हिमांशु कुमार, प्रख्यात गांधीवादी सामाजिक कार्यकर्त्ता
हमारी एक परिचित महिला हैं. बड़ी जाति की हैं. अमीर हैं. एक गांधीवादी संस्था की प्रमुख हैं. उन्होंने बताया कि ‘उन्हें बड़ी समस्या हो रही है.’ मैंने पूछा, ‘क्या समस्या है ?’ तो वो बोलीं कि ‘मैं शुरू से ही सुबह-सुबह गांधी समाधी राजघाट घूमने जाती हूंं लेकिन कुछ सालों से वहांं मुसलमान बड़ी संख्या में आने लगे हैं.’
मुझे यह सुन कर हंसी आई. मैंने पूछा कि ‘क्या वे आपको कुछ परेशान करते हैं ?’ उन्होंने कहा, ‘नहीं परेशान तो नहीं करते लेकिन चारों तरफ उन्हें घुमते देख कर बड़ी परेशानी होती है.’ यह परेशानी बहुत सारे हिन्दुओं की है.
मैं मुज़फ्फरनगर बहुत वर्षों के बाद गया. सुबह-सुबह कम्पनीबाग़ गया तो मैंने बाग़ में बहुत सारे दाढ़ी वाले मर्दों और हिज़ाब वाली महिलाओं को घुमते हुए पाया. मैं मुज़फ्फरनगर का ही रहने वाला हूंं. जब मैं बच्चा था तब इतने मुसलमान कम्पनीबाग़ में घूमने नहीं आते थे.
मैं सोचने लगा कि इसकी क्या वजह हो सकती है ?
असल में हुआ यह है कि बस्तियों में रहने वाले आम मुसलमान पहले ज़्यादातर गरीब थे. इसका ऐतिहासिक कारण यह है कि भारत के दलित ही समानता की तलाश में मुसलमान बने थे. भारत में धर्म और राज्यसत्ता की मदद से सवर्ण जातियों ने दलितों को भी गरीब रखा था. तो जो दलित मुसलमान बने, वे मुसलमान बनने के बाद भी गरीब ही रहे. लेकिन आज़ादी के बाद हालत बदलने लगी. धीरे-धीरे दलित, आदिवासी और मुसलमान पढने-लिखने लगे. तो पहले जो गरीब मुसलमान सुबह होते ही मजदूरी करने निकल जाता था अब वह नौकरी और बिजनेस में है और सुबह उठ कर कम्पनीबाग़ और राजघाट की मार्निंग वाक पर जाने लगा है. इससे सवर्ण हिन्दुओं को बड़ी परेशानी है.
सवर्ण हिन्दुओं को सार्वजनिक जगहों पर सिर्फ मुसलमानों के दिखाई देने भर से ही परेशानी नहीं है बल्कि जिस सार्वजनिक जगह पर सिर्फ सवर्ण अमीर हिन्दू काबिज़ थे, उस जगह को अब दलितों, आदिवासियों और गरीबों के भर जाने से भी है. इसे पब्लिक स्पेस कहते हैं.
यह पब्लिक स्पेस स्कूल, कालेज, सिनेमा हॉल, पार्क, सड़कें, फेसबुक को कहते हैं. पहले इन जगहों पर सवर्ण अमीर हिन्दुओं का कब्ज़ा था लेकिन अब इन जगहों पर दाढ़ीवालों, हिजाबवालियों, काले रंग के आदिवासियों, दलितों और गरीबों की दखल बढ़ती जा रही है. इससे उत्तर भारतीय गोरे आर्यवंशी सवर्ण हिन्दुओं को बहुत चिढ़ मची हुई है. लेकिन इसके लिए सिर्फ सवर्ण हिन्दू ही दोषी नहीं हैं.
अमेरिका में कालों को देख कर गोरों को भी यही परेशानी होती है. यह एक इंसानी कमज़ोरी है. लोकतंत्र इसी बीमारी का इलाज है और संविधान इसी इंसानी बीमारी का इलाज करने के लिए लिखा गया डाक्टरी नुस्खा है क्योंकि संविधान काले को गोरे के बराबर, ब्राह्मण को दलित के बराबर, हिन्दू को मुसलमान के बराबर बताता है.
अमेरिका में काले पहले गोरों के दास थे लेकिन जब अमेरिका में दास प्रथा के मुद्दे पर गृहयुद्ध हुआ और दास प्रथा के विरोधी अब्राहम लिंकन राष्ट्रपति बने. अब्राहम लिंकन को गोली मार दी गई लेकिन दास प्रथा समाप्त हो गई. लेकिन जो काले कभी अफ्रीका से गोरों के खेतों में मजदूरी करने के लिए लाये गये थे, वे शहरों में आकर नई बनी फैक्ट्रियों में मजदूर बनने लगे लेकिन अमेरिका के गोरों ने काले नागरिकों के साथ भेदभाव करना बंद नहीं किया.
इसके विरोध में मार्टिन लूथर किंग की अगुआई में 1955 में सिविल राइट्स आन्दोलन शुरू हुआ, जो काले और गोरों के बीच समानता के लिए था. अंत में मार्टिन लूथर किंग को भी गोली मार दी गई. भारत में भी एक ब्राह्मण सवर्ण हिन्दू ने गांधी को गोली मार दी. लोहिया का कहना था कि गांधी की हत्या सिर्फ इसलिए नहीं हुई क्योंकि वह मुसलमानों की तरफदारी करते थे बल्कि इसलिए हुई क्योंकि वह जाति प्रथा के विरुद्ध भी काम कर रहे थे.
भारत में आज़ादी के बाद लोकतंत्र को आम लोगों की ज़िन्दगी और सोच का हिस्सा बनाने के लिए काम किये जाने की ज़रूरत थी और लोकतंत्र का मतलब है बराबरी. लेकिन भारत में तो धर्म और जाति लगातार असमानता सिखाता है –
भारत में मर्द औरत से बड़ा है.
ब्राह्मण शूद्र से ऊपर है.
क्षत्रिय बनिए से ऊपर है.
बनिया शूद्र से ऊपर है.
शूद्र में भी अहीर जाटव से ऊपर है.
जाटव बाल्मीकी से ऊपर है.
बाल्मीकी धोबी से ऊपर है.
धोबी नाई से ऊपर है.
भारत की जाति व्यवस्था सीढ़ीदार है. इसमें सब खुद को किसी ना किसी से ऊपर समझते हैं. इसे ही ब्राह्मणवाद कहते हैं क्योंकि यह व्यवस्था ब्राह्मणों ने बनाई. इसे ही मनुवाद कहते हैं क्योंकि यह ऋग्वेद के बाद मनुस्मृति से दृढ़ की गई. तो आज़ादी के बाद जाति और मज़हब का भेद मिटाना ही लोकतंत्र को बचाने का एक मात्र रास्ता है
लेकिन बड़ी जातियों के अमीर मर्दों का बनाया गया संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ तो पिछले 90 साल से इस बात में जुटा हुआ है कि कैसे लोकतंत्र को खत्म किया जाय और भारत की सत्ता और पैसे पर पुराने ज़माने की तरह हमेशा ही सवर्ण अमीर मर्दों का कब्ज़ा बना रहे. इसीलिए संघ हमेशा बराबरी की बात करने वालों को या तो गोली मार देता है या उन्हें देशद्रोही कम्युनिस्ट कह कर उनका विरोध करता है.
यही कारण है कि कलबुर्गी, दाभोलकर, गौरी लंकेश, पनसरे, गांधी जैसे सत्य और न्याय की बात करने वाले लोगों को संघ और उससे जुड़े हिन्दुत्ववादी संगठनों के आतंकवादियों ने मार डाला. अब सवाल मुसलमानों की या दलितों की चिंता करने का नहीं है. सवाल तो लोकतंत्र की चिंता करने का है.
क्या हम बराबरी और सामाजिक आर्थिक और राजनैतिक न्याय को अपनी सोच में शामिल करेंगे या मेरी जात सबसे बड़ी, मेरा धर्म सबसे अच्छा ही कहते रहेंगे. अगर हमने अपनी सोच नहीं बदली तो भारत लोकतंत्र से हाथ धो बैठेगा.
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