ऐतिहासिक ग्रंथों में विजेताओं का जयकारा लगाया जाता है, उसका महिमामंडन किया जाता है, जबकि पराजितों का इतिहास उन विजेताओं के ग्रंथों में शत्रुओं के रुप दर्ज किया जाता है और उसका मानमर्दन किया जाता है. लेकिन पराजितों के नायकों का इतिहास पराजितों के लोकगाथा, लोकगीतों, लोकगायन, परम्पराओं और ऐतिहासिक पुरातात्विक स्थलों में मौजूद होता है, जिसे एक सतर्क दृष्टि से ही ढूंढ़ा जा सकता है. पराजितों के उन नायकों को ढूंढ निकालना आज भी जरूरत है.
पराजितों के नायकों को पराजितों के लोकगाथा, लोकगीतों, लोकगायन, परम्पराओं से ढूंढ़ निकालने में महारत हासिल की थी महाश्वेता देवी ने, जब उन्होंने भागलपुर में आदिवासी विद्रोही तिलकामांझी के चरित्र को उन गाथाओं से ढूंढ़कर निकाली थी और विजेता अंग्रेजों के दस्तावेजों से मिलान कर एक ऐतिहासिक पुस्तक की रचना की थी. जिसके बाद ही तिलकामांझी को ऐतिहासिक नायक के तौर पर स्थापित किया गया.
भारत में ब्राह्मणवादियों ने बौद्ध धर्म को विलुप्त कर अशोक सम्राट को विस्मृत कर दिया लेकिन भला हो अंग्रेजों का जिसने पुरातात्विक खुदाई कर न केवल सम्राट अशोक को ही विस्मृतियों के कब्र से बाहर निकाला बल्कि इसके साथ ही विस्मृत इतिहास को भी विश्व इतिहास के पटल पर स्थापित किया और भारत में उत्पीड़ितों के इतिहास को, पराजितों के इतिहास को नये सिरे से लिखने के लिए प्रेरित किया. इसी कोशिश में पराजितों के नायक महिषासुर को भी नये सिरे से स्थापित किया गया है. इसी परिप्रेक्ष्य में राजेन्द्र प्रसाद सिंह के इस लेख को पढ़ें – सम्पादक
महिषासुर भारतीय इतिहास का ऐतिहासिक नायक है
आज महिषासुर एक ऐतिहासिक चरित्र से मिथक बन चुका है. इतिहास के अति लोकप्रिय नायक मिथक हो जाया करते हैं. महिषासुर का इतिहास तो लोकमानस की यादों में जीवित है, उसे इतिहास ग्रंथों में खोजना बेईमानी है.
जैसा कि विदित है कि ‘महिषासुर’ मूल रूप से ‘महिष’ और ‘असुर’ शब्दों का संयोग है. ‘महिष’ का सर्वाधिक पुराना अर्थ ‘महाशक्तिमान’ है. यह ‘मह’ धातु में ‘इषन’ प्रत्यय जोड़कर बना है, जिनमें गुरूता का भाव है. गुरूता भाव लिए ‘मह’ धातु से अनेक शब्द बने हैं; यथा महा, महान, महत्व, महिमा आदि. महिष ऐसे शब्दों में से एक है.
भारत में जब राजतंत्र का विकास हुआ, तब ‘महिष’ का एक नया अर्थ ‘राजा’ हो गया. कारण कि धरती पर ‘महाशक्तिमान’ राजा ही होते हैं इसीलिए रानी को आज भी ‘महीषी’ ही कहा जाता है. भारतीय वाड्मय में ‘महिष’ का अर्थ ‘भैंसा’ पहली बार स्मृति-ग्रंथों में हुआ है. स्मृति ग्रंथों से पहले कहीं भी ‘महिष’ का अर्थ ‘भैंसा’ नहीं मिलता है.
‘महिष’ का अर्थ ‘भैंसा’ होना भाषविज्ञान में अर्थापकर्श का नमूना है. शब्दों के अर्थ परिवर्तित होते रहते हैं. कभी वह ऊपर उठ जाता है, कभी ज्यों का त्यों रहता है तथा कभी नीचे आ जाता है. भाषाविज्ञान स्थापित करता है कि अर्थ-परिवर्तन का कारण एक नस्लीय भेदभाव भी है. चूंकि पुराने समय के प्रायः राजा नस्लीय वर्ण के आधार पर काले रंग के थे और अनार्य थे, इसीलिए ‘महिष’ का एक अर्थ रंग के आधार पर ‘भैंसा’ भी हो गया.
निष्कर्ष यह है कि वर्तमान में ‘महिष’ के मुख्य रूप से तीन अर्थ प्रचलित हैं- 1 महाशक्तिमान, 2.राजा, 3 भैंसा. इस प्रकार ‘महिष’ का अर्थ- विकास तीन चरणों में हुआ है. इसका अर्थ ‘महाशक्तिमान’ पहले चरण का है. दूसरे चरण में इसका अर्थ ‘राजा’ हुआ और तीसरे चरण में इसका अर्थ विकास ‘भैंसा’ के रूप में हुआ है.
जिस समय में इस देश के राजा असुर (काली नस्लवाले लोग) हुआ करते थे, उस समय में ‘महिष’ का अर्थ द्वितीय चरण से गुज़र रहा था. इसीलिए माना जाना चाहिए महिषासुर का आविर्भाव-काल इसी द्वितीय चरण में है. ‘महिषासुर’ का सही अर्थ ‘असुरों का राजा है’ भैंसासुर नहीं. ‘भैंसासुर’ उसे तब कहा जाने लगा, जब ‘महिष’ शब्द अपने अर्थ विकास के तृतीत चरण से गुज़र रहा था.
अब आइए, ‘असुर’ शब्द पर विचार करें. ‘असुर’ का पुराना और सही अर्थ ‘राक्षस’ नहीं है. वैदिक कोश में लिखा है कि असुराति ददाति इति असुर: अर्थात जो असु (प्राण) दे, वह असुर (प्राणदाता) है. संस्कृत केे प्रख्यात कोशकार वीएस आप्टे ने भी ‘असु’ का अर्थ ‘प्राण’ किया है. हिंदी के प्रसिद्ध कोशकार रामचंद्र वर्मा भी इस अर्थ से सहमत हैं.
दरअसल हिंदी और संस्कृत का ‘असुर’ शब्द इसी असु (प्राण) शब्द से निर्मित हुआ है. ‘असुर’ का निर्माण ‘असु+र’ से हुआ है, जबकि कुछ लोगों ने भ्रमवश इसे ‘अ+सुर’ से निर्मित माना है. ‘असुर’ शब्द ‘असु’ में ‘र’ जुड़ने से बना है. यह ‘सुर’ (देवता) में ‘अ’(नहीं) जुड़कर नहीं बना है.
आइए, इसे एक उदाहरण से समझें. ‘असर’ का अर्थ ‘प्रभाव’ होता है. यदि कोई नासमझी केे कारण इसकी व्याख्या ‘अ (नहीं) सर (महाशय)’ अर्थात जो महाशय नहीं हो, करे तो आप इसे क्या कहेंगे ? वैसे भी ‘असुर’ का ‘असु’ (प्राण) मूल शब्द है. इसमें से ‘अ’(नहीं) को अलग नहीं किया जा सकता है. यदि ऐसा करते हैं तो भाषा विज्ञान के अनुसार आप ‘भ्रामक व्युत्पत्ति’ के शिकार हैं.
‘सुर’ (देवता) का निर्माण अज्ञानवश हुआ है. ‘असुर’ मौलिक शब्द है. इसमें ‘सुर’ कहीं से स्वतंत्र रूप से जुड़ा हुआ नहीं है. पुराने समय में ‘सुर’ शब्द का अस्तित्व नहीं था. इसलिए वेदों में भी इंद्र का एक विशेषण ‘असुर’ ही है. ‘असुर’ का अर्थ ‘राक्षस’ गलत है तथा बाद का है.
महिषासुर में जो ‘असुर’ शब्द है, वह राक्षस का नहीं, अपितु ‘प्राण’ का द्योतक शब्द है. महिषासुर भारतीय इतिहास का ऐतिहासिक नायक है. प्रसिद्ध इतिहासकार डीडी कोसांबी के इतिहास ग्रंथ के पन्नों पर महिषासुर को कई बार रेखांकित किया गया है. महिषा की स्मृति में बने अनेक मिट्टी के मंदिरों के चित्र उसमें अंकित हैं, साथ ही उसमें दुर्गा से उसके संबंधों का भी अंकन है.
सत्य है कि आज महिषासुर एक ऐतिहासिक चरित्र से मिथक बन चुका है, मगर ध्यान रहे कि इतिहास के अति लोकप्रिय नायक मिथक हो जाया करते हैं. महिषासुर का इतिहास तो लोकमानस की यादों में जीवित है, उसे इतिहास ग्रंथों में खोजना बेईमानी है. कारण कि प्राय: इतिहास ग्रंथ उसके विरोधियों द्वारा प्रायोजित हैं.
जैसा कि हम कह आए हैं कि महिषासुर का एक नाम बाद में चलकर ‘भैंसासुर’ भी हो गया. भारत में भैंसासुर के नाम पर कई गांव बसे हैं और कई चौक चौराहे तथा मोहल्ले भी हैं. ये सब महिषासुर के ऐतिहासिक चरित्र होने के प्रमाण हैं. झारखंड के पलामू जिले के मनातु प्रखंड के अंतर्गत पद्मा पंचायत में भैंसासुर गांव है. एक भैंसासुर गांव उत्तर प्रदेश के पीलीभीत जिले के अंतर्गत पूरनपुर विधानसभा क्षेत्र में भी है.
मध्य प्रदेश भी भैंसासुर गांव के कई प्रमाण समेटे हुए है. मध्यप्रदेश की तहसील अंतागढ़ में भैंसासुर गांव है. ऐसे ही सतना जिले के मैहर थाना क्षेत्र के अंतर्गत भी ग्राम भैंसासुर है. जिला महोबा प्रखंड चरखारी में भी भैंसासुर कस्बा है. स्वयं महोबा भी महिषासुर की स्मृति में बसाया गया नगर है. महिषासुर को डीडी कोसंबी ने ‘म्हसोबा’ लिखा है. यही म्हसोबा ही नगर महोबा है. महोबा का क्षेत्र महिषासुर की स्मृतियों से पटा हुआ है.
कई नगरों में भैंसासुर की स्मृति में तिराहे और चौराहे हैं. मध्यप्रदेश के जबलपुर में भैंसासुर तिराहा है और बिहार के शहर बिहारशरीफ में भैंसासुर चौराहा है. भारत के कई स्थलों पर महिषासुर के पूजा स्थान हैं. सीहोर शहर के निकट इछावर मार्ग पहाड़ी पर भैंसासुर बाबा का स्थान है. मध्य प्रदेश के छतरपुर में भैंसासुर मुक्तिधाम है.
दूर की बात छोड़िए, बनारस में भी भैंसासुर का मंदिर और घाट है. मध्य प्रदेश के टीकमगढ़ जिले के पास एक बड़ागांव कस्बा है. यहां ‘भैंसासुर का मंदिर’ है. वह मंदिर भैंसासुर की मड़िया के नाम से जाना जाता है. भैसासुर बाबा नगर के देवताओं के प्रमुख हैं. वे आल्हा सुनते हैं.
भारत की कई नदियों, टीले और पोखर में भी भैंसासुर बाबा बसे हुए हैं. कहां कहां इतिहास उन्हें मिटाएगा ? झारखंड और बिहार से लेकर महाराष्ट्र तक आप बाबा भैंसासुर के दर्शन कर सकते हैं. सच मिटाए नहीं मिटता. वह अपना निशान कहीं न कहीं छोड़ जाता है- टीलों पर, पत्थरों पर, डीह डिहवारों में.
- राजेन्द्र प्रसाद सिंह
लेखक ‘भारत में नाग परिवार की भाषाएं’, ‘भाषा का समाजशास्त्र’, ‘95 भाषाओं का शब्दकोश’, ‘भोजपुरी-इंग्लिश-हिंदी शब्दकोश’ और पहली बार ‘हिंदी साहित्य का सबअल्टर्न इतिहास’ आदि किताबें लिखने वाले भाषा वैज्ञानिक और आलोचक हैं. वर्तमान में वे सासाराम के वीर कुंवर सिंह विश्वविद्यालय में हिंदी विभाग के प्रोफेसर हैं.
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