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अतीत से प्रेम और ज़ंजीरों में अप्रवासी

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अतीत से प्रेम और ज़ंजीरों में अप्रवासी
अतीत से प्रेम और ज़ंजीरों में अप्रवासी

बात 1845 की है. आर्कटिक सर्कल होकर अमेरिका पहुंचने के नए रास्तों की खोज चल रही थी. तीन शिप में श्रीमान जॉन फ्रेंकलिन खोज पर निकले. ध्रुवीय रास्तों में खोजते खोजते एक जगह फंस गए, खो गए, कुछ पता न चला. कोई 150 लोग और जॉन फ्रेंकलिन मारे गए. बरसों बाद मिली लाशों के एग्जामिनेशन ने बताया कि ये लोग तुरन्त नहीं मरे. बड़ी धीमी, पेनफुल, स्लो डेथ थी. वे भूख, ठंड और विटामिन डेफिशिएंसी से मरे.

खोजी शिप, बर्फ के बीच लावारिस खड़े थे. व्हेल का शिकार करने वालों इन्हें 1855 में खोजा. वह शिप, हर मेजेस्टि शिप रिजोल्यूट (HMS रिजोल्यूट) को अमेरिकन्स ने ठीक ठाक किया, और ब्रिटेन को एक गुडविल जेस्चर के रूप में लौटा दिया. यह शिप 30 साल और चला, फिर 1880 के आसपास डी-कमीशन कर दिया गया.

शिप शानदार ओक की लकड़ी का बना हुआ था. डॉक, जहां इसे तोड़ा गया, वहां एक बढई ने ये लकड़ियां इकट्ठा की. फिर इस लकड़ी की शहतीरों को इकट्ठा कर कुछ फर्नीचर बनाया गया. हैवी डेस्क बनी. एक नही, 2..रानी साहिबा को गिफ्ट कर दिया. क्वीन विक्टोरिया ने एक डेस्क अपने बकिंघम पैलेस में रखी. दूसरी, अमेरिका के राष्ट्रपति को गिफ्ट कर दिया.

तब प्रेजिडेंट हेज, व्हाइट हाउस में थे. उन्होंने इसे ओवल ऑफिस में लगाया. HMS रिजोल्यूट से बना होने के कारण इसे रिजोल्यूट डेस्क कहते. प्रेजिडेंट हेज की डेस्क होने के कारण हेज डेस्क भी कहते हैं. फिर जब व्हाइट हाउस में रिनोवेशन हुआ, ऑफिस से डेस्क हटाकर अन्यत्र रख दी गयी. जब केनेडी ऑफिस में आये, तो उनकी पत्नी ने इस डेस्क को नोटिस किया. उसे वापस ओवल ऑफिस में रखवाया. एक बड़ी मशहूर तस्वीर है, जिसमें राष्ट्रपति काम कर रहे हैं, और उनका बेटा इस डेस्क में नीचे घुसा खेल रहा है.

अमेरिका में लोग पत्नी के साथ कैम्पेन करते हैं. परिवार का प्रदर्शन करते हैं. हमारे यहां डौकीछोडवा निस्संतान निकम्मे भगोड़ों को खुदा मानने की परंपरा है. अमेरिकी वोटर, परिवार वाले और सहृदयी लोगों को अपना नेता बनाते हैं. शायद इसलिए वे विश्वगुरु हैं. बहरहाल, ऑफिस में प्रेजिडेंट के बच्चे की खेलती हुई तस्वीर ने केनेडी के जादू में औऱ इजाफा किया. वे दोबारा जीतकर आये.

इस बार दुर्भाग्यपूर्ण एससिनेशन के शिकार हुए. उनका सामान, इस रिजोल्यूट डेस्क के साथ उनके मेमोरियल का हिस्सा बना दिया गया. लेकिन जिमी कार्टर वहां से उठाकर वापस ओवल ऑफिस ले आये. तब से वहीं है. निक्सन, रीगन, क्लिंटन, ओबामा, बुश सबने इस डेस्क पर काम किया. ये डेस्क अमेरिकन प्रेजिडेंट की शक्ति का सिम्बल है.

एक त्रासदी का सबूत, नई खोज के लिए जीवन का त्याग, एक ऐसे देश का गिफ्ट, जिससे आजाद होकर वे अलग देश बने लेकिन रिश्ते मित्रतापूर्ण बनाये. यह डेस्क जिंदा इतिहास है. इस पर बैठने वाला, अपने आप को अमेरिकन इतिहास का एक हिस्सा पाता है. गौरवान्वित होता है.

इतिहास हमारा, उनसे कहीं लम्बा है, समृद्ध है लेकिन अहसास ए कमतरी हावी है. मुगलिया, इस्लामी, हिंदुस्तानी मोन्यूमेंट से शर्म आती है. खुद के बाजूबल से कुछ हासिल न किया, तो इतिहास में गर्व खोजने की हुनक है. तो शर्म से अपनी संसद ही त्याग दी, जहां भगतसिंह ने बहरों को सुनाने के लिए धमाका किया. जहां आधी रात को हिंदुस्तान अपनी डेस्टिनी से मिला. जहां संविधान बना, जहां देश के सबसे ऊंचे प्रधानमंत्री बैठे, जहां युद्ध जीते हारे गए, जहां दुश्मन देश के दो टुकड़े करने वाली दूर्गा दहाड़ी.

वह भवन, उम्मीद करता हूं एक दिन रिजोल्यूट डेस्क की तरह वापस हमारे लोकतंत्र का केंद्रबिंदु बनेगा. हेकड़ी, छल, तानाशाही, हो हल्ले का तिकोना भवन.. हमारे लोकतांत्रिक इतिहास के दाग के सबूत के रूप में अकेला छोड़ दिया जाएगा.

टाइम ने रिजोल्यूट डेस्क पर बैठें मस्क की तस्वीर लगाई है. अमेरिका में ताबड़तोड एग्जीक्यूटिव ऑर्डर से, व्यवस्था की जड़ खोदी जा रही है. टाइम का सन्देश है कि लोकतंत्र, पर्दे के पीछे से निहित स्वार्थ के हाथों में पड़ गया है. डिक्टेटरशिप की ओर बढ़ रहे भारत में भी गद्दी पर एक धनपशु बैठा है. हमने उसे इलेक्ट नहीं किया, परन्तु सारा देश उसके धन को बढाने के लिए पेट काटकर, मेहनत कर रहा है.

दुनिया भर में लोकतंत्र कमजोर हो रहे है, धन, तकनीक, डेटा, फेक न्यूज के हथियारों से विनाशकारी, विभाजनकारी नीतियां हावी है. मुट्ठी भर लोग, दुनिया को अपने तरीके से हांकना चाहते हैं. और दुनिया अमेरिका की ओर देख रही है. वहां जनता, कैसा रिस्पांड करेगी, क्या संघर्ष होगा, क्या नतीजे होंगे. वह हमारी पीढ़ी, और मानवता की दिशा तय करेगी. और हम, तथाकथित विश्वगुरु, इस संघर्ष के मूक दर्शक होंगे. अपने देश मे बैठ, गालियां बकेंगे. समान हालात में, बस गर्व गर्व का खेल खेलेंगे.

2

मनुष्य का जन्म अफ्रीका में हुआ. और फिर बेहतर जीवन की तलाश मे वह चलता गया. कोई यूरोप पहुंचा, कोई ऑस्ट्रेलिया, और कोई अलास्का होते अमेरिकन महाद्वीपों पर पहुंचा. पर यह अकेला माइग्रेशन नहीं था. पानी, भोजन और रहने योग्य वातावरण की तलाश में मनुष्य अपनी जगह छोड़ नए शहरों में बसता गया.

उसने वीरानों में फूल खिलाए, पहाड़ों को पार किया. यह घूमना, उठना, बसना … मानवीय सभ्यता का मूल स्वरूप है. हजारो साल की ह्यूमन इंस्टिंक्ट … यह अपराध नहीं है. पर कानूनन अपराध बना, जब नेशन स्टेट बने. ये महज सौ साल पुरानी अवधारणा है. देश, राष्ट्र, सीमाऐं, नागरिकता, पासपोर्ट, वीजा …. इतिहास की किस किताब में भला ये शब्द मिलते है ??

दरअसल धर्म, जाति, भाषा, रंग के बाद नस्लभेद का नया रंग नागरिकता है. इनमें कोई भी एक प्राकृतिक नहीं, बस गढ़ी हुई धारणा है. और इस धारणा में रचा बसा है- हेकड़ी, घमण्ड
ताकत का नंगा नाच…और जमीन की भूख. यहां सब मेरा है, तू निकल जा यहां से. ये जिसकी लाठी, उसकी भैंस के कानून हैं. भला अंग्रजों को भारत में, स्पेनिश को अर्जेन्टीना में घुसने के लिए किससे वीजा लिया ??

गाजा में घुसकर वहां इजराइल बनाने वाले, किससे वीजा लेकर आए थे ?? वह तो पूरा देश ही इल्लीगल हुआ. डोनाल्ड ट्रम्प के पूर्वजों ने भी, जर्मनी से अमेरिका आकर बसने के लिए रेड इंडियन्स से वीजा नहीं मांगा था. उनके जैसे सारे गोरे, बेसिकली इमिग्रेंट है. पूरा अमरीका ही इमिग्रेंट है. किसी के भी बाप दादों ने मूल निवासियों से वीजा नहीं लिया. सब पानी के जहाज में ठुंसकर, पैदल चलकर किसी डंकी रूट से आए थे, इल्लीगल ही इमिग्रेंट हुए न ??

यह ठीक है कि कानून देश काल और वातावरण की जरूरत के अनुरूप बनते हैं. व्यवस्था सुचारू चले, इसलिए बनते हैं. मुझे भी नागरिकता, वीजा, और पासपोर्ट जैसी व्यवस्थाओं से एतराज नहीं, मगर मनुष्य द्वारा मनुष्य के अपमान से सख्त एतराज है.

दरअसल दुनिया मे दो तरह के कानून है. एक वे जो मानवीय नैतिकता के अनुरूप हैं, वे मनुष्य की गरिमा को उंचा उठाते हों. दूसरे वो जो मनुष्यता को तार-तार करें उचित कानून सिर्फ वही है जो मनुष्य की गरिमा को आदर दे. यह बात मार्टिन लूथर किंग ने कही थी.

क्योंकि कानून तो नाजियों ने भी बनाए. नरेम्बर्ग के कानून से लाखों इंसानों को अमानुष घोषित कर किया, गैस चेम्बरो में मौत के घाट उतारा. एकदम लीगली…कानून हमने भी बनाया. एनिमी प्रोपर्टी एक्ट- फिर सरकार ने अप्रवासियों के छोड़े घर मकान और दुकान कब्जा लिए.

फिर बनाया सीएए – प्रताड़ितों को कपड़ों से पहचानकर, चोर दरवाजे से नागरिकता देने का.. पांच साल पहले अवैध घुसे, लीगल. चार साल पहले घुसे, इल्लीगल. हिन्दू घुसे, लीगल, मुस्लिम घुसे- इल्लीगल. गजबे कानून है भईया…! पर अत्याचार, भेदभाव और अमानुषता को कानूनी दर्जा दे देने से वह सदाचार नहीं बनता, याद रहे.

तो यदि अमेरिका, भारत से गए अप्रवासियों को नहीं रखना चाहता, डिपोर्ट करना चाहता है… तो ठीक है. लेकिन अपमान और बेकद्री क्यों ? उससे बड़ी बात, हमारे भारत में ही, भारतीयो का इनके प्रति क्रिमिनल्स सा बर्ताव क्यों ? उन्हें क्यों नहीं गरिमा के साथ, वापस बुलाना लेना चाहिए.

दरअसल जो लोग इन वक्त और किस्मत के मारों को तुच्छता और क्रिमिनलिटी के साथ देख रहे हैं…स्वयं सबह्यूमन, पाशविक, और मोटी समझ के लोग है. आप ऐसी बातें करने वाले हर शख्स को, खुद इमिग्रेंट ही पाएंगे. कोई अन्य प्रदेश का, कोई और शहर का बाशिंदा… नौकरी, पढाई, व्यवसाय कर रहा है, और सोशल मीडिया पर अमेरिका से भेजे गए लोगों को अपराधी घोषित कर रहा है.

मेरी दिली ख्वाइश है कि इन लोगों को ईश्वर ऐसा समय जरूर दिखाए, जब बिहारी होने के कारण पूना में, उत्तर भारतीय होने के कारण बैंगलोर में और राजस्थानी होने के कारण असम में दौड़ा दौड़ा कर पीटा जाए, फिर चेन मे बांधकर, ट्रकों में भरकर डिपोर्ट किया जाए. इसलिए कि ये खुद मानते है कि मनुष्य का पेट पालने के लिए अपने घर के दूर जाना पाप है, जघन्य अपराध है.

अरे हां, अभी तक राज्यों के बीच माइग्रेशन इल्लीगल नहीं हुआ..तो हो जाएगा. बस किसी पागल नफरती नेता द्वारा.. एक कानून पास करने की देर है.

  • मनीष सिंह 

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