इस भीड़ भरी सड़क पर प्रिये
कैसे करुं तुम्हारा आलिंगन
तुम्हें शिकायत न सही
इंतज़ार तो है
क्यों सालों बीत जाते हैं
मुझे गाये हुए वो प्रेम गीत
जो बरबस फूट पड़ता है
सालों बंद पड़ी मिल की गेट पर लगे
जंग खाये सायरन की सीटी सुनकर
किसी भूखे मज़दूर के ओठों से
या, कयी सालों से सूखा और बाढ़ झेलते
उस किसान के ओठों से
पकी हुई गेहूँ की बालियों के नृत्य देखकर
प्रेम छूता है मुझे
पानी भरे खेतों में
रोपाई के समय
मेरे आंगन में लगे फूलों के खिलने के समय
बंद पड़ी मशीनों को
चलाने के समय
प्रेम फूटता है
धान कूटने में
लोहे के गलने में
और आततायी के
मेरी बंदूक के निशाने में आने पर
बेड़ियों के टूटने पर
किले के ढहने पर
और मेरे बच्चे की थाली से
रोटी छीनकर भागने में वाले
उस बन बिलाव के मरने पर
प्रेम मेरे लिए
चांदनी रात में
कदंब पेड़ के नीचे
बांसुरी नहीं बजाता
न ही गुफाओं में छुपकर लुभाता
प्रेम सड़क पर जद्दोजहद करती हुई
आवाम के शरीर का सुगंध है
बेघरों के बुझते हुए चिराग़ों सा
घर का सपना है
चिड़ियों मेंं पेड़ की तलाश है
और मछलियों मेंं पानी की
बुनकरों के नंगे देह पर
चादर की इच्छा मेंं है
वो हर तईं कोशिश करते हैं कि
मेरी मुलाकात प्रेम से न हो
इसलिए वे मुकर्रर करते हैं
हमारी मुलाकात की जगह और समय
ठीक जिस समय और जगह
सारी रंगीन रोशनियां जल उठती हैं
नशीली, नीली वादी सी
बिछ जाती है सड़क की बिसात
वे हमें मोहरे से उतार देते हैं
रैंप पर तीखी रोशनी के नीचे
जहां मुस्कुराना एक विवशता है
लेकिन, मैं इस प्रायोजित प्रेम का हिस्सा नहीं हूं
और तुम भी नहीं
इसलिए आओ
भीड़ भरी सड़क ही सही
आज मैं गाता हूँ
प्रेम का नवगीत
करता हूँ तुम्हारा आलिंगन
ये मेघों का धरती के सूखे ओठों का चुंबन है
थोड़ी सोंदी
थोड़ा खारा
और ढेर सारा मीठा।
- सुब्रतो चटर्जी
1982 मेंं रचित.
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