धर्म आदमी की नितांत व्यक्तिगत सोच पर विकसित विचार है. यदि प्रगतिशील विचारों से सोचें तो धर्म महज एक छलावा या भ्रमित मरीचिका का दर्शन है. फ्रांस के पेरिस कम्यून और रुस के साम्यवादी क्रांति के परिणामस्वरूप इस भाववादी विचार पर निर्मम प्रहार होने लगे और यह एक संकुचित विचार विद्वानों के बीच बना रहा. हालांकि पूंजीवाद ने धर्म को पालिस मारकर चमका कर फिर से समाज में स्थापित जरूर कर दिया, पर आज के विज्ञान ने धर्म की बखिया उधेड कर रख दी.
ऐसा नहीं है कि साम्यवादी विचारधारा से ही धर्म की बखिया उधडी. इससे पूर्व भी बुद्ध से लेकर अरस्तू, कनफूसियस और कबीर ने बखूबी धर्म की निर्मम आलोचना की है. वैज्ञानिक सोच रखने वाले गैलिलियो से लेकर ब्रूनो, परियार आदि-आदि लोगों को दुनिया भर में धर्म की आलोचना करने पर बहुत सताया भी जाता रहा है, लेकिन इसमें साहित्य की बहुत बड़ी भूमिका भी रही है.
जहांं भारत की आज़ादी के समय तमाम प्रगतिशील साहित्यकार पैदा हुए, वहीं पुनर्जागरण काल में अनेक साहित्यकारों ने धर्म की नैतिकता को तार-तार कर मानवीय गुणों से रचित यथार्थवादी नैतिकता को स्थापित किया, उसमें भारत की आजादी के समय एक नक्षत्र की तरह महाकवि मुक्तिबोध को सदा याद किया जाता रहेगा.
आज मुक्तिबोध को याद करने की प्रासंगिक क्षण यह है कि एक शायर जिस पर प्रगतिशील होने का तमगा लगाया जाता रहा है, वह हाल ही में फ्रांस में हुए घटनाक्रम पर इतना विचलित हो गया कि ईशनिंदा के विरोध में की गई हत्या को जायज ठहरा रहा है. नाम है मुन्नवर राणा.
हालांकि मै पहले से ही मुन्नवर राणा या राहत इंदौरी या हरिओम पवार या कुकवि कुमार विश्वास को कभी भी कवि मानता ही नहीं हूंं, भले इनके स्तर तक मैं सौ सालों में भी नहीं पहुंच सकता. पूंजीवादी बाजारवाद के भांड अपनी लच्छेदार कविता और तीखे मसालेदार कविता के द्वारा करोड़ों के चेहते बन गए हों, पर ये भांड कवि दलाली से अधिक कुछ भी नहीं रच सकते.
जो अटल बिहारी वाजपेयी को कवि मानकर सम्मान देता हो, उस कवि विरादरी की बौद्धिक द्ररिद्रता पर मुझे हंसी आती है. ये इसी परम्परा के कवि हैं जिन्हें कविता से कुछ लेना-देना नहीं, बस छिछोरीगिरी करनी है. ये सत्ता के दलाल भांड तथाकथित कवि हैं और कुछ भी नहीं. कविता लिखने में भले उस्ताद होंगे पर, जिसके लिए कविता लिखी जानी चाहिए उसका क… ख… भी जिसे ज्ञात नहीं हो, वो कवि हो ही नहीं सकता.
श्रृंगार, प्रेम, वात्सल्य ,प्रकृति, प्रेम की कविता युगों से रची गई लेकिन उसके अंदर समाज को परख कर लिखने की कला का अनोखा मंत्र रहा है. उसमें भक्ति भी थी तो प्रगतिशीलता का एक पुट जरूर रहता था. लेकिन इन चारणों को सत्ता का साथ देना या उसका तथाकथित विरोध के अलावा कोई प्रगतिशीलता नहीं दिखती, जो मेरे सबसे बडे विरोध का कारण है.
खैर मुद्दे पर आते हैं. फ्रांस पर हुए घटना पर तिलमिलाए मुन्नवर राणा जैसे शायर ने प्रगतिशीलता की परम्परा को तो कलंकित कर ही दिया, साथ ही कवित्व परिभाषावली को भी लांछित कर दिया है. एक बार प्रेमचंद से कहा गया कि आप प्रगतिशील साहित्य के इस मंच पर क्या विचार रखते हैं ? तो उन्होंने कहा साहित्य तो सदा ही प्रगतिशील रहा है. उसे प्रगतिशील मंच नाम देना ही अनुचित है. कहने का मतलब ही यह है कि साहित्य सदा-सदा प्रगतिशीलता का नाम है. यदि साहित्य में नयापन नहीं है या बदलाव नहीं हो रहा तो काहे का साहित्य. ऐसे तो धार्मिक ग्रन्थों की ही रचना होगी.
मुक्तिबोध इस मिथक को तोडकर वास्तव में सबसे प्रगतिशील साहित्यकार रहे हैं. वर्ग की चेतना से परिपूर्ण मुक्तिबोध एक ऐसा नाम है जो निराला के मानवीय वेदनाओं से कोसों आगे है. महादेवी वर्मा के छायावादी कलेवर से बहुत बढकर है. दिनकर, अज्ञेय, जयशंकर प्रसाद, पंत , मैथली शरण गुप्त आदि-आदि कवियों से आगे मुक्तिबोध कविता नहीं कवियों को गढने के लिए कविता रच रहे थे. उस वंचित वर्ग के लिए कविता लिख रहे थे जो युगों से पददलित हैं. उसके दर्द को राजा रानी, प्रेमी प्रेमिका, देश प्रेम, वीररस की धमाचौकड़ी से वंचित कर दिया गया था. उसके लिए पहली बार कलम को सिद्धांत का आकार देने का किसी कवि ने काम किया तो वो मुक्तिबोध हैं.
जिसको पढकर कवि पैदा हुए, जिसने सत्ता के साथ-साथ सारी व्यवस्था की बखिया उधेड कर रख दी और व्यवस्था परिवर्तन की लडाई को एक नया मार्ग प्रशस्त किया, जिस पर चल कर आज आधुनिक युग के कवि पैदा हुए हैं, जिन्होंने मानव विकास की लडाई को अपने कंधों पर उठा कर लड़ने के लिए कलम को धार दी है, चाहे वो पाश हो या दुष्यंत कुमार या गोरख पांडे हो या गोडवानी या विद्रोही या नामवर सिंह जैसे तथाकथित प्रगतिशील कवि, सब समाज की बदलती चेतना में वंचित वर्गों की चिंता के साथ लिखते रहे हैं. उससे भी बढ़कर धर्म की धज्जियां उड़ाते हुए प्रगतिशीलता के वास्तविक अर्थ को स्थापित किया.
फैज भी अल्लाह को नहीं भूल पाए, भले कितने ही प्रगतिशील रहे हों. लेकिन महाकवि मुक्तिबोध, कभी धर्म पर ढुलमुल नहीं रहे. इस भारत के जनमानस के मन में भाववादियों द्वारा रचा दिए गए राम, जिस नाम पर सब लोटपोट हो जाते हैं, अच्छे-अच्छे प्रगतिशील भी अपने ईश्वर अल्लाह को किसी न किसी तरह कविता में ला ही देता है, मुक्तिबोध सीधे रचते हैं –
राम तुम्हें न रोटी देगा
वेद तुम्हारा काम न देगा
जो रोटी का युद्ध लडेगा
वो रोटी को आप वरेगा…
बिना किसी भय के और बिना किसी नैतिक भार के खुली चुनैती देते हुए इस देश के राम को एक तरह से खारिज करते हैं. आजतक ऐसा किसी कवि ने करने की हिम्मत नहीं दिखाई, जो सिद्धांत: ईश्वर से आगे रोटी को रखते हुए पंडों, बाह्रमणों, सामंतों को चुनौती देता हो.
ऐसे में मुन्नवर राणा क्या किसी भी प्रगतिशील कवि से सार्थक ईष निंदा की अपेक्षा कर सकते हैं ? भगवान, अल्लाह की बुराई करना बडी बात नहीं है, बडी बात यह है कि उन पुरानी वर्जनाओं को तोड़ने की साहित्यकार में क्षमता होनी ही चाहिए, यही उसका प्रथम और आंखरी मानवीय गुण है.
- डॉ. नवीन जोशी
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