‘भारत सरकार एक भारी भरकम मशीन है, जो कुछ करती धरती नहीं है’ – नाक मुंह चमकाते हुए लार्ड कर्जन ने जब भारत की धरती पर पहला कदम रखे, इन शब्दों से अपना इरादा जाहिर कर दिया. अब देश में प्रशासन की सारे कील कांटे दुरुस्त होने लगे. रेलवे से लेकर टेलीग्राफ तक सब कुछ ‘एफिशिएंट’ किया जाने लगा.
बंगाल विभाजन के लिए बदनाम इस वाइसराय के 6 साल, दरअसल ब्यूरोक्रेसी को चार्जअप करने के रहे. पर कर्जन का सबसे बड़ा कर्ज तो भारत के इतिहास का संरक्षण है. जहां जो खूबसूरत था- आगरे ताजमहल हो, या सांची का स्तूप, संवारा गया. सिंधु घाटी की खुदाई हो, या अजंता एलोरा के आर्ट.. कर्जन ने बराबर ध्यान दिया.
ASI की स्थापना तो 1861 में हो गई थी. एलेग्जेंडर कनिंघम, जो जेम्स प्रिंसेप के चेले, फैन और फॉलोवर थे, ब्राह्मी लिपि पढ़ लेने के बाद भारत में मौर्य साम्राज्य की निशानदेही कर रहे थे.
ASI के पहले डायरेक्टर के तौर पर उन्होंने काफी जोर लगाया, पर खोजना, खोदना अकादमिक चीज है, संरक्षण पुनरोद्धार दूसरी. उसमें रोकड़ा लगता है. और क्रिस्चियन फेथ वालों की सरकार पेगन आर्ट और विदेशी संस्कृति के संरक्षण पर क्यों ही ध्यान देती. ASI एक रोता, बिसूरता विभाग था. कर्मचारियों और फंड की कमी से जूझता…!
कर्जन ने ऑफिस दिया, फंड दिया और उत्साह दिया. 1901 में एशियाटिक सोसायटी में भाषण देते हुए कहा कि इन मॉन्यूमेंट्स की सुरक्षा करना सरकार का प्राथमिक दायित्व है.
‘अगर कोई यह कहता है कि हम क्रिश्चियन को पेगन (प्रकृति पूजक) प्रतीकों और संस्कृति के संरक्षण से क्या लेना देना है, तो ऐसे आदमी में मैं अनंतकाल तक बहस करने को तैयार हूं…!’
और लाट साहब से बहस करे कौन ?
1902 में कैम्ब्रिज स्कॉलर और उत्साही प्राणी, जॉन मार्शल को ASI का डायरेक्टर नियुक्त किया, तो उसमें जान आ गयी. देश में तमाम इमारतों के संरक्षण का काम शुरू हुआ. कुतुब से खजुराहो तक फंड सेंक्शन हुए, स्टाफ बैठा.
मार्शल ने कैटलॉग बनाने, फोटोग्राफी, रिकार्ड रखने और रिस्टोरेशन टेक्निक पर काम किया. और पहली बार, सर जॉन मार्शल ने ही, भारतीयों को भारतीय इतिहास खोजने, खोदने के काम में शामिल किया.
कर्जन ने मार्शल को खुला हाथ दिया. इस काम की खुली प्रशंसा ने, सिटी एडमिनिस्ट्रेटर्स और जिले के अफसरों को भी प्रोत्साहित किया कि वे अपने इलाको में, लोकल फंड से भारतीय आर्कियोलॉजिकल साइट्स पर रिस्टोरेशन का काम करे.
नतीजतन, बहुत से ऐतिहासिक भवन बिना ASI के भी नवजीवन पा गए. मगर सबसे ज्यादा कर्जन का ध्यान किसी भवन ने खींचा, तो वह ताजमहल था.
यूं तो विलियम बैंटिंक ने भी इसके संरक्षण के लिए कुछ प्रयास किये थे. पर अब तक इसका गार्डन जंगल में तब्दील हो चुका था, फ़व्वारे मिट्टी में धंस चुके थे. ताजमहल को जिस स्वरूप में आप देखते हैं, उसे रिस्टोर करने का काम कर्जन का है.
जब सुंदर भवन, अपनी पूरी छटा बिखेरे, तो उसे बैठकर देखने के लिए जगह भी तो होनी चाहिए. तो जनाब, हर हिंदुस्तानी, हर विदेशी ताज के सामने जिन बेंच पर बैठकर फोटो खिंचवाते हैं, डीपी, प्रोफ़ाइल पिक बनाते हैं, वो संगमरमर की बेंच, लार्ड कर्जन की लगवाई हुई है.
इसके पीछे की कथा यह है कि 1880 में जब वे आम अफसर की तरह कुछ समय के लिए भारत आये थे, ताज को देखा था. इस भवन को देखकर वे चमत्कृत रह गए.
लेकिन वहां आसपास गंदगी, थूक, मूत्र की महक से बेहद दुःख हुआ. शायद इसी वजह से जब वे वाइसराय बनकर आये, तो उनकी अप्रतिम ऊर्जा का एक हिस्सा इंडियन आर्कियोलॉजी पर भी लगा.
ताज के लिए दीवानगी का आलम यह था कि वहां जंगल हटवाने के बाद, उनके बताए पौधों की जगह, दूसरे पौधे लगाए जाने की खबर सुनकर, कलकत्ता के अपने पैलेस में लगभग भौंकते हुए अधिकारियों को लताड़ा. उनमें से एक बुदबुदाया- ‘ये आदमी ताजमहल का पुत्र है, या उसका आशिक है ??’
बहरहाल, 6 साल कार्यकाल के बाद, ताज की छवि आंखों में बसाए कर्जन ने हिंदुस्तान से विदा ली.
देश उनसे बेतरह नफरत करता था. कर्जन ने बंगाल, जो तब बिहार, झारखंड, उड़ीसा, बंग्लादेश, असम को मिलाकर बना ब्रिटिश शासित राज्य था, उसे दो स्टेट में बांट दिया.
यह हिन्दू मुस्लिम डिवाइड था, या एफीशिएंसी फ्रीक प्रशासक का एक एडमिनिस्ट्रेटिव डिसिजन, यह तो इतिहास को देखने का अलग अलग नजरिया है. पर इसमें भी अच्छाई यह कि बंगभंग और फिर स्वदेशी आंदोलन…, भारतीय आजादी के संघर्ष का पहला मील का पत्थर हुआ.
आगे चलकर लार्ड कर्जन ऑक्सफोर्ड के चांसलर बने, विदेश मंत्री बने, हाउस ऑफ लॉर्ड्स के लीडर रहे. उन्हें मारने की कोशिश हुई, जिसमें उनका मासूम भतीजा मार डाला गया. उनके सारे इतिहासकार आज वामपन्थी करार देकर गरियाये जाते हैं. कर्जन का कर्ज उतारने का ये हमारा तरीका है.
- मनीष सिंह
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