सारांश : महाराजाधिराज मुगलकुल शिरोमणि एक ऐसा शीर्षक है, जो मुगल बादशाह औरंगजेब को दिया गया है. यह शीर्षक औरंगजेब की धार्मिक सहिष्णुता और हिंदुओं के प्रति उनकी संरक्षक भूमिका को दर्शाता है. हालांकि, इतिहासकारों और विद्वानों के बीच औरंगजेब की छवि को लेकर बहुत विवाद है. कुछ लोग उन्हें एक धार्मिक कट्टरपंथी और हिंदू विरोधी के रूप में देखते हैं, जबकि अन्य लोग उन्हें एक धार्मिक सहिष्णु और हिंदुओं के संरक्षक के रूप में देखते हैं. इस लेख में, हम औरंगजेब की सच्चाई को उजागर करने का प्रयास करेंगे. हम उनके जीवन, उनकी धार्मिक नीतियों, और उनके हिंदू विषयों के साथ उनके संबंधों का विश्लेषण करेंगे. औरंगजेब का जन्म 1618 में हुआ था और वह मुगल बादशाह शाहजहां के सबसे छोटे बेटे थे. उन्होंने अपने पिता की मृत्यु के बाद 1658 में मुगल सिंहासन पर कब्जा किया था. औरंगजेब की धार्मिक नीतियों को लेकर बहुत विवाद है. कुछ लोग उन्हें एक धार्मिक कट्टरपंथी के रूप में देखते हैं, जबकि अन्य लोग उन्हें एक धार्मिक सहिष्णु के रूप में देखते हैं. हालांकि, यह सच है कि औरंगजेब ने अपने शासनकाल में कई हिंदू मंदिरों को तोड़ा था और कई हिंदू विषयों को इस्लाम में परिवर्तित करने के लिए मजबूर किया था. लेकिन यह भी सच है कि उन्होंने अपने शासनकाल में कई हिंदू विषयों को भी संरक्षण प्रदान किया था और उन्हें अपने दरबार में उच्च पदों पर नियुक्त किया था. इस प्रकार, औरंगजेब की सच्चाई बहुत जटिल है और इसे एक सरल और सीधे तरीके से नहीं समझा जा सकता है. हमें उनके जीवन और उनकी धार्मिक नीतियों का विश्लेषण करने के लिए एक अधिक जटिल और सूक्ष्म दृष्टिकोण अपनाने की आवश्यकता है.
औरंगजेब एक धर्मपरायण शासक थे. वे औघड़ दानी थे, और हिन्दू धर्म से विशेष लगाव था, जिसके प्रसार और सुरक्षा के लिए अनेक कार्य किये, जिसमें हिंदू मंदिरों, मठों और पूजारियों को भी दान देना शामिल है.
- गौहाटी के उमानंद मंदिर को पहले से मिले भूमि अनुदान को औरंगजेब ने एक फरमान जारी कर पक्का किया.
- 1680 और 1687 में बनारस के दो संतों भगवंत गोसाई और रामजीवन गोसाई को औरंगजेब ने बनारस के घाट पर घर बनाने के लिए जगह उपलब्ध करवायी.
- 1691 में औरंगजेब ने चित्रकूट के महंत बालकदास निर्वाणी को आठ गांव और कर मुक्त जमीन उपलब्ध करवाया ताकि वे बालाजी मंदिर की देखभाल कर सकें.
- इसी तरह शैव मठों को भी दान दिया गया. बोधगया स्थित शैव मठ, जिसकी स्थापना 16 वीं सदी में हुई थी, उसे भी मस्तीपुर और तारीडीह की जमीन अनुदान में औरंगजेब के समय में मिली.
औरगंजेब जैन धर्म मतावलंबियों का भी विशेष ख्याल रखते थे इसलिए जैन तीर्थस्थलों को भी जमीन अनुदान में दिया. इसमें गिरनार और मांउट आबू के जैन तीर्थ स्थल प्रमुख हैं. आजकल कुछ हरे-रामजादे क़िस्म के जैन, जो महावीर के मार्ग को धता बताकर, टनाटनी हिन्दू बनने को कूद रहे हैं, वे दरअसल विकट किस्म के अहसान फरामोश है. वे औरंगजेब के न हुए, संघियों के क्या ही होंगे !
बहरहाल, औरंगजेब की नीति मंदिर, मठों और दान करने के हिन्दू तुष्टिकरण तक सीमित नहीं थी. उन्होंने हिन्दू लड़कों की बेरोजगारी घटाने के लिए ठोस कार्य किये. दरअसल सल्तनत काल में जहां हिन्दुओं को सरकारी नौकरी नहीं मिलती थी, वहीं औरंगजेब के दौर में इनकी संख्या बढ़ती गई.
1679 से 1707 के बीच औरंगजेब के कार्यकाल में, मुगल प्रशासन में हिंदू अधिकारियों की संख्या 50 प्रतिशत तक पहुंच गई. औरंगजेब के अंतिम वर्षों में उसके दरबार में हिंदू कुलीनों (nobles) की संख्या 31 प्रतिशत तक पहुंच गई थी, जो अकबर के समय में 22 प्रतिशत के करीब थी.
सत्ता हासिल करने के बाद सम्राट औरंगजेब ने, एक हिन्दू राजा रघुनाथ को वित्त मंत्री नियुक्त किया. राजा रघुनाथ शाहजहां के कार्यकाल में भी वित्त मंत्री थे. राजा रघुनाथ हालांकि कुछ साल ही औरंगजेब के साथ रहे और उनकी मौत हो गई, लेकिन औरंगजेब रघुनाथ का अंत तक कायल रहे.
रघुनाथ के काम से औरंगजेब इतना खुश थे कि उन्हें राजा की उपाधि दी, और मनसब का रैंक बढ़ा कर 2500 किया. फ्रेंच यात्री बर्नियर ने औरंगजेब के दरबार में राजा रघुनाथ के रूतबे का उल्लेख किया है. हिन्दुओं से औरंगजेब को की मोहब्बत का ये दरअसल यह पुराना रिश्ता था.
हुआ यह था कि जब शाहजहां के कार्यकाल में मुग़ल गद्दी को कब्जाने के लिए उसके पुत्रों के बीच उत्तराधिकार की लड़ाई हुई, तब औरंगजेब के पक्ष में 21 हिंदू कुलीन (nobles) थे. दारा शिकोह के पक्ष में 24 हिंदू कुलीन थे, परन्तु ज्यादातर अफगान औऱ तुर्की सरदार दारा शिकोह के साथ थे.
उत्तराधिकार की लड़ाई में औरंगजेब को मुसलमान सरदारों की तुलना में हिंदू कुलीनों का / से अधिक प्यार और समर्थन मिला, जिसे वे उम्र भर नहीं भूले. अतएव जीवन भर उनका ख्याल रखा. कभी उन पर बुलडोजर न चलाया, बेजा जेल न भेजा. प्रजा प्रजा में भेद न किया. औरंगजेब ने कभी शासकीय कोष से प्लेन न खरीदा, सूट न लिए, और मशरूम भी खरीदकर न खाया.
18-18 घण्टे राज्य का कार्य करने के बाद अपने लिए वह कुरान की प्रतिलिपि करता, और टोपियां सीता. इससे मिलने वाले मूल्य से अपना पेट भरता. यानी, उसके बराबर का ईमानदार शासक वस्तुतः मिलना बड़ा कठिन है. ऐसे में अगर उसके वंशज, किसी का हक मारे बगैर, रिक्शा चलाकर अपना पेट भरते हैं, तो वे लोग सचमुच औरंगजेब की ईमान की विरासत आज भी बनाये हुए हैं.
पर जब माननीय योगी जी के मुखारवृन्द यह सूचना प्राप्त हुई, वे सच ही बता रहे होंगे. औरंगजेब के वे रिक्शा चालक वंशज, सलाम के काबिल हैं. वे लोग आम भोले भाले इंसानों की धार्मिक भावनाओं का दोहन कर, महलों में ऐश कर रहे महंतों-बाबियों-बाबाओं से लाख लाख गुना बेहतर इंसान हैं. तो हिन्दुओं के महान संरक्षक महाराजाधिराज मुग़लकुल शिरोमणि प. पू औरंगजेब जी आलमगीर का इकबाल बुलन्द रहे ! अलख निरंजन !!
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व्हाट्सप में एक ख्याली भारत दिखाया जाता है. उसकी सीमाएं अफगानिस्तान से कंबोडिया तक फैली हैं. शायद बामियान में बुद्ध की मूरतें और अंकोरवाट में विष्णु मंदिर के अवशेष मिलने की वजह से. मगर तथ्यात्मक राजनैतिक इतिहास देखें, तो भारत के सबसे बड़े भौगोलिक विस्तार का दौर, औरंगजेब का था.
CAA में अगर अफगानिस्तान, पाकिस्तान और बंगलादेश शामिल हैं, तो और कुछ नहीं, वे औरंगजेब की सीमाएं हैं, जिस पर रंग केसरिया पोतकर अखंड भारत बताया जाता है.
शुरुआत में औरंगजेब दक्खन का सूबेदार था. दूसरे दो भाई बंगाल और पश्चिमी भारत में सूबेदार थे. सबसे बड़ा भाई दारा शिकोह, दिल्ली में ही था, जिसके बादशाह बनने के पूरे चांस थे. इस दौर में दिल्ली की पॉलिटिक्स में 4 खेमे थे –
- तुर्की खेमा, जो मुहम्मद गोरी के जमाने से सेटल्ड था.
- अफगान लोग, जो सल्तनत युग और शेरशाह सूरी के जमाने के सेटलर्स थे.
- तीसरा मुगलों के साथ आये तातार सेटलर्स.
- चौथा, लोकल इण्डियन्स का खेमा, जिसमें राजपूत प्रमुख थे.
अकबर के जमाने में हिन्दू खेमा मजबूत हुआ. उन पर भरोसा इतना कि बादशाह के महल और हरम की हिफाजत, हिन्दू सरदार करते. ये समीकरण, शाहजहां तक चलता रहा. जब वो मरने को हुआ, बेटों में युद्ध छिड़ा. औरंगजेब और दो दूसरे भाई मिलकर दारा से लड़े.
औरंगजेब की ओर से लड़ने वाले अफगान, तुर्क और मुगल खेमे थे. सभी एन्टी इस्टाब्लिेशमेंट थे, याने जमे हुए इंडियन खेमे के खिलाफ थे और औंरंगजेब, इस्टाब्लिशमेट याने दारा के खिलाफ था. और दारा शिकोह के साथ थे शाहजहां के वफादार राजपूत, और ज्यादातर हिन्दू राजे. बदकिस्मत दारा हार गया, औरंगजेब बादशाह हुआ.
जाहिर था, उसने दुश्मन खेमे को दर बदर कर दिया, जिसमें हिन्दू एलीट बड़ी संख्या में थे. ये विशुद्ध पॉलिटिक्स थी. पर हिन्दू विरोधी होने का ठप्पा लग गया. यह भुला दिया गया कि कि बहुत से हिंदू रजवाड़े औरंगजेब की ओर से भी लड़े. वे तो सुरक्षित रहे, प्रोग्रेस किये.
उसकी छवि को दूसरा झटका जल्द लगा. सिख, हिन्दुओं के बीच से बनी मिलिटेंट कौम थी, जो अभी रिलिजियस शेप ले ही रही थी. इन्होंने औरंगजेब की नाक में दम कर रखा था. तो अगर पकड़े गए तेगबहादुर, बेटों के लिए डरकर इस्लाम कबूल लेते तो यह खबर सिखों का मोरल तोड़ देती. चुनौती वहीं खत्म हो जाती. तेगबहादुर मजबूत निकले, बेटों ने शहादत दी, और औरंगजेब जुआ हार गया.
उसके हिन्दू विरोधी कहलाने का तीसरा कारण है, शिवाजी का हीरोकरण, जिनका झंडा केसरिया था. लाज़िम है शिवाजी के विरोधी को सुपर दुष्ट विलन बनाना ही पड़ेगा, जिसका झंडा हरा था. तो मराठों, और आज संघियों के लिए औरंगजेब फेवरिट विलन है.
मजेदार सच्चाई ये कि मुगलों की तरफ से राजपूत हिंदू राजे उतरे राणा प्रताप और शिवाजी से लड़ने के लिए. उधर राणा और शिवाजी के प्रमुख सिपहसालार मुसलमान थे. यानी, हिंदू पक्ष की रक्षा में मुसलमान सेनापति सर कटा रहे रहे थे. मुसलमान पक्ष के हिंदू सेनापति उनका सर काट रहे थे. गजब धर्मयुद्ध था मितरों…!!!
नो डाउट,औरंगजेब अपने धर्म का कट्टर था, इम्मोरल था, रियलपोलिटिक था. राजनीति में धर्म की मिलावट कर देता था. उसने बहुत से झूठे, बेईमान, गद्दार, दगाबाज…मगर खुद के लिए वफादार लोगों को ऊंचे ऊंचे पद दिए.
वो छोटे इलाके का सूबेदार था. फिर भाइयों को मारकर, बाप को मार्गदर्शक मंडल में डालकर गद्दी पर बैठा था. किसी का भरोसा न करता, वो हर फैसला खुद, और अकेले लेता. 18-18 घण्टे मेहनत करता, और अपने खानदान का राज इतना फैला दिया, जो उसके बाप दादे न कर सके.
ठीक इसी स्टोरीलाइन के आधुनिक बादशाह से बेपनाह मोहब्बत करने वाले, औरंगजेब से अनहद नफरत करते हैं. भईया जी, ये बड़ी दोगलई की बात है. औरंगजेब की विजयों से बना भारत का नक्शा जिनका ख्वाब है, उन्हें इलाका पूरा चाहिए…औरंगजेब की औलादों से खाली करवाकर.
डर लगता है तो चीन का सीना चीर मानसरोवर का रास्ता बनवाने में. ऐसा काम, जो हिन्दू प्रजा के लिए औरंगजेब ने कर दिखाया. यहां अंतर दिखता है. तो हिस्ट्री पढिये, औरंगजेब के और कई शेड मिलेंगे. पढ़कर उसे बुरा समझें, या प्रेक्टिकल. बस, तानाशाह सल्तनत से वैसी नैतिकताओं और लोकतांत्रिक व्यवहार का आग्रह न रखें, जिन्हें तोड़ने मरोड़ने के इनाम में आप अंगूठा काटकर बटन दबा रहे हैं.
याद रहे, गालियों से आपको सन्तुष्टि जरूर मिलेगी, पर सत्य यह कि कमियों के उस पुतले से, उपलब्धियों में आगे जाना, आपके लिए सम्भव नहीं. सिवाय एक तरीके के. आप आगे निकल सकते हैं, एक बेहतर शख्स बनकर. क्रूर पॉलिटिशियन के मेटल में जरा मोहब्बत, मानवीयता, समदर्शिता भरकर, राह बदलकर. वरना सोचिये, औरंगजेब की तरह याद किये जाने के लिए भला आपने छोड़ा ही क्या है ??
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ये फतेहपुर सीकरी का बुलंद दरवाजा है. फ़ारसी में लिखी इबारत कहती है –
ईसा ने कहा- दुनिया एक पुल है, इसके पार जाओ. पर इसमें घर ना बनाना. जो एक पल की आशा करता है, वह अनंत की आशा भी करता है. ये दुनिया तो बस एक क्षण है, इसे प्रार्थना में खर्च करो.
13 की उम्र में जब बाप की मौत की खबर मिली, अकबर, पंजाब के कलानौर में था. वहीं किसी खेत में उसका राज्याभिषेक हुआ. दुश्मन चढ़े आ रहे थे. डी फैक्टो रूलर बैरमखां ने युद्ध किया, एलायंस बनाये, साम्राज्य स्थिर किया. जल्द ही अकबर ने सत्ता खुद सम्हाली. साम्राज्य बढाया, बाप के खोये इलाके हासिल किए. अब वो शक्तिशाली बादशाह था.
पर दुःखी था. सन्तान न थी. कहते हैं कई कोस पैदल चलकर वह सीकरी गया, सलीम चिश्ती के पास…उस दरवेश ने दुआ क़ी. अकबर को बेटा हुआ, तो नाम सलीम रखा गया. फिर उसी सीकरी गांव में, अकबर ने अपनी राजधानी बनाई. यह नया शहर, फतेहपुर सीकरी था.
हिंदुस्तान ने तमाम बादशाह देखे हैं. खास तौर पर 11वीं सदी के बाद दिल्ली में बैठे सारे सुल्तानों और बादशाहों के बीच, अकबर अलहदा किंग था. आप उसे राजर्षि कह सकते है.
एक सुन्नी, जो शिया स्कॉलर्स के बीच बैठता. एक मुस्लिम, जो हिन्दू धर्मग्रंथों को सुनता. जो सीकरी के पंचमहल की छत पर सुबह सूर्य को प्रणाम करता, और तिलक लगाकर दरबार की ओर प्रस्थान करता.
जिसने विधवाओं, अपाहिजों और ब्राह्मणों को जजिया से मुक्त किया. जिसने हिन्दू राजाओं को जीता, हराया पर गुलाम नहीं, दोस्त और रिश्तेदार बनाया. अपनी शामे इबादतखाने में गुजारी, जिसकी रुचि सुफिज्म और हिंदुइज्म की ओर रही.
जिसने यूरोप के राजाओं को क्रिश्चियन पादरी भेजने को खत लिखे कि वह उस धर्म को भी समझ सके. उन सारे धर्मो का निचोड़, भाईचारा और प्रेम और भक्ति को मानते हुए एक नया दीन बनाने की कोशिश की. उसने एक हाथ में धर्म, दूसरे में राजनीति रखी.
लेकिन दोनों में मिलावट से परहेज किया.
उसने एक आइन (कॉन्स्टिट्यूशन) तजवीज की, जिसे आप आइन-ए-अकबरी में देखते हैं. यानी वो अपने राज्य को सुगठित नियमों, कायदों के तहत चलते देखना चाहता था.
जो दरबार में बाइज्जत तानसेन और बैजू को बुलाकर सुनना चाहता है. जिसका मसखरा सलाहकार बीरबल उसे छका देता है. जिसके नवरत्न अबुल फजल और फैजी श्रीकृष्ण की शान में फ़ारसी में कलाम लिखते हैं. गीता का अनुवाद करते हैं. जिसके टोडरमल ने जमीन की नाप और लगान की जो व्यवस्था दी, वो कमोबेश आज तक चल रहा है.
हिंदुस्तान में दो दौर, इतिहास के स्वर्णयुग हुए. एक चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य…दूसरा अकबर.. जिसके दौर में कहा जाता है कि दुनिया की GDP का 25% भारत में होता. गर्वीले आज जिस सोने की चिड़िया की बात करते हैं, वो वही दौर है, जिसे हिस्ट्री मुगलकाल कहती हैं.
पर अकबर सबसे मजबूत, सबसे मैजेस्टिक मुगल तो नहीं था. विस्तार, धन, दौलत, वकार और रसूख हिंदुस्तान में किसी बादशाह का था…तो वो औरंगजेब था. धर्मपरायण, ईमानदार, मेहनती, सफल, जिंदा पीर तो औरंगजेब थ, पर उसे कभी महान नहीं माना गया. स्वर्णयुग तो अकबर का दौर है.
राजनीति और धर्म का साथ हर युग में रहा. हर बादशाह, हर रूलर ने इन्हें अपने बिलीफ और अपने आदर्शों पर कसने की कोशिश की लेकिन याद वही किये गए, जिन्होंने प्रजा की धार्मिक सांस्कृतिक धारा को तलवार के जोर पर गंदा करने से परहेज किया. जिसने सबको आजादी दी, इज्जत दी, प्रजा प्रजा में भेद न किया. जिसने अपनी अतुलित ताकत पर अनुशासन रखा.
तो याद रखा जाने वाला वही सुलेमान है, सॉलोमन है, एलेग्जेंडर, अशोक, अकबर है. अपनी सोच और दुराग्रह थोपने वाले अखनाटन और औरंगजेब की लिगेसी तो कबकी नष्ट हो गयी.
अकबर की धारा लम्बी चली. उसने केवल अपने दोस्तों पर ही असर न डाला, बल्कि दुश्मन भी उसकी नीति पर चले. वो हकीम खां सूर के बूते हल्दीघाटी लड़ने वाले राणा प्रताप हो या मुगलों को गहरी चोट देने वाले शिवाजी. जिनकी नेवी, फौज, तोपची, और खुद की सुरक्षा तक मुसलमानों के हाथों थी. क्या कहें कि शिवाजी के पिता दो भाई थे- शाहजी और शरीफजी इसलिए कि वे सूफी संत शाहशरीफ के आशीर्वाद से जन्मे थे !
पुरन्दर की संधि. 11 जून 1665 को शिवाजी ने मुगलों के सामने समर्पण किया. इसके तहत अपने 23 किले मुगल साम्राज्य को सौंपे थे. बेटे शंभाजी को मुगलों के अधीन कर 5,000 सैनिकों की कमान सौंपी थी. भविष्य में ज़रूरत पड़ने पर मुगलों की मदद का वचन दिया. खुद शिवाजी को मात्र 12 किले रखने की इजाजत मिली. इस प्रकार मुगल-शिवाजी सन्धि सम्पन्न हुई.
मजे की बात, मुगलों की तरफ से लड़ने औरंगजेब नहीं आया. तस्वीर में सन्धि के समय मुगल पक्ष से लोकप्रिय यशस्वी शासक मिर्जा राजा जयसिंह हैं. मिर्जा की उपाधि उन्हें औरंगजेब ने दी थी. उन्हें मिर्जा कहना, अपने आपमें एक बहुत बड़ा सम्मान और ओहदा था. जयसिंह एक प्रतापी और वीर सेनानायक थे.
उधर शिवाजी के तरफ से लड़ने वाले उनके बॉडीगार्ड सिद्धि हिलाल, नेवी हेड दौलत खान, कमांडर नूर खान, तोपची इब्राहिम खान, कैवेलरी हेड शमा खान वगैरह लड़े. यह मिली जुली तहजीब 1857 तक अजस्र बहती है. फिर अंग्रेज हमें दो धड़ों को बांटकर, राज करने की योजना बनाते हैं. पहले दिल बंटता है, फिर देश…
हम सबक सीखते हैं तो फिर से स्वर्णयुग आता है. 60 सालों का शन्तिकाल. राख से यह देश खड़ा होता है. नींव बनती है, हम दुनिया पर छाने को तैयार हैं…कि वही दुर्भाग्य, वही बांटने और राज करने की नीति. दिल फिर बंट रहे हैं, तो देश भी बंटेगा. क्योंकि बादशाह अपनी बुलन्दी के जोश में भूल गया है- ये दुनिया एक पुल है, इसके पार जाना है. पर वो…यहां घर बनाने की कोशिश में है. बहरहाल दो हिन्दू भाई लड़ने भिड़ने के बाद अब गले मिल रहे हैं. नारा था- ‘एक है तो सेफ हैं.’
- मनीष सिंह
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