इसके बाद भी 2006 से लेकर अब तक इस कृषि प्रधान राज्य में निजी निवेश नहीं आया. आधा-अधूरा उदाहरण देकर बिहार के किसानों को समृद्ध बताने की कोशिश हो रही है. बिहार के किसानों का पंद्रह साल में कितना नुक़सान हुआ है अगर हिसाब निकाला जाए तो उसकी ग़रीबी का कारण पता चल जाएगा.
ये नहीं जानता है कि मंडी ख़त्म कर बर्बाद होने के बाद बीजेपी को वोट क्यों करता है, हो सकता है उसके लिए दूसरे कारण भी हों लेकिन यह कहना कि मंडी ख़त्म होने से बिहार का किसान अमीर हुआ, यह ऐतिहासिक झूठ है. मंडी ख़त्म होने से वह उन व्यापारियों के हाथ में लुट रहा है जो सस्ते अनाज ख़रीद कर बड़े व्यापारियों को देते हैं. वही देश भर में होगा तो क्या होगा ?
संयुक्त किसान मोर्चा के नेता पटना गए थे कि बिहार के किसान भी आगे आएं और MSP की मांंग करें. मंडियों के ख़त्म होने से बिहार में किसान संगठन भी ख़त्म हो गए. इसे जानने की ज़रूरत है कि पंजाब से 32 किसान संगठन आंदोलन में हिस्सा ले रहे हैं.
पंजाब में इतने संगठन क्यों हैं और प्रभावशाली क्यों हैं ? क्योंकि मंडी से ज़्यादा से ज़्यादा लाभ उठाने के लिए वे नियमित रूप से संघर्ष और दबाव की राजनीति करते हैं. बिहार में मंडी ख़त्म हुई तो किसानों के मोलभाव की शक्ति चली गई.
बिहार के कृषि मंत्री अमरेन्द्र प्रताप सिंह भले आंदोलन पर बैठे किसानों को दलाल कह रहे हैं लेकिन मंडी ख़त्म कर बिहार के किसानों को दलालों के हाथ में शोषित होने का काम उनकी सरकार ने किया है. किसानों के खाते में हर साल छह हज़ार भेज कर वोट लेने का दंभ इतना बढ गया है कि मंत्री जी को आंदोलन वाले किसान दलाल नज़र आते हैं.
प्राइवेट कंपनियों के प्रति इतनी निष्ठा हो गई है कि जिस किसान का ज़ुबानी जयकार करते थे, उसी को दलाल कह रहे हैं. गाली दे रहे हैं. यह भी ठीक है कि गाली सुन कर भी बिहार के किसान बीजेपी को वोट देते हैं और आगे भी देंगे. लेकिन यह भी सही है कि बिहार के किसान कंगाल हो गए हैं.
Read Also –
[प्रतिभा एक डायरी स्वतंत्र ब्लाॅग है. इसे नियमित पढ़ने के लिए सब्सक्राईब करें. प्रकाशित ब्लाॅग पर आपकी प्रतिक्रिया अपेक्षित है. प्रतिभा एक डायरी से जुड़े अन्य अपडेट लगातार हासिल करने के लिए हमें फेसबुक और गूगल प्लस पर ज्वॉइन करें, ट्विटर हैण्डल पर फॉलो करे…]