महात्मा गांधी की हत्या 30 जनवरी, 1948 को हुई थी और सावरकर को पांच फरवरी को हिरासत में ले लिया गया था. 17 दिन बाद उन्होंने बंबई के पुलिस आयुक्त को एक पत्र लिखा था. इसमें वे लिखते हैं, ‘यदि मुझे रिहा कर दिया जाता है तो सरकार जब तक चाहेगी मैं सांप्रदायिक और राजनीतिक गतिविधियों से खुद को दूर रखूंगा.’ यह एक गैरजरूरी प्रस्ताव था, जिसने गांधी जी की हत्या में सावरकर की भूमिका पर शक को और गहरा कर दिया. हालांकि अदालत में इसे साबित नहीं किया जा सका. वहीं सावरकर की मृत्यु के कई सालों बाद इस मामले में भी उनकी भूमिका स्पष्ट हुई थी.
जनवरी, 1948 में गांधी जी की हत्या की दो कोशिशें हुई थीं. पहली बार एक पंजाबी शरणार्थी मदनलाल पाहवा ने 20 जनवरी को उन्हें मारने की साजिश की थी लेकिन वह असफल रहा. दूसरी कोशिश नाथूराम गोडसे की थी, जिसमें इन लोगों को सफलता मिल गई थी.
गांधी जी की हत्या के मामले में आठ आरोपित थे – नाथूराम गोडसे और उनके भाई गोपाल गोडसे, नारायण आप्टे, विष्णु करकरे, मदनलाल पाहवा, शंकर किष्टैया, विनायक दामोदर सावरकर और दत्तात्रेय परचुरे. इस गुट का नौवां सदस्य दिगंबर रामचंद्र बडगे था, जो सरकारी गवाह बन गया था. अदालत में दी गई बडगे की गवाही के आधार पर ही सावरकर का नाम इस मामले से जुड़ा था.
बडगे ने इसमें बताया था कि वह गोडसे और आप्टे के साथ दो बार बंबई में सावरकर सदन गया था. इस भवन की दूसरी मंजिल पर सावरकर रहते थे. ये लोग पहली बार 14 जनवरी को वहां पहुंचे थे. इसी दिन बडगे ने गोडसे और आप्टे को दो गन-कॉटन (पलीता), पांच हैंड-ग्रेनेड और डिटोनेटर दिए थे. बडगे उस दिन सावरकर सदन के अंदर नहीं गया था. लेकिन आप्टे ने उसे बताया था कि उनकी और गोडसे की सावरकर से मुलाकात हुई है और सावरकर ने कहा है कि गांधी और नेहरू को ‘खत्म’ होना चाहिए. आप्टे के मुताबिक सावरकर ने यह जिम्मेदारी उन दोनों को सौंपी थी.
ये लोग दूसरी बार 17 जनवरी को सावरकर सदन पहुंचे थे. इस बार बडगे भी सदन के अंदर गया था. गोडसे और आप्टे दूसरी मंजिल पर सावरकर से मिलने चले गये. बडगे के मुताबिक 10 मिनट बाद जब वे सीढ़ियों से उतर रहे थे तो उसने सावरकर को उनसे मराठी में यह कहते सुना ‘तुम्हें सफलता मिले और तुम वापस लौटो’. हालांकि बडगे ने यह कहते हुए सावरकर को देखा नहीं था.
ट्रायल कोर्ट के जज आत्माचरण के मुताबिक बडगे ‘सच्चा गवाह’ था लेकिन उन्होंने सावरकर को इस मामले में बरी कर दिया क्योंकि अदालत में बडगे की बयानों की कड़ियां जोड़ने वाले सबूत पेश नहीं किए जा सके. इसकी एक वजह यह भी थी कि गोडसे और दूसरे लोगों ने भरसक कोशिश की थी कि उनके मार्गदर्शक का नाम इस हत्याकांड में न आए. उदाहरण के लिए गोडसे ने सावरकर से अपना संबंध वैसा ही बताया जैसा एक नेता और उसके अनुयायी का होता है. गोडसे का कहना था कि उन्होंने और उनके साथियों ने, ‘1947 में ही वीर सावरकर के नेतृत्व को छोड़ दिया था और उनसे भविष्य की योजनाओं-नीतियों पर सलाह लेना बंद कर दिया था. मैं दोबारा यह कहना चाहता हूं कि यह बात सही नहीं हैं कि वीर सावरकर को मेरी गतिविधियों के बारे में कोई जानकारी थी और जिन पर आगे बढ़ते हुए मैंने गांधी जी की हत्या की.’
मुकदमे के दौरान अभियोजन पक्ष लगातार इस बात पर जोर देता रहा कि गोडसे और आप्टे सावरकर के प्रति समर्पित रहे हैं. वहीं सावरकर अपनी आदत के अनुसार इन दोनों से पल्ला झाड़ते रहे. उनका कहना था कि कई अपराधी अपने गुरुओं और मार्गदर्शकों के प्रति काफी सम्मान दिखाते हैं लेकिन क्या जिन लोगों ने अपराध किया है उनकी निष्ठा के आधार पर गुरुओं और मार्गदर्शकों को उस अपराध के लिए दोषी ठहराया जा सकता है ?
सावरकर के इस वक्तव्य से गोडसे काफी आहत हुआ था. इस बात की पुष्टि पीएल ईनामदार करते हैं जिन्होंने इस मामले में गोपाल गोडसे की पैरवी की थी. वे एक स्थान पर लिखते हैं, ‘कालकोठरी में नाथूराम, तात्याराव (सावरकर) के हाथ के स्पर्श, सहानुभूति के दो बोल या कम से कम स्नेह भरी एक नजर के लिए तड़पता था. नाथूराम से मेरी अंतिम मुलाकात के दौरान भी उसने इस संदर्भ में अपनी आहत भावनाओं के बारे में चर्चा की थी.’
सावरकर के खिलाफ कुछ नए सबूत
गोपाल गोडसे की सजा पूरी होने के बाद उसे अक्टूबर, 1964 में रिहा कर दिया गया. उसकी रिहाई का उत्सव मनाने के लिए 11 नवंबर, 1964 को पुणे में एक कार्यक्रम आयोजित किया गया था. इसमें तरुण भारत अखबार के संपादक जीवी केतकर भी मौजूद थे. यहां केतकर का कहना था कि नाथूराम गोडसे उनसे अक्सर गांधी की हत्या के फायदों के बारे में चर्चा करता रहता था.
केतकर के इस इस खुलासे से पूरे देश में हलचल मच गई. संसद में भी इसपर खूब हल्ला-गुल्ला मचा और आखिरकार सरकार ने मार्च, 1965 जस्टिस जेएल कपूर की अध्यक्षता में एक आयोग का गठन कर दिया. आयोग को यह पता लगाना था कि क्या महात्मा गांधी की हत्या की साजिश काफी पहले रची गई थी और क्या सरकार को इस बारे में पहले से कोई जानकारी मिली थी.
आयोग गठित होने के कुछ महीनों बाद ही सावरकर ने स्वेच्छा से खाना-पीना बंद करके अपने प्राण त्याग दिये. उनका कहना था कि किसी व्यक्ति के जीवन का मिशन खत्म होने के बाद यह बेहतर है कि वह स्वेच्छा से प्राण त्याग दे. यहां सवाल उठाया जा सकता है कि क्या सावरकर ने यह कदम आयोग की जांच में अपना नाम आने और अपने जीवन के इस अंतिम चरण में अपमानित होने की आशंका से बचने के लिए उठाया था ?
इस सवाल का ठीक-ठीक जवाब नहीं दिया जा सकता. पर सावरकर के ऐसा करने से शायद उनके सुरक्षाकर्मी अप्पा रामचंद्र कसर और उनके सचिव विष्णु डामले को यह आजादी जरूर मिल गई थी कि वे आयोग के सामने अपनी सही गवाही दर्ज करवा सकें. इन दोनों ने इस बात की पुष्टि की कि गोडसे और आप्टे, सावरकर के काफी करीबी थे और यहां तक कि ये लोग एक साथ हिंदू महासभा की बैठकों में भी भाग लेने जाया करते थे. आयोग को उन्होंने यह जानकारी भी दी कि विष्णु करकरे एक पंजाबी शरणार्थी लड़के (मदनलाल पाहवा) को जनवरी, 1948 के पहले हफ्ते में सावरकर से मिलाने लाया था और इन दोनों के बीच में तकरीबन 30-45 मिनट तक बातचीत हुई थी.
1967 में गोपाल गोडसे ने एक किताब लिखी थी – गांधी हत्या, अणि मी (गांधी की हत्या और मैं). इसमें उसने जानकारी दी थी कि नाथूराम गोडसे सावरकर को 1929 में तब से जानता था जब सावरकर रत्नागिरी में रह रहे थे. इस किताब के मुताबिक नाथूराम गोडसे और सावरकर का रोजाना मेलजोल होता था.
इन बयानों और सूचनाओं के आधार पर जस्टिस कपूर का निष्कर्ष था कि ये सभी तथ्य एक साथ रखे जाएं तो यह बात स्पष्ट होती है कि गांधी जी की हत्या के पीछे सावरकर और उनके संगठन का ही हाथ था.
जिस तरह से सावरकर, गोडसे और आप्टे का करीबी संबंध था, ऐसे में क्या मुमकिन है कि इन लोगों ने अपने मार्गदर्शक को गांधी जी की हत्या की योजना के बारे में न बताया हो ? 2011 में प्रकाशित किताब ‘हिस्टरी एंड द मेकिंग ऑफ मॉडर्न हिंदू सेल्फ’ में इसका एक जवाब मिलता है. यह किताब अपर्णा देवारे ने लिखी है. इसमें उन्होंने अपने एक बुजुर्ग रिश्तेदार डॉ. अच्युत फड़के का जिक्र किया है जिन्हें नारायण आप्टे ने हाई स्कूल में फिजिक्स पढ़ाई थी. फड़के ने देवारे को बताया था कि आप्टे गांधी की हत्या की अपनी और गोडसे की योजना के बारे में खुलेआम चर्चा करता था. यह बड़ी ही विचित्र बात है कि जो बात ये लोग स्कूल के बच्चों के सामने कर रहे थे, भला वो उन्होंने सावरकर से क्यों छिपाई होगी ?
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ हिंदुत्व के जिस राजनीतिक दर्शन को आगे बढ़ाना चाहता है, सावरकर उसके जनक हैं इसीलिए वह सावरकर के साहस से जुड़े मिथक को इतना बढ़ा-चढ़ाकर बताता है. संघ के लिए यह बात मायने नहीं रखती कि सावरकर ने किस तरह अपने कट्टर अनुयायियों से पल्ला झाड़ लिया था या फिर वे किस तरह अंग्रेज सरकार को माफीनामे भेज रहे थे.
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