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लेव तोलस्तोय : रूसी क्रांति के दर्पण के रूप में – व्ला. इ. लेनिन

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रुसी क्रांति के जनक व्लादिमीर इ. लेनिन ने लेव टॉल्सटॉय पर अपनी सम्मति देकर लेव को क्रांतिकारियों के बीच अन्तर्राष्ट्रीय पटल पर स्थापित कर दिया. जबकि वहीं प्रेमचंद व अन्य साहित्यिक व्यक्तित्व को लेकर आज भी देश के बुद्धिजीवियों, क्रांतिकारियों के बीच दोलायमान बहस जारी है. यही कारण है कि भारत के कम्युनिस्ट क्रांतिकारियों के प्रमुख पार्टी सीपीआई (माओवादी) को भारत के प्रमुख जनवादी साहित्यकारों पर अपना आलोचनात्मक पक्ष अवश्य रखना चाहिए ताकि आम जनता के बीच उनके बारे में एक स्पष्ट मत स्थापित हो सके. यहां हम लेव टॉलस्टॉय पर लेनिन के इस महत्वपूर्ण मूल्यांकन को हम अपने पाठकों के सामने प्रस्तुत कर रहे हैं. – सं.
लेव तोलस्तोय : रूसी क्रांति के दर्पण के रूप में - व्ला. इ. लेनिन
लेव तोलस्तोय : रूसी क्रांति के दर्पण के रूप में – व्ला. इ. लेनिन
व्लादिमीर इल्यीच लेनिन

महान लेखक को क्रांति के साथ, जिसे समझने में वह स्पष्टतया विफल रहे हैं और जिससे वह स्पष्टतया अलग-थलग खड़े रहे हैं, जोड़ना पहली नज़र में विचित्र तथा कृत्रिम प्रतीत हो सकता है. जो कोई विषय-वस्तुओं को सही ढंग से प्रतिबिंबित न करे उसे दर्पण कहा ही कैसे जा सकता है ? परंतु हमारी क्रांति बहुत ही जटिल वस्तु है. उस विशाल जनसमुदाय के बीच, जो प्रत्यक्षतया उसे संपन्न कर रहा और उसमें भाग ले रहा है, कई सामाजिक तत्व ऐसे हैं, जो तोलस्तोय की तरह स्पष्टतया यह नहीं समझ पाये हैं कि क्या घटित हो रहा है और जो तोलस्तोय की तरह उन वास्तविक ऐतिहासिक कार्यों से विमुख हो रहे हैं, जिन्हें घटना-प्रवाह ने उनके समक्ष खड़ा कर दिया है. और यदि हमारे सामने वास्तव में कोई महान कलाकार है, तो उसे कम से कम क्रांति के कुछ मूल पहलुओं को अवश्य ही अपनी क्षतियों में प्रतिबिंबित करना चाहिए था.

रूसी क्रांति के स्वरूप तथा उसकी प्रेरक शक्तियों के दृष्टिकोण से तोलस्तोय की कृतियों का विश्लेषण करने में क़ानूनी तौर पर छपनेवाली रूसी पत्र-पत्रिकाओं की ज़रा भी दिलचस्पी नहीं है, हालांकि तोलस्तोय के 80वें जन्म-दिवस के अवसर पर इन पत्र-पत्रिकाओं के पन्ने लेखों, चिट्टियों तथा टीका-टिप्पणियों से रंगे पड़े हैं. यह समूचा प्रेस मतली लानेवाले पाखंड से भरा पड़ा है, यह पाखंड दुहरी क़िस्म का है-सरकारी तथा उदारतावादी. पहला है उन भाड़े के टट्दुओं का पाखंड, जिन्हें कल तक लेव तोलस्तोय का पीछा करने का आदेश मिला रहता था और आज यह दिखाने का कि तोलस्तोय देशभक्त हैं तथा यूरोप के सामने शालीनता निभाने का आदेश मिला हुआ है.

इस तरह के भाड़े के टट्टुओं को उनके लंबे व्याख्यान देने के लिए पैसा दिया जाता है, यह बात सर्वविदित है और वे किसी की आंखों में धूल नहीं झोंक सकते. कहीं अधिक परिप्कृत और इसलिए कहीं अधिक घातक तथा खतरनाक चीज है उदारतावादी पाखंड. ‘रेच[1] अखबार के वौडेट बालालाइकिनों[2] की बातें सुनने पर कोई यह सोचने लगेगा कि तोलस्तोय के प्रति उनकी सहानुभूतिपूर्ण तथा उत्कट प्रकार की है. परंतु वास्तविकता यह है कि ‘ईश्वर के महान अन्वेषक’ के विषय में उनके सोचे-समझे उद्गार तथा आडंबरपूर्ण फ़िकरे शुरू से लेकर आख़िर तक झूठ हैं, क्योंकि कोई भी रूसी उदारतावादी न तो तोलस्तोय के ईश्वर में विश्वास करता है और न विद्यमान सामाजिक व्यवस्था की तोलस्तोय की आलोचना से सहानुभूति रखता है. वह इस लोकप्रिय नाम से अपने को जोड़ता है, ताकि वह अपनी राजनीतिक पूंजी बढ़ा सके, ताकि राष्ट्रव्यापी विपक्ष का नेता होने का ढोंग रच सके; वह गरजते फ़िकरों की मदद से इस प्रश्न के सीधे तथा साफ़ उत्तर की मांग को दबा देना चाहता है: ‘तोलस्तोयवाद’ के तीव्र विरोधाभासों के कारण क्‍या हैं और वे हमारी क्रांति की किन त्रुटियों तथा कमज़ोरियों को अभिव्यक्त करते हैं ?

तोलस्तोय की कृतियों, विचारों, सिद्धांतों में, उनके पंथ में विरोधाभास वस्तुतः तीव्र हैं. एक ओर हमारे सामने एक महान कलाकार है, जिसने रूसी जीवन के अतुलनीय चित्र ही नहीं खींचे हैं, अपितु विश्व साहित्य में प्रथम कोटि का योगदान भी किया है. दूसरी ओर हमारे सामने एक ऐसा जागीरदार है, जिसके दिमाग़ पर पागल फ़कीरों की तरह सदा ईसा सवार रहता है. एक ओर सामाजिक झूठ तथा पाखंड का उल्लेखनीय रूप से सशक्त, सुस्पष्ट तथा सच्चा विरोध है और दूसरी ओर ‘तोलस्तोयवादी’, याने क्लांत, हिस्टीरियाग्रस्त संकल्पहीन व्यक्ति है, जिसका नाम रूसी बुद्धिजीवी है, वह खुलेआम छाती पीटता तथा विलाप करता है: ‘मैं बुरा, पापी आदमी हुं, परंतु मैं नैतिक आत्मोत्कर्ष के लिए अभ्यास कर रहा हूं; मैं अब मांस का सेवन नहीं करता, मैं अब चावल के कटलेट खाता हूं.’ एक ओर पूंजीवादी शोषण की निर्मम आलोचना, सरकारी जुल्मों, ढोंगी अदालतों तथा राज्य-प्रशासन का पर्दाफ़ाश और दौलत की बढ़ोतरी तथा सम्यता की उपलब्धियों और मेहनतकश जनसाधारण की बढ़ती ग़रीबी, बहशीपन तथा दीनावस्था के बीच गहन विरोधाभासों का अनावरण. दूसरी ओर इस बात की अहमक़ाना वकालत कि हिंसा से ‘बुराई का प्रतिरोध मत करों.’ एक ओर सर्वाधिक संजीदा य्रथार्थवाद है, हर किस्म के मुखौटों का हटाया जाना है; दूसरी ओर पृथ्वी पर सबसे घिनौनी वस्तुओं में से एक की, याने धर्म की वकालत है, सरकारी तौर पर नियुक्त पादरियों की जगह ऐसे पादरी रखने का प्रयास है, जो नैतिक आस्थाओं के बल पर सेवा करेंगे, याने सबसे परिष्कृत और इसलिए खास तौर पर घृणास्पद पुरोहितवाद का संवर्द्धन है. कवि ने ठीक ही कहा है:

इतनी समृद्धिमयी
तुम, पर दीन-हीन हो,
जीवन औ’ शक्तिमयी
आज प्राणक्षीणा हो,
रूस जननी … रूस जननी ![3]

यह बताने की कोई ख़ास आवश्यकता नहीं है कि तोलस्तोय इन विरोधाभासों के कारण न तो मज़दूर आंदोलन को तथा समाजवाद के लिए संघर्ष में उसकी भूमिका को समझ पाये और न रुसी क्रांति को. परंतु तोलस्तोय के विचारों तथा सिद्धांतों में विरोधाभास संयोग की बात नहीं है; वे तो 19वीं शताब्दी के अंतिम तिहाई भाग में रूसी जीवन की विरोधाभासपूर्ण परिस्थितियों को व्यक्त करते हैं. पिछड़े हुए देहात को, जो कुछ ही समय पहले भूदास-प्रथा से मुक्त हुआ[4], मूंडने और लूटने-खसोटने के लिए अक्षरश: पूंजीपति तथा टैक्स जमा करनेवाले के हवाले कर दिया गया. कृषिप्रधान अर्थव्यवस्था तथा किसानी जीवन की पुरानी आधारशिलाएं, वे आधारशिलाएं, जो वस्तुतः सदियों तक टिकी रहीं, असाधारण द्र॒त गति से एक ही झटके में चकनाचूर कर दी गयीं. और तोलस्तोय के बिचारों के विरोधाभास का मूल्यांकन आज के मज़दूर आंदोलन तथा आज के समाजवाद के दृष्टिकोण से नहीं (ऐसे मूल्यांकन की निस्संदेह आवश्यकता है, परंतु वह पर्याप्त नहीं है), वरन आगे बढ़ रहे पूंजीवाद के खिलाफ़, जनसाधारण को तबाह किये जाने तथा अपनी ज़मीन से वंचित किये जाने के ख़िलाफ़ उस विरोध के दृष्टिकोण से किया जाना चाहिए, जिसे पिछड़े हुए देहात से पैदा होना ही था. तोलस्तोय ऐसे पैगम्बर के रूप में, जिसने मानवजाति के बचाव के लिए नयी नीम-हकीमी दवाएं ढूंढ़ी हैं, उपहासास्पद हैं-और इसलिए वे विदेशी तथा रूसी ‘तोलस्तोयवादी’ दयनीय हैं, जिन्होंने उनके सिद्धांत के सबसे कमज़ोर पहलू को जड़सूत्र में बदलने का प्रयास किया है. तोलस्तोय उन विचारों तथा भावनाओं के प्रवक्‍ता के रूप में महान हैं, जो रूस में बुर्जुआ क्रांति के समीप आने के समय तक करोड़ों रूसी किसानों में फैली हुई थी. तोलस्तोय मौलिक विचारोंवाले व्यक्ति हैं, क्योंकि समग्र रूप में देखे जाने पर उनके विचारों का कुल योग कृषक बुर्जुआ क्रांति के रूप में हमारी क्रांति के विशिष्ट लक्षणों को अभिव्यक्त करता है. इस दृष्टिकोण से तोलस्तोय के विचारों में विरोधाभास वस्तुतः उन विरोधाभासपूर्ण परिस्थितियों का दर्पण है, जिनमें किसान समुदाय को हमारी क्रांति में अपनी ऐतिहासिक भूमिका अदा करनी पड़ी थी. एक ओर शताब्दियों के सामंती उत्पीड़न तथा दशकों की त्वरित सुधारोत्तर तबाही ने घृणा, आक्रोश तथा निराशोन्मत्त दृढ़संकल्प का अंबार खड़ा कर दिया था. सरकारी चर्च, जागीरदारों तथा जागीरदाराना सरकार का पूरी तरह सफ़ाया करने, भूस्वामित्व के तमाम पुराने रूपों तथा तरीक़ों को नष्ट करने, ज़मीन साफ़ करने, पुलिस तथा वर्ग राज्य के स्थान पर स्वतंत्र तथा समान अधिकारप्राप्त छोटे किसानों के समुदाय की प्रतिष्ठापना करने की कामना – यह कामना उस प्रत्येक ऐतिहासिक पग का मुख्य स्वर है, जो किसान समुदाय ने हमारी क्रांति में उठाया है; और निस्संदेह तोलस्तोय के लेखन का विचारधारात्मक सार अमूर्त ‘मसीही अराजकताबाद’ की -जैसा कि उनके विचारों की ‘पद्धति’ का कभी-कभी मूल्यांकन किया जाता है-तुलना में इस कृषक कामना के कहीं अधिक अनुरूप है.

दूसरी ओर नये सामाजिक संबंधों की दिशा में यत्नशगील किसान समुदाय का इस बारे में बहुत ही अपक्व, पिछड़ा हुआ, अहमक़ाना विचार था कि ये किस किस्म के संबंध होने चाहिए, किस प्रकार के संघर्ष से अपने लिए स्वतंत्रता हासिल करने की ज़रूरत है, इस संघर्ष में उसके पास कैसे नेता हो सकते हैं, कृषक क्रांति के हितों के प्रति बुर्जआ वर्ग तथा बुर्जुआ बुद्धिजीवी समुदाय का क्या रुख है, जागीरदारी मिटा सकने के लिए ज़ारशाही शासन का बलपूर्वक तख़्ता उलटने की क्यों ज़रूरत है, किसान समुदाय के पिछले सारे जीवन ने उसे ज़मींदार तथा हाकिम से नफ़रत करना सिखाया था, परंतु उसने उसे यह नहीं सिखाया तथा न वह यह सिखा ही सकता था कि वह इन तमाम प्रश्नों के उत्तर की तलाश कहां करे. हमारी क्रांति में किसान समुदाय का एक छोटा-सा हिस्सा सचमुच लड़ने के लिए कुछ हद तक संगठित हुआ था; और एक बहुत ही छोटा हिस्सा अपने दुश्मनों का सफ़ाया करने, ज़ार के चाकरों तथा जागीरदारों के रक्षकों को ठिकाने लगाने के लिए अवश्य हथियार उठाकर खड़ा हुआ था. अधिकांश किसान समुदाय रोता-गिड़गिड़ाता, प्रार्थना करता, उपदेश देता, स्वप्न देखता, अर्जियां लिखता तथा ‘वकील’ भेजता-बिलकुल लेव तोलस्तोय के अंदाज़ में ! और जैसा कि ऐसे मामलों में सदा होता आया है, राजनीति से इस तोलस्तोयवादी विरति का, राजनीति के इस तोलस्तोयवादी परित्याग का, राजनीति में दिलचस्पी तथा उसके बारे में समझदारी के इस अभाव का प्रभाव यह था कि केवल एक अल्पसंख्या ने ही वर्ग-चेतन क्रांतिकारी सर्वहारा वर्ग का अनुसरण किया, जबकि बहुसंख्या उन सिद्धांतहीन, दासवृत्तिवाले बुर्जुआ बुद्धिजीवियों का शिकार बनी रही, जो कैडेटों का नाम अपनाते हुए त्रुदोवीकों की सभा छोड़कर स्तोलीपिन के उपकक्ष में जा पहुंचते, अनुनय-विनय करते, मोल-तोल करते, मेल-मिलाप करते, मेल-मिलाप का वचन देते – जब तक उन्हें फ़ौजी बूटों से लात मारकर बाहर नहीं निकाल दिया जाता था. तोलस्तोय के विचार हमारे किसान विद्रोह की कमजोरी तथा ख़ामियों का दर्पण, पिछड़े हुए देहात के ढीलेपन का, और ‘मितव्ययी किसान’ की रग-रग में भरी कायरता का प्रतिबिंब हैं.

1905-1906 में सैनिकों के विद्रोहों को ही ले लें. सामाजिक गठन की दृष्टि से ये लोग, जो हमारी क्रांति में लड़े, अंशत: किसान और अंशतः सर्वहारा थे. सर्वहारा लोग अल्पसंख्या में थे; इसलिए सेनाओं में आंदोलन लगभग वैसी राष्ट्रव्यापी एकजुटता तक, वैसी पार्टी चेतना तक नहीं प्रदर्शित करता, जिसका परिचय सर्वहारा वर्ग ने दिया था, जो मानो इशारा पाते ही सामाजिक-जनवादी बन गया. फिर भी इससे ज़्यादा ग़लत विचार और कोई नहीं है कि सशस्त्र सेनाओं में विद्रोह इसलिए विफल रहे कि किसी अफ़सर ने उनका नेतृत्व नहीं किया था. इसके विपरीत ‘नरोदूनाया वोल्या'[5] के ज़माने से क्रांति ने जो जबर्दस्त प्रगति की, उसे ठीक इस तथ्य ने दर्शाया कि ‘भूरा झुंड’ हथियार लेकर अपने वरिष्ठों के खिलाफ़ उठ खड़ा हुआ था और उसकी यही आत्म-निर्भरता थी, जिसने उदारतावादी जागीरदारों तथा उदारतावादी अफ़सरों को इतना भयभीत कर दिया था. आम सैनिक की किसानों के ध्येय से पूरी-पूरी सहानुभूति थी; जमीन की चर्चा से ही उसकी आंखों में चमक आ जाती थी. ऐसे एकाधिक उदाहरण थे, जब सशस्त्र सेनाओं में सत्ता साधारण सैनिकवृंद के हाथों में पहुंच गयी थी, परंतु उसका कोई संकल्पपूर्ण उपयोग नहीं किया गया था; सैनिक डगमगाने लगे; कुछ दिनों के बाद और चंद मामलों में तो कुछ घंटों के बाद ही उन्होंने किसी घृणास्पद अफ़सर की हत्या करके दूसरों को रिहा कर दिया, जिन्हें गिरफ्तार कर लिया गया था, अधिकारियों से संधि वार्ता की और फिर गोली से उड़ा देनेवाले दस्ते के सामने अपने को खड़ा कर दिया अथवा बेंत सहने के लिए अपनी पीठ नंगी कर दी या फिर जुआ अपने कंधे पर रख लिया- बिलकुल लेव तोलस्तोय के अंदाज़ में !

तोलस्तोय ने जमा होनेवाली घृणा, बेहतर भाग्य के लिए परिपक्व हो चुकी कामना, अतीत से छुटकारा पाने की अभिलाषा और साथ ही अपरिपक्व स्वप्निल कामनाएं, राजनीतिक अनुभवहीनता, क्रांतिकारी थलथलाहट प्रतिबिंबित की. ऐतिहासिक तथा आर्थिक परिस्थितियां इन चीज़ों पर प्रकाश डालती हैं -जनसाधारण के क्रांतिकारी संघर्ष के अवश्यंभावी समारंभ तथा संघर्ष के लिए उनकी अतत्परता पर, बुराई के प्रति उस तोलस्तोयवादी अप्रतिरोध पर, जो प्रथम क्रांतिकारी आंदोलन की पराजय का सबसे गंभीर कारण था.

कहा जाता है कि परास्त सेनाएं अच्छी तरह सीखती हैं. क्रांतिकारी वर्गों की सेनाओं से तुलना निस्संदेह बहुत ही सीमित अर्थ में की
जा सकती है. पूंजीवाद का विकास उन परिस्थितियों को घंटे-घंटे बाद बदलता तथा तीक्ष्ण बनाता जाता रहा है, जिन्होंने लाखों-लाख किसानों को-जो सामंती जागीरदारों तथा उनकी सरकार के प्रति अपनी घृणा से ऐक्यबद्ध थे-क्रांतिकारी-जनवादी संघर्ष करने के लिए प्रेरित किया था. विनिमय, मंडी के प्रभुत्त तथा धन की शक्ति का प्रसार स्वयं किसान समुदाय में से पुराने ढर्रें के पिछड़ेपन तथा पिछड़ी हुई तोलस्तोयवादी विचारधारा को निरंतर बाहर खदेड़ता जा रहा है. पर॑तु क्रांति के प्रथम वर्षों तथा जन क्रांतिकारी संघर्ष में प्रथम पराजयों से एक फ़ायदा हुआ है, जिसके बारे में कोई संदेह नहीं हो सकता. यह है जनसाधारण की पहले की कोमलता तथा ढीलेपन पर घातक आघात. विभाजन की रेखाएं अधिक साफ़ हो चुकी हैं. वर्गों तथा पार्टियों में दरार पड़ चुकी है. स्तोलीपिन द्वारा सिखाये गये सबक़ों के हथौड़े के प्रहारों का तथा क्रांतिकारी सामाजिक-जनवादियों के अडिगतापूर्ण तथा सुसंगत आंदोलन का परिणाम यह होगा कि समाजवादी सर्वहारा वर्ग ही नहीं, अपितु किसान जनसमुदाय का जनवादी भाग भी अपने बीच से लाज़िमी तौर पर अधिकाधिक तपे-तपाये योद्धा देगा, जो हमारे तोलस्तोयवादी ऐतिहासिक अभिशाप के शिकंजे में उतनी आसानी से नहीं फंसेंगे.

पृष्ठ नोट :

  1. ‘रेच (भाषण )- 1906 से 1917 तक पीटर्सबर्ग से प्रकाशित सांविधानिक-जनवादियों (कैडेटों) का मुखपत्र – सं.
  2. बालालाइकिन – महान रूसी व्यंग्य-लेखबक मि० ये० सल्तिकोव-इ्चेद्रीन की रचना ‘आधुनिक सुखी जीवन’ का उदारतावादी ढपोरशंख दुस्साहसी और मिथ्याभाषी पात्र – स.
  3. यहां लेनिन ने महान रूसी कवि निकोलाई नेक्रासोव की कविता ‘रुस में सुखी कौन ?’ का एक अंश उद्धृत किया है.-सं.
  4. भूदास-प्रथा – सामंतवादी राज्य के उन क़ानूनी संबंधों की कठोर प्रणाली, जिनके अनुसार किसान पूर्णतः किसी सामंत-जागीरदार अथवा जमींदार – पर निर्भर होता था. रूस में जब किसानों के बीच अशांति बहुत बढ़ गयी, तो 16 फ़रवरी, 1861 को भूदास-प्रथा ख़त्म कर दी गयी. किंतु उसके अवशेष उसके बाद भी बने रहे. रूस में भूदास-प्रथा का पूर्ण उन्मूलन महान अक्तूबर समाजवादी क्रांति की विजय के बाद ही हो पाया -सं.
  5. ‘नरोदनाया वोल्या’ (‘जनता की आज़ादी’) – 1879 में स्थापित एक गुप्त क्रांतिकारी संगठन. उसका संचालन एक कार्यकारिणी समिति करती थी, जिसमें अ. इ. जेल्याबोव, सो. ल. पेरोव्स्काया, वे. नि. फ़ीगनेर, न. अ. मोरोज़ोव आदि शामिल थे. ‘नरोदनाया वोल्या’ का लक्ष्य था एकतंत्र का उन्मूलन, सार्विक मताधिकार के आधार पर निर्वाचित एक ‘स्थायी जन-प्रतिनिधि संस्था’ की स्थापना, जनवादी स्वतंत्रताओं की घोषणा, ज़मींदारी भूस्वामित्व का खात्मा और सारी भूमि किसानों को दे देना. ज़ारशाही के विरुद्ध संघर्ष में उसका मुख्य हथियार वैयक्तिक आतंक था. उसके सदस्यों ने ज़ारशाही के उच्च अधिकारियों की हत्या के अनेक प्रयास किये और 1 मार्च, 1881 को ज़ार अलेक्सान्द्र द्वितीय को मार डाला. ‘नरोदनाया बोल्या’ का भ्रम था कि जनता के क्रांतिकारी आंदोलन के सहारे के बिना भी मुट्ठी भर क्रांतिकारी सत्ता पर अधिकार और एकतंत्र का विनाश कर सकते हैं. जारशाही सरकार ने ‘नरोदनाया वोल्या’ का क्रूरतापूर्वक दमन किया: उसके अधिकांश नेताओं को या तो प्राणदंड दे दिया गया, या इलीस्सेलबुर्ग क़िले में आजीवन बंद कर दिया गया. नौवें दशक में संगठन का अस्तित्व समाप्त हो गया. – सं.

लेखन वर्ष – 1908

हिन्दी अनुवाद : प्रगति प्रकाशन, मास्को, 1976

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