Home कविताएं मलखान सिंह और उनकी कविताएं

मलखान सिंह और उनकी कविताएं

12 second read
0
0
1,024
मलखान सिंह और उनकी कविताएं
मलखान सिंह और उनकी कविताएं

इधर मुकाबले में पहले के ब्राह्मण से आज का ब्राह्मण भिन्न हुआ है. स्वीकार-अस्वीकार के नजरिए में बदलाव भी दिखे हैं किन्तु हम जिस समाज में रह रहे हैं वह ब्राह्मणवादी श्रेष्ठता बोध के नुकीले पंजों से मुक्त नहीं है. मुक्त नहीं है उस जड़ता से जो ब्राह्मणों की जागीर रहा. ब्राह्मणवाद वस्तुत: एक मानसिक विकृति की तरह रचा-बसा है हमारे जीवन में. ऊंच-नीच, छोटा-बड़ा सब, कुछ-कुछ जाति से उतरकर समाज के विभिन्न हिस्सों में प्रचुर मात्रा फ़ैल गया है और इसी तनातनी में प्रत्येक दिन एक नव ब्राम्हणवाद जन्म लेने लगा है, पुनः पुनः जाति के श्रेष्ठता बोध में ही गौरव बोध से भरकर.

यह ख़तरनाक खेला कब तक चलता रहेगा, कह पाना मुश्किल है. घृणा, हिंसा का बीज बोती राजनीति भी इसमें बड़ी भागीदार है. कहना तो यह है कि यही बड़ी जिम्मेदार है. जाति मुक्त समाज की अवधारणा अनेक समाज विज्ञानी चिंतकों में पेरियार, फादर कामिल बुल्के, अंबेडकर के भी हैं और इस दिशा में अंबेडकर की संविधान सभा ने भी अनेक प्रावधानों के साथ दलित, शोषित, उपेक्षित समाज के लिए आरक्षण के मार्फत एक बड़े बदलावों की आधारशिला रखी.

नतीजा साफ़ हुआ, बदलाव दिखा किन्तु फिर-फिर विभिन्न स्तरों में यह ब्राह्मणवाद अब भी काबिज़ है. जाति के छद्म और श्रेष्ठता बोध से खिन्न हो यदि किसी कवि ने अपने दम पर हिन्दी की मुख्यधारा को बहुत अधिक प्रभावित किया है तो मलखान सिंह एक बड़ा नाम है. उनकी बहुचर्चित कविता को इसलिए लगा रहा हूं कि देश की रगो में यह ब्राह्मणवाद किस तरह से टहलते रहा और टहल भी रहा है; जिसका मलखान सिंह के कवि हृदय ने कैसे प्रतिकार किया ? कहा ? अभिव्यक्ति दी ? जानें.

एक

हमारी दासता का सफ़र
तुम्हारे जन्म से शुरू होता है
और इसका अंत भी
तुम्हारे अंत के साथ होगा.

दो

सुनो ब्राह्मण
हमारे पसीने से
बू आती है तुम्हें

फिर ऐसा करो
एक दिन
अपनी जनानी को
हमारी जनानी के साथ
मैला कमाने भेजो.

तुम ! मेरे साथ आओ
चमड़ा पकाएंगे
दोनों मिल बैठ कर.

मेरे बेटे के साथ
अपने बेटे को भेजो
दिहाड़ी की खोज में.

और अपनी बिटिया को
हमारी बिटिया के साथ
भेजो कटाई करने
मुखिया के खेत में.

शाम को थक कर
पसर जाओ धरती पर
सूंघो ख़ुद को
बेटे को
बेटी को
तभी जान पाओगे तुम
जीवन की गंध को,
बलवती होती है जो
देह की गंध से.

तीन

हम जानते हैं
हमारा सब कुछ
भौंड़ा लगता है तुम्हें.

हमारी बग़ल में खड़ा होने पर
क़द घटा है तुम्हारा
और बराबर खड़ा देख
भवें तन जाती हैं.

सुनो भूदेव
तुम्हारा क़द
उसी दिन घट गया था
जिस दिन कि तुमने
न्याय के नाम पर
जीवन को चौखटों में कस
कसाई बाड़ा बना दिया था
और ख़ुद को शीर्ष पर
स्थापित करने हेतु
ताले ठुकवा दिए थे
चौमंज़िला जीने से.
वहीं बीच आंगन में
स्वर्ग के—नरक के
ऊंच के—नीच के
छूत के—अछूत के
भूत के भभूत के
मंत्र के तंत्र के
बेपेंदी के ब्रह्म के
कुतिया, आत्मा, प्रारब्ध
और गुण-धर्म के
सियासी प्रपंच गढ़
रेवड़ बना दिया था
पूरे के पूरे देश को.

तुम अक्सर कहते हो कि
आत्मा कुआं है
जुड़ी है जो मूल-सी
फिर निश्चय ही हमारी घृणा
चुभती होगी तुम्हें
पके हुए शूल-सी.

यदि नहीं—
तुम सुनो वशिष्ठ !
द्रोणाचार्य तुम भी सुनो !
हम तुमसे घृणा करते हैं.
तुम्हारे अतीत
तुम्हारी आस्थाओं पर थूकते हैं.

मत भूलो कि अब
मेहनतकश कंधे
तुम्हारा बोझ ढोने को
तैयार नहीं हैं
बिल्कुल तैयार नहीं हैं.

देखो !
बंद क़िले से बाहर
झांक कर तो देखो
बरफ़ पिघल रही है.
बछेड़े मार रहे हैं फ़ुर्री
बैल धूप चबा रहे हैं
और एकलव्य
पुराने जंग लगे तीरों को
आग में तपा रहा है

मैं आदमी नहीं हूं – एक

मैं आदमी नहीं हूऔ स्साब
जानवर हूं
दोपाया जानवर
जिसे बात-बात पर
मनुपुत्र—मां चो—बहन चो—
कमीन क़ौम कहता है.

पूरा दिन—
बैल की तरह जोतता है
मुट्ठी भर सत्तू
मजूरी में देता है.

मुंह खोलने पर
लाल-पीली आंखें दिखा
मुहावरे गढ़ता है
कि चींटी जब मरने को होती है
पंख उग आते हैं उसके
कि मरने के लिए ही सिरकटा
गांव के सिमाने घुस
हु…आ…हु…आ…करता है

कि गांव का सरपंच
इलाक़े का दरोग़ा
मेरे मौसेरे भाई हैं
कि दीवाने-आम और
ख़ास का हर रास्ता
मेरी चौखट से गुज़रता है
कि…

मैं आदमी नहीं हूं – दो

मैं आदमी नहीं हूं स्साब
जानवर हूं
दो पाया जानवर
जिसकी पीठ नंगी है

कंधों पर…
मैला है
गट्ठर है
मवेशी का ठठ्ठर है
हाथों में…
रांपी—सुतारी है
कन्नी—बसुली है
सांचा है—या
मछली पकड़ने का फांसा है

बग़ल में…
मूंज है—मुंगरी है
तसला है—खुरपी है
छैनी है—हथौड़ी है
झाड़ू है—रंदा है—या—
बूट पालिस का धंधा है.
खाने को जूठन है.
पोखर का पानी है
फूस का बिछौना है
चेहरे पर—
मरघट का रोना है
आंखों में भय
मुंह में लगाम
गर्दन में रस्सा है
जिसे हम तोड़ते हैं
मुंह फटता है और
बंधे रहने पर
दम घुटता है.

ज्वालामुखी के मुहाने

तुमने कहा —
‘मैं ईश्वर हूं’
हमारे सिर झुका दिए गए.

तुमने कहा —
‘ब्रह्म सत्यम, जगत मिथ्या’
हमसे आकाश पुजाया गया.

तुमने कहा —
‘मैंने जो कुछ भी कहा —
केवल वही सच है’

हमें अन्धा
हमें बहरा
हमें गूंगा बना
गटर में धकेल दिया
ताकि चुनौती न दे सकें
तुम्हारी पाखण्डी सत्ता को.

मदान्ध ब्राह्मण
धरती को नरक बनाने से पहले
यह तो सोच ही लिया होता
कि ज्वालामुखी के मुहाने
कोई पाट सका है
जो तुम पाट पाते !

आजादी

वहां वे तीनों मिले
धर्मराज ने कहा पहले से
दूर हटो —
तुम्हारी देह से बू आती है
सड़े मैले की
उसने उठाया झाड़ू
मुंह पर दे मारा.

वहां वे तीनों मिले
धर्मराज ने कहा दूसरे से
दूर बैठो —
तुम्हारे हाथों से बू आती है
कच्चे चमड़े की
उसने निकाला चमरौधा
सिर पर दे मारा

वहां वे तीनों मिले
धर्मराज ने कहा तीसरे से नीचे बैठो —
तुम्हारे बाप-दादे
हमारे पुस्तैनी बेगार थे
उसने उठाई लाठी
पीठ को नाप दिया

अरे पाखण्डी तो मर गया !
तीनों ने पकड़ी टांग
धरती पर पटक दिया
खिलखिलाकर हंसे तीनों
कौली भर मिले
अब वे आज़ाद थे.

पूस का एक दिन

सामने अलाव पर
मेरे लोग देह सेक रहे हैं.

पास ही घुटनों तक कोट
हाथ में छड़ी,
मुंह में चुरट लगाए खड़ीं
मूंछें बतिया रही हैं.

मूंछें गुर्रा रही हैं
मूंछें मुस्किया रही हैं
मूंछें मार रही हैं डींग
हमारी टूटी हुई किवाड़ों से
लुच्चई कर रही हैं.

शीत ढह रहा है
मेरी कनपटियां
आग–सी तप रही हैं.

सफेद हाथी

गांव के दक्खिन में पोखर की पार से सटा,
यह डोम पाड़ा है –
जो दूर से देखने में ठेठ मेंढ़क लगता है
और अन्दर घुसते ही सूअर की खुडारों में बदल जाता है.

यहां की कीच भरी गलियों में पसरी
पीली अलसाई धूप देख मुझे हर बार लगा है कि-
सूरज बीमार है या यहां का प्रत्येक बाशिन्दा
पीलिया से ग्रस्त है.
इसलिए उनके जवान चेहरों पर
मौत से पहले का पीलापन
और आंखों में ऊसर धरती का बौनापन
हर पल पसरा रहता है.
इस बदबूदार छत के नीचे जागते हुए
मुझे कई बार लगा है कि मेरी बस्ती के सभी लोग
अजगर के जबड़े में फंसे जि़न्दा रहने को छटपटा रहे है
और मै नगर की सड़कों पर कनकौए उड़ा रहा हूं.

कभी – कभी ऐसा भी लगा है कि
गांव के चन्द चालाक लोगों ने लठैतों के बल पर
बस्ती के स्त्री पुरुष और बच्चों के पैरों के साथ
मेरे पैर भी सफेद हाथी की पूंछ से
कस कर बांध दिए है।
मदान्ध हाथी लदमद भाग रहा है
हमारे बदन गांव की कंकरीली
गलियों में घिसटते हुए लहूलूहान हो रहे हैं.

हम रो रहे हैं / गिड़गिड़ा रहे है
जिन्दा रहने की भीख मांग रहे हैं
गांव तमाशा देख रहा है
और हाथी अपने खम्भे जैसे पैरों से
हमारी पसलियां कुचल रहा है
मवेशियों को रौद रहा है, झोपडि़यां जला रहा है
गर्भवती स्त्रियों की नाभि पर
बन्दूक दाग रहा है और हमारे दूध-मुंहे बच्चों को
लाल-लपलपाती लपटों में उछाल रहा है.

इससे पूर्व कि यह उत्सव कोई नया मोड़ ले
शाम थक चुकी है,
हाथी देवालय के अहाते में आ पहुंचा है
साधक शंख फूंक रहा है / साधक मजीरा बजा रहा है
पुजारी मानस गा रहा है और बेदी की रज
हाथी के मस्तक पर लगा रहा है।
देवगण प्रसन्न हो रहे हैं
कलियर भैंसे की पीठ चढ़ यमराज
लाशों का निरीक्षण कर रहे हैं.

शब्बीरा नमाज पढ़ रहा है
देवताओं का प्रिय राजा मौत से बचे
हम स्त्री-पुरूष और बच्चों को रियायतें बांट रहा है
मरे हुओं को मुआवजा दे रहा है
लोकराज अमर रहे का निनाद
दिशाओं में गूंज रहा है…
अधेरा बढ़ता जा रहा है और हम अपनी लाशें
अपने कन्धों पर टांगे संकरी बदबूदार गलियों में
भागे जा रहे हैं / हांफे जा रहे हैं
अंधेरा इतना गाढ़ा है कि अपना हाथ
अपने ही हाथ को पहचानने में
बार-बार गच्चा खा रहा है.

[ प्रतिभा एक डायरी स्वतंत्र ब्लाॅग है. इसे नियमित पढ़ने के लिए सब्सक्राईब करें. प्रकाशित ब्लाॅग पर आपकी प्रतिक्रिया अपेक्षित है. प्रतिभा एक डायरी से जुड़े अन्य अपडेट लगातार हासिल करने के लिए हमें फेसबुक और गूगल प्लस पर ज्वॉइन करें, ट्विटर हैण्डल पर फॉलो करे… एवं ‘मोबाईल एप ‘डाऊनलोड करें ]

Donate on
Donate on
Pratibha Ek Diary G Pay
Pratibha Ek Diary G Pay
Load More Related Articles
Load More By ROHIT SHARMA
  • शातिर हत्यारे

    हत्यारे हमारे जीवन में बहुत दूर से नहीं आते हैं हमारे आसपास ही होते हैं आत्महत्या के लिए ज…
  • प्रहसन

    प्रहसन देख कर लौटते हुए सभी खुश थे किसी ने राजा में विदूषक देखा था किसी ने विदूषक में हत्य…
  • पार्वती योनि

    ऐसा क्या किया था शिव तुमने ? रची थी कौन-सी लीला ? ? ? जो इतना विख्यात हो गया तुम्हारा लिंग…
Load More In कविताएं

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Check Also

शातिर हत्यारे

हत्यारे हमारे जीवन में बहुत दूर से नहीं आते हैं हमारे आसपास ही होते हैं आत्महत्या के लिए ज…