सुब्रतो चटर्जी
जॉन ओसबोर्न ने जब यह नाटक (Look Back in Anger) 50 के दशक में लिखा था तब पश्चिम जगत की परिस्थितियां समाज में व्यक्ति के अकेले पड़ जाने की शुरुआती दौर था. व्यक्ति व्यवस्था का दास बन रहा था और अमरीकी साहित्यकार और Eugene O Neil सरीखे नाट्यकार परिस्थितियों को जीवन के नायक के रूप में पेश कर रहे थे.
एलिजाबेदन एज से लेकर बीसवीं सदी के उत्तरार्ध तक व्यक्ति के नायकत्व की जो मान्यता मिली थी, वह ध्वस्त हो चुका था. दो विश्वयुद्धों से निकला यूरोप और अमेरिका के लिए यह मानना बहुत कठिन था कि व्यक्ति अपने भाग्य के लिए ज़िम्मेदार है या अपने जीवन का चितेरा है.
व्यक्ति और समष्टि की यह लड़ाई कम्युनिस्ट आंदोलनों और क्रांतियों के मध्य में भी रहा. कुल मिलाकर हालात ऐसे थे कि ये तय कर पाना मुश्किल था कि लेनिन क्रांति की उपज हैं या क्रांति लेनिन के विशाल व्यक्तित्व का प्रतिस्फलन. कुछ ऐसी ही परिस्थिति पश्चिमी जगत में भी थी. युद्ध से अपंग या विकलांग हो कर लौटते लोग अपने अक्षुण्ण काया के अपभ्रंश मात्र दिखते. जब वे अपने ही साए को देखते तो सोचते कि कुछ कमी रह गई है मुझमें, अक्स अधूरा नहीं होता.
बाज़ार की शक्तियों के सामने व्यक्ति सरेंडर कर चुका था. दिहाड़ी से ले कर पत्नी और बच्चों के वर्तमान और भविष्य, खुद अपनी चाहतें और ज़रूरतें, सब कुछ एक अदृश्य शक्ति के द्वारा संचालित हो रहा था; और यह शक्ति ईश्वरीय तो बिल्कुल नहीं थी.
ऐसे माहौल में यह नाटक व्यक्ति की परिस्थितियों पर विजय पाने की अदम्य इच्छा का ही उद्गार है. एक ऐसे व्यक्ति की कल्पना जो व्यक्तिगत जीवन में अपने शत्रुओं को पहचानता है और उनका ख़ात्मा कर अपने आप के साथ न्याय करता है. इस वैचारिक धरातल पर परिस्थितियों की भूमिका को गौण कर दिया गया है. नायक यह भूल जाता है कि उसके दुश्मन भी उसी व्यवस्था के प्रोडक्ट हैं, जिस व्यवस्था का वह खुद शिकार है.
Angry young man उभरता है और किसी tragic hero की तरह रंगमंच पर थोड़ी देर के लिए ऊधम मचा कर नेपथ्य में चला जाता है, actor….. who struts and frets upon the stage, and then is heard no more… बक़ौल शेक्सपीयर.
यह चरित्र समाज निरपेक्ष है. यह चरित्र आत्मकेंद्रित है और किसी भी क्षण असामाजिक तत्व बनने को तैयार है. यह चरित्र बदला लेने में विश्वास रखता है, बदल देने में नहीं, इसलिए प्रति क्रांतिकारी है, क्रांतिकारी नहीं. ऐसे चरित्रों की बहुतायत समाज को लुंपेन की अच्छी फसल देता है.
हमारे देश में, ख़ास कर हिंदी फ़िल्मों में विजय इसी चरित्र की पुनरावृत्ति है. बदला, हिंसा, इमोशनल पूंजी के दम पर यह चरित्र लोगों के दिलोदिमाग़ पर छापा रहा, क़रीब तीन दशकों तक महानायक की कृपा से. इसी दौरान मंडल कमंडल की लड़ाई, सांप्रदायिक दंगे, गहराते आर्थिक संकट, जातिवादी स्थानीय राजनितीक दलों का उदय, परीक्षा से ले कर नौकरी पाने तक में कदाचार और भ्रष्टाचार, अपराधियों का राजनीतिकरण, भाषाई और क्षेत्रीय लड़ाई और नैतिक दिवालियेपन का एक ऐसा दौर चला, जिसमें हमने अपनी आज़ादी की उपलब्धियों को बिसरा दिया.
यह व्यक्तिवाद की पुनर्स्थापना का दौर था. वैसे तो who after Nehru का सवाल शुरू से ही था, लेकिन नेहरू के विशाल व्यक्तित्व को देखते हुए यह अकारण नहीं था. नेहरू सिर्फ़ एक व्यक्ति नहीं थे, वे अपने आप में एक संस्था थे, जिन्होंने आधुनिक भारत की आधारशिला रखी.
नब्बे के दशक से शुरू हुए व्यक्तिवाद में जघन्यतम अपराधियों के लिए जो सम्मानबोध दिखता है, वह नेहरू, गांधी, सुभाष के जमाने के व्यक्तिवाद से बिल्कुल अलग है. इस नये दौर के व्यक्तिवाद का नायक कोई जनसंहार करने वाला भी हो सकता है और कोई तड़ीपार भी. इस दौर में राम भी सांप्रदायिक हिंसा का सूत्रपात कर सकते हैं और बलात्कारी हत्यारों का भी फूल माला से स्वागत हो सकता है.
इस व्यक्ति पूजा के दौर में एक भिखारी लोगों का देश इस बात पर गर्व कर सकता है कि इनके बीच के दो बेईमान धंधेबाज़ दुनिया के सबसे अमीर लोगों की सूची में है. इस दौर में एक बहुत बड़ी जनसंख्या किसी क्रिमिनल मसखरा को अपनी जान की क़ीमत पर भी अपना नायक मान सकता है. यानि नायक पूजा के मौजूदा दौर में नायक बनने की बस एक ही शर्त है कि आप कितने गिरे हुए हैं, नैतिक और हर मामले में.
कभी सोचा है कि हम इस दौर में कैसे पहुंचे ? वे कौन-सी परिस्थितियां थी जिसमें ऐसा समाज व राष्ट्र बनाया ? कभी सोचा है कि व्यक्तिवाद का दंभ भरने वाले भी कुछ परिस्थितियों के बस ग़ुलाम ही होते हैं ? आज जो पूछते हैं कि मोदी नहीं तो कौन, वे उस व्यक्तिवाद का शिकार हैं, जो लोकतंत्र की मूल अवधारणा के ही ख़िलाफ़ है. ख़ैर, ये दिन भी गुज़र जाएंगे, लेकिन अपने पीछे तबाही का वो मंजर छोड़ जाएंगे कि सदियों तक हमें अफ़सोस रहेगा कि हम इस भयानक दौर के मूक साक्षी रहे.
लोकतंत्र, नागरिक अधिकार, सब कुछ ख़तरे में है. देश एक क्रिमिनल गिरोह के हाथों करोड़ों लुंपेन समर्थकों के सहयोग से गिरवी पड़ा है. इन बदला लेने वालों के ख़िलाफ़ लड़ना ही होगा, वर्ना संपूर्ण विनाश तय है.
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