आदमी
बुन लेता है सपने
बना लेता है घरौंदा
तोड़ देता है कई दिवारें
बनाते हुए अपने इर्द-गिर्द
कई दिवारें
प्यार करता है
धोखा खाता है
फिर से प्यार करता है
और अंत तक
ज़िंदा रहने की जुगत में रहता है
चाहे इसके लिए
उसे अपने पिछले प्रेम में
जफ़ा ही क्यों न ढूंढना पड़े
आदमी झूठ के सहारे ही जीता है
नीली नदी में देह बहा देने तक
नीली ओढ़नी डाले वह लड़की
जब जब अपनी आंखें उठा कर
नीले आसमान की तरफ़ देखती
मुझे उसकी आंखें नीली लगीं
इस मुर्दों के शहर के
व्यस्त तम सड़कों पर उतर आती थी
एक नीली, शांत नदी
उसमें बहते हुए
मैंने कभी नहीं सोचा था कि
एक दिन
मैं उस नदी के पथरीले किनारों की शिकायत
अपनी कविता में करूंगा
जिन्हें मैं अक्सर मन ही मन लिख कर
फाड़ कर उछाल देता हूं
नीलम रातों में चांद की तरफ़
तुम्हें भुला कर आगे बढ़ने का
और कोई रास्ता मुझे सूझा ही नहीं
यद्यपि, ऐसा करने पर
उस आदमकद आईने में मेरा कद
बिल्कुल एक चींटी की तरह सरकता है
- सुब्रतो चटर्जी
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