श्रीलंका की मौजूदा हालत ने भारत के राष्ट्रवादियों की हलक सुखा दी है, यही कारण है कि भाजपा और उसका आईटी सेल जहां देश के नागरिकों को धमकाने और डराने में जुट गया है वही दूसरी ओर मुख्य धारा की गोदी मीडिया श्रीलंकाई की खबरों को दबाने और वहां के संकट की तुलना भारत के संकट से करने पर बगलें झांक रही है ताकि श्रीलंका के लोगों के विद्रोह से भारतीय लोग प्रेरणा न लेने लगे.
खबरों के अनुसार श्रीलंका के प्रधानमंत्री अपने पद से इस्तीफा देकर परिवार समेत भूमिगत हो गये हैं, वहीं आक्रोशित लोगों ने उनके आलिशान महलों को आग के हवाले कर दिया है, तो वहीं एक सांसद ने लोगों पर गोली चला दिया, जिससे आक्रोशित लोगों के भय से खुद को गोली मार लिया. एक अन्य को तो लोगों ने उसके गाड़ी समेत धकेल कर समुद्र में डुबा दिया.
श्रीलंका का संकट इतना भयावह बन चुका है कि लोगों ने, खासकर ‘अच्छे दिन आयेंगे’ के समर्थकों को निशाना बनाना शुरू कर दिया है. एक समर्थक को तो बकायदा कचरे के डिब्बे में बिठालकर लोगों ने उसे पीटते हुए जुलूस निकाल दिया. दलाल पत्रकारों को लोग ढ़ूंढ़कर पीट रहे हैं. यह एक ऐसी तस्वीर है जिससे भारत के गोदी मीडिया के भांड और अप्सराओं में हड़कंप मच गया है.
श्रीलंका में लोगों का यह आक्रोश तब है जब वहां की सरकार ने प्रदर्शनकारियों पर देखते ही गोली मारने का आदेश जारी किया है. यानी लोगों का आक्रोश सत्ता के गलियारों में मौत का सन्नाटा पसार दिया है. उसके ‘देखते ही गोली मारने’ के आदेश का कोई असर.नही हो रहा है. यही कारण है कि भारत के भांड, अप्सराओं और आईटी सेल के शिखंडी श्रीलंका के संकट से भारत के संकट को अलग दिखाने का दुश्प्रचार चला रहा है.
भारत के ही जैसा है श्रीलंका का संकट
भारत की ही तरह श्रीलंका का संकट है, फर्क सिर्फ इतना ही है कि भारत की विशाल अर्थव्यवस्था को ढ़हने में थोड़ा और वक्त लगेगा जबकि अपेक्षाकृत बहुत छोटी अर्थव्यवस्था वाला देश श्रीलंका में यह संकट जल्दी परिपक्व हो गया, और लोगों ने विद्रोह कर दिया. जबकि भारत में यह संकट अभी और गहराने के बाद ही संभव है लोगों की आंखें खुले क्योंकि भूख का कोई मजहब और दल नहीं होता.
भारत के प्रधानमंत्री की ही तरह श्रीलंका के राजपक्षे भी 50 साल तक राज करने की बात करता था. भारत की ही तरह राजपक्षे ने श्रीलंका के तमाम संवैधानिक संस्थाओं पर अपने दलाल बिठा दिया अथवा उस संस्था को ही निष्प्रभावी बना दिया. भारत में तो तमाम संवैधानिक संस्था चुनाव आयोग से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक दल्ला बन गया है. लोकतंत्र का पहरेदार कहाने वाला मीडिया भी गोदी मीडिया बनकर संघी दलाल बना हुआ है.
गिरीश मालवीय लिखते हैं – श्रीलंका में प्रधानमन्त्री अपना झोला उठा कर निकल लिए हैं. वहां के हालात से आप अच्छी तरह से वाकिफ है इसलिए उस पार बात नहीं करते हुऐ सीधे मुद्दे पर आते हैं कि पिछले दशक में श्रीलंका की राजनीति में किस तरह का परिवर्तन आया जिससे आज वह आर्थिक बदहाली के जाल में फंस गया है और भारत से उसकी कितनी समानता है.
आप को जानकर आश्चर्य होगा कि श्रीलंका ने 2012 में नौ फीसदी की उच्च विकास दर दर्ज की थी, उसके बाद से वह निरंतर गिरने लगी. आज विकास दर वहां माइनस में हैं. भारत में भी 2015 में 8 फ़ीसदी की दर से जीडीपी बढ़ रही थी और पिछले साल यहां भी माइनस में जा चुकी है.
भारत का लोन जीडीपी अनुपात 90 प्रतिशत के पार पहुंच चुका है, जो 2014 में लगभग 67 फीसदी था. श्रीलंका का लोन जीडीपी अनुपात 100 के पार है. अब उसने बाहरी देनदारी चुकाने से इंकार कर दिया है. भारत का लोन जीडीपी अनुपात खतरे के निशान के ऊपर है और लगातार बढ़ रहा है. आज ही खबर आई है कि डॉलर की कीमत अपने उच्चतम स्तर पर पहुंच गई है.
मोदी देश को विश्व गुरु बनाने का सपना दिखा कर सत्ता से आए थे ऐसे ही गोताबाये राजपक्षे भी श्रीलंका को सिंगापुर बनाने का सपना दिखा रहे थे. मोदी और राजपक्षे अपने चुनाव अभियान में ‘अच्छे दिन आने वाले है’ की बात करते थे, आज दोनों देशों की जनता अपने दुर्दिन भुगत रही है.
राजपक्षे भी जबरदस्त ध्रुवीकरण कर सत्ता पाए थे. बहुसंख्यक वोटों की लामबंदी से उन्होंने चुनाव जीता था. अपने भाषणों में राजपक्षे धर्म के गौरव की ही बात करते थे. भारत में यह नीति किस दल ने अपना रखी है, यह सब जानते हैं.
मोदी सरकार ने जीरो बजट खेती का शगूफा जैसे 2018-19 में छोड़ा था, उसी तर्ज पर राजपक्षे ने मई 2021 में श्रीलंका को पूर्ण ऑर्गेनिक खेती वाला देश घोषित करते हुए रासायनिक उर्वरकों, कीटनाशकों, खरपतवारनाशकों व कवकनाशकों के आयात पर लोग लगा दी थी. प्रधानमंत्री मोदी ने इस कृत्य के लिए राजपक्षे को बधाई संदेश भी भेजा था.
भारत में भी इसी दौरान मोदी सरकार कृषि के क्षेत्र में तीन काले कानूनों को लागू करने में पूरे दमखम से लगी रही, वो तो शुक्र मनाइए किसान आन्दोलन का जो आप लोग बच गए. श्रीलंका में भी पिछले कुछ सालों से विकास झूठी कहानी गढ़ी जाती रही और उस दौरान वहां का मीडिया भी हमारे मीडिया की तरह उनका सहयोगी बना रहा.
श्रीलंका में सरकार नहीं है. अब वहां केवल जनता बची है, जो सड़कों पर है. जनता की आंधी चल रही है. नेताओं के भागने के लिए सड़क नहीं बची है. कुछ महीने पहले की बात है, जब यही जनता अपने उन नेताओं की दीवानी थी, जिनके खिलाफ आज वह सड़कों पर है. श्रीलंका में जो हुआ है, पहले उसके कारणों को समझना ज़रूरी है, वहां हो रही घटनाओं को लेकर भारत के लिए समानता निकालने से बचना चाहिए. कारणों और लक्षणों में समानताएं हो सकती हैं मगर ज़रूरी नहीं कि घटनाएं भी उसी तरह से दोहराई जाएं. इस तरह की जल्दबाज़ी से बचने में कोई हानि नहीं है.
श्रीलंका में जो हो रहा है, उसे अपनी उसे अपनी आंखों की पुतलियों में सनसनी पैदा करने के लिए मत देखिए, क्योंकि सड़क पर भूखी जनता का आक्रोश देख कर तुरंत ही कविता और शेर ओ शायरी पर पहुंच जाने की आदत हो चुकी है. मै उनकी बात कर रहा हूं जो हर बात में फैज़ की नज़्में ट्टिट कर शाम को पार्टियों में चले जाते हैं. अपनी लाइफ में व्यस्त हो जाते हैं. इसलिए देखिए कि जो जनता इस वक्त पर सड़क पर है, वह कुछ महीने पहले तक बौद्ध गौरव की राजनीति के नशे में इतनी नफरत से कैसे भर गई थी, अतीत का स्वर्ण युग लौटाने की फर्ज़ी राजनीति में उसे मज़ा क्यों आ रहा था ?
हिंसा की इन तस्वीरों से हम सभी को यह समझना कि क्या जनता को जनता बनने में, उसके घर के जल जाने तक का इंतज़ार करना होगा ? तब तो यह जनता अपने ही किए की सज़ा भुगत रही है, अपने घर की आग से बचने के लिए सांसदों के घर जला रही है. एक सवाल और ध्यान में रखिएगा ही. क्या इस संकट में केवल धर्म आधारित अंध राष्ट्रवादी राजनीति की ही भूमिका है ? उन आर्थिक नीतियों की क्या भूमिका है, जिसे कट्टर और उदारवादी दोनों प्रकार के नेता अपनाते हैं. अगर आप आर्थिक नीतियों की नज़र से भी दोनों पक्षों को देखेंगे, तो मुमकिन है, तस्वीर कुछ ज़्यादा साफ़ नज़र आएगी. श्रीलंका भी नज़र आएगा और दूसरे देशों के छोटे-छोटे संकट भी नज़र आने लगेंगे.
जनता को अंत में जनता का ही पजामा सूट करता है. उस जनता को पजामे और आपे से बाहर लाने के लिए गोटाबया राजपक्ष और महेंदा राजापक्ष की पार्टी ने 70 प्रतिशत की बौद्ध आबादी की राजनीति को हवा दी, अतीत के गौरव की स्थापना के हुंकार भरे, जनता उनके पीछे पागल हो गई. मैं कभी श्रीलंका नहीं गया और इस संकट से पहले भी गहरी दिलचस्पी का वक्त नहीं मिला. इतना बता देने से एक दर्शक के तौर पर आपके लिए भी आसान हो जाता है कि जो टीवी पर है वह न तो हीरो है, न सर्वज्ञाता है. लेकिन आपके लिए जो पढ़ा है, उसी में से बता रहा हूं.
श्रीलंका की आबादी में 70 प्रतिशत से अधिक बौद्ध धर्म के अनुयायी हैं. 12.6 प्रतिशत हिन्दू हैं और 9.7 प्रतिशत मुस्लिम और 7.4 प्रतिशत ईसाई हैं. 2020 के मार्च महीने में स्वास्थ्य मंत्रालय ने एक फरमान जारी किया कि कोविड से मरने वाले मुसलमानों को भी शवों को जलाना पड़ेगा. दफनाने की इजाज़त नहीं होगी. ज़ाहिर है यह वैज्ञानिक फैसला तो था नहीं, बहुमत के दम पर छोटी आबादी को डराने और सताने की गुंडई थी. आज की आक्रोशित जनता को कभी यह सब ठीक लगता होगा, तभी तो सरकार इस तरह के बेतुके फैसले ले रही थी.
इस जनता को दूसरे को सताने में सुख मिलता होगा तभी तो वह सरकार के इन फैसलों को अनदेखा कर रही थी. संयुक्त राष्ट्र के मानवाधिकार ने श्रीलंका सरकार से अपील की थी कि वह मुसलमानों के लिए कोविड शवों को जलाने के फैसले को वापस ले. दफनाने की अनुमति दे. संयुक्त राष्ट्र ने चेतावनी दी थी कि इससे मुसलमानों के प्रति हिंसा भड़केगी, समाज में नफ़रत फैलेगी. सोमवार को स्वास्थ्य मंत्री को भी पद से इस्तीफा देना पड़ा है.
नवंबर 2019 में गोटाब्या राष्ट्रपति बने तब श्रीलंका में सिंहली-बौद्ध के बहुमत की राजनीति की आंधी चल रही थी. अगस्त 2020 में संसद के सत्र का उदघाटन किया है और कहा कि वे बौद्ध शासन व्यवस्था को बढ़ावा देंगे और उसकी रक्षा करेंगे. इसके लिए बौद्ध धर्मगुरुओं की एक सलाहकार परिषद बनाई गई है, जिससे सरकार राय-मशवरा करेगी कि शासन कैसे चलाएं. अतीत के युग की फर्ज़ी राजनीति ने वहां की जनता का जनता वाला पजामा उतार दिया और उसके सर पर नफरत की टोपी रख दी गई. जब धर्म गुरुओं से ही सलाह लेकर सरकार चलानी थी तो फिर चुनाव ही क्यों हो रहे थे ?
श्रीलंका के एक प्रभावशाली बौद्ध भंते मेदागामा धम्मानंदा ने प्रदर्शनकारियों का साथ देने का एलान किया है. सरकार से इस्तीफा मांगा है. इन्होंने 2019 में भी चेतावनी दी थी कि राष्ट्रपति और सभी राजनीतिक दलों को राजनीतिक मामलों में बौद्ध भंते को शामिल नहीं करना चाहिए. मेदागामा धम्मानंदा ने कहा है कि वे और कई बोद्ध नेताओं ने राष्ट्रपति गोटाब्या राजापक्षे से मांग की है कि देश को संकट से बचाने के लिए अंतरिम सरकार की स्थापना होनी चाहिए.
बौद्ध शासन की स्थापना की जड़ श्रीलंका में आधुनिक लोकतांत्रिक सरकार की स्थापना होने के समय से रही है लेकिन राजापक्षे ने अपनी राजनीति चमकाने के लिए इसे फिर से हवा देनी शुरू की और इस बार ज़ोर पकड़ने लगी. आशुतोष वार्ष्णेय ने श्रीलंका के ऊपर कुछ ट्विट किए हैं. उससे भी आप समझ सकते हैं. यहां वाला दिखे तो दिखे, लेकिन आप वहां वाला ही देखते रहें. बहुमत की राजनीति का बीज बहुत पहले बोया जाता है, इसका फल बोने वाले अलग-अलग समय में अलग-अलग तरीके से काटते हैं.
1956 में श्रीलंका में सिंहली भाषा को राष्ट्रीय भाषा का दर्जा दिया गया और तमिल को बाहर कर दिया गया. 1980 के दशक में वहां गृह युद्ध छिड़ गया. कई दशक बाद शांति आई तो जनता को फिर से बहुसंख्यकवाद की राजनीति का चस्का लगाया गया. 70 प्रतिशत की आबादी सिंहली गौरव की आबादी की राजनीति. भाषा और धर्म इसके आधार पर 70 प्रतिशत की राजनीति होने लगी. आप दक्षिण एशिया में देखिए. हर जगह भाषा को लेकर टकराव सुलगाया जा रहा है.
कुल मिलाकर भाषा और धर्म की राजनीति के बहाने लोकतंत्र की संस्था और लोकतांत्रिक चेतना को ध्वस्त कर देने की कहानी है श्रीलंका की जो दुनिया में पहले भी घट चुकी है और आगे भी घटती रहेगी.अमरीकी विदेश विभाग एक रिपोर्ट तैयार करता है. इसे रिपोर्ट ऑन रिलीजियस फ्रीडम कहते हैं. इसी रिपोर्ट में भारत को चिन्ताजनक वाले देश की कैटगरी में रखा गया है. 2020 की रिपोर्ट में इस बात का भारत सरकार ने प्रतिवाद भी किया था.
श्रीलंका के ईसाई समूहों का एक व्यापक संगठन है जिसका नाम है National Christian Evangelical Alliance of Sri Lanka (NCEASL), इसकी एक रिपोर्ट के अनुसार 18 जनवरी 2020 के दिन 150 लोग गांव के एक चर्च में घुस गए और पादरी से कहा कि धार्मिक गतिविधियों को रोक कर चर्च ही बंद कर दे. 23 फरवरी को एक और इलाके में चर्च में सर्विस चल रही थी, 100 लोग घुस गए और और पादरी से सवाल करने लगे कि उनकी पूजा स्थल की कानूनी वैधता क्या है. इन 100 लोगों में एक बौद्ध धर्म गुरु भी था. जिन्हें भंते कहते हैं. अंग्रेज़ी में monk. इन लोगों ने ईसाइयों से कहा कि वे गांव छोड़ कर चले जाएं.
धार्मिक भेदभाव की राजनीति में जनता को आनंद तो मिल ही रहा था, लेकिन देश में क्या हो रहा है, उससे जनता दूर होने लगी. दूसरे धर्म के छात्रों को मजबूर किया गया कि वे बहुमत के धर्म की पुस्तकें स्कूल में पढ़ें. जबकि वहां नियम है कि सभी को स्कूलों में अपने-अपने धर्म की शिक्षा दी जाएगी. कानून में कुछ लिखा है, ज़मीन पर कुछ हो रहा है. धर्म का आतंक फैलता जा रहा था. हां 27 अक्टूबर 2021 को श्रीलंका में एक टास्क फोर्स का गठन हुआ था. इसे एक देश एक कानून भी कहा जाता है. 13 सदस्यों के इस टास्क फोर्स में केवल सिंहली बौद्ध समुदाय से ही सदस्य बनाए गए.
राजापक्षे की यह सनक जनता को नज़र नहीं आई कि इस तरह से भेदभाव क्यों हो रहा है ? नवंबर 2021 की इस खबर में लिखा है कि श्रीलंका के कैथॉलिक बिशप कांफ्रेंस ने राष्ट्रपति गोटाब्या से मांग की है कि वे एक देश एक कानून को लेकर बनाए गए टास्क फोर्स को वापस लें. इसमें तमिल, हिन्दू, कैथोलिक और ईसाई अल्पसंख्यकों में से किसी को सदस्य नहीं बनाया गया है. कानून मंत्री अली साबरी ने तब बयान दिया था कि एक देश एक कानून के लिए टास्क फोर्स बनाते समय उनसे पूछा तक नहीं गया.
इसी तरह 1 जून 2020 को पुरातात्विक और ऐतिहासिक इमारतों के संरक्षण के लिए एक कमेटी बनाई गई. इसमें भी केवल सिंहली बौद्ध लोगों को ही सदस्य बनाया गया. इसका काम था मुस्लिम और तमिल बहुल इलाकों में पुरातात्विक स्थल का सर्वे करना. इसके ज़रिए उन धर्म स्थलों के बौद्ध स्थल होने का दावा किया जाने लगा. इन दो फैसलों के आधार पर समझ सकते हैं कि किस तरह गोटाबाया राजापक्षे की सरकार हर धर्म के अल्पसंख्यों को सता रही थी, उन्हें मानसिक तनाव दे रही थी, सरकार की कमेटियों से बाहर कर रही थी. बहुसंख्यक जनता को भटकाने के लिए अल्पसंख्यकों पर तरह-तरह के ज़ुल्म हो रहे थे. ये सब वहां की प्रेस में छप चुका है.
News first MTV Channel पर 31 दिसंबर 2021 का एक लेख है. इस लेख में ब्रिटेन के प्रधानमंत्री के घर की सजावट के बहाने श्रीलंका का हाल बताया गया है. यह कहा गया है कि ब्रिटेन के प्रधानमंत्री के घर की सजावट पर खर्च हो रहे हैं लेकिन श्रीलंका में तो पूर्व राष्ट्रपति को आजीवन सरकारी घर दे दिया गया है. हमारे राष्ट्रपति तो अपनी जेब से करोड़ों रुपये खर्च कर निजी जेट से तिरुपति दर्शन करने जाते हैं और यह बात जनता को शान से बताते हैं. वह जनता सवाल भी नहीं करती है कि महिंदा राजपक्षे एक किराए के मकान में रहते थे, आज इतने अमीर कैसे हो गए कि प्राइवेट जेट से भारत जाकर तिरुपति के दर्शन कर रहे हैं ?
लोगों को यह नहीं चाहिए कि वह भी जेट में यात्रा करें बल्कि उन्हें चाहिए जरूरत की चीजें जैसे पेट्रोल, मिट्टी का तेल, बिजली, गैस सिलेंडर, सब्ज़ियां और नारियल और मछली भी. इस लेख में यह भी लिखा है कि जब भी हमारे नेता बकवास करें तो चुप नहीं रहना चाहिए. हमारी नियति हमारे हाथ में हैं. भवानी फोनसेका मानवाधिकार कार्यकर्ता हैं और वकील हैं. कई तरह से लोग बदलाव के लिए एक जुट होते नज़र आ रहे हैं. यह बड़ी बात है. लेकिन अभी भी कई ऐसे मसले हैं जिन पर ध्यान देने की जरूरत है. इस मुश्किल की घड़ी में अलग अलग समुदाए साथ आ गए हैं लेकिन काफी भेद भाव और तकरार के मुद्दों पर हमें आगे ध्यान देने की जरूरत है.
सरकार ने खराब होते हालातों को अनदेखा किया. पिछले कुछ हफ्तों में हमने देखा है कि श्रीलंका में जरूरत के समान की कमी हो रही है. लोगों को लंबी कतारों में लग कर खाने पीने की चीजें, तेल, गैस लेना पढ़ रहा है. लंबी कतारों में पेट्रोल और डीज़ल लेना पढ़ रहा है. इस संकट की चेतावनी सबको दिख रही थी. पिछले हफ्तों में कुछ लोगों की कतारों में ही मौत हो गई. लेकिन सरकार के अनदेखा करने और इनकार करने की वजह से हालत और खराब हो गए. तो हां, सरकार ने हालत को नहीं समझा. वो बहुत कुछ कर सकती थी.
श्रीलंका में दो महीने से शांतिपूर्ण तरीके से प्रदर्शन हो रहे थे. हिंसा इसलिए भड़की कि लोगों को लोगों से भिड़ाने की कोशिश की. सरकार के समर्थन से लोगों को बसों में भर कर लाया गया. इन्होंने जब प्रदर्शनकारियों पर हमले किए, तब उसके जवाब में हिंसा भड़क गई.श्रीलंका के लोग ट्विटर पर लिख रहे हैं कि ग़रीब लोगों से कहा जा रहा है कि सरकार की योजना का लाभ तभी मिलेगा जब वे सरकार का विरोध कर रहे प्रदर्शनकारियों पर हमले करेंगे. पुनर्वास केंद्रों से कैदियों को बसों में भर कर लाया जा रहा है ताकि सरकार समर्थक रैली बड़ी लगे.
सरकारी कर्मचारी और अफसरों से कहा जा रहा है कि लोगों के खिलाफ प्रदर्शन में शामिल हों. एक सांसद ने लोगों पर गोली चला दी तो भीड़ से बचने के लिए उसने खुद को ही गोली मार ली. लोगों ने खास तरीके की पूजा की है. उनसे कहा गया कि भगवान से अपनी किस्मत मांग लें या शिकायतों का समाधान ? सरकार समर्थक भीड़ ने लाइब्रेरी पर भी हमला किया तो कल लोगों ने किसी तरह से किताबों और लाइब्रेरी को बचाने की कोशिश की. जनता अब कह रही है कि किताब ही जन क्रांति का सबसे बड़ा औज़ार है.
व्हाट्स एप यूनिवर्सिटी के देश में इस बात को नहीं समझा जा सकेगा लेकिन व्हाट्स एप के इस दौर में कहा जा रहा है कि किताब ही क्रांति का औज़ार है. श्रीलंका की हालत बहुत खराब है. वहां के पत्रकार लिख रहे हैं कि अंतर्राष्ट्रीय मीडिया ने संकट को अनदेखा किया है. जिसे समझा जाता था कि जब वह बोलेगा तभी दुनिया को पता चलेगी लेकिन अब ऐसा नहीं है. श्रीलंका की जनता सोशल मीडिया का इस्तेमाल कर रही है, लोगों तक बातें पहुंच रही हैं. जनता अपने आप में मीडिया बन गई है. सोशल मीडिया के ज़रिए लोग अपनी बात रख रहे हैं. क्या ऐसा भारत में किसान आंदोलन में नहीं हुआ था ? पत्रकार दानिश सिद्दीकी को एक बार फिर से पुलित्ज़र पुरस्कार मिला है.
दानिश को पुलित्ज़र पुरस्कार भारत में कोविड की दूसरी लहर के समय कवरेज के लिए मिला है. रायटर के चीफ फोटोग्राफर के तौर पर दानिश ने जब भारत के श्मशानों से तस्वीरें लीं तब जाकर लोगों को पता चला कि हालात क्या है. मरने वालों की गिनती केवल अंकों में नहीं हो सकती, उन तस्वीरों ने मौत से पर्दा हटा दिया. उसके बाद दानिश अफगानिस्तान चले गए जहां तालिबान और अफ़ग़ान स्पेशल फ़ोर्सेज़ के बीच की क्रॉस फ़ायर में दानिश फंस गए और गोली लगने से उनकी जान चली गई.
दानिश को 2018 में फोटोग्राफी के लिए पुलित्ज़र पुरस्कार भी मिल चुका है. दुनिया की ऐसी कोई प्रतिष्ठित पत्रिका नहीं होगी जहां दानिश की तस्वीरें न छपी हों. जिसने पाठकों को संवेदनशील न बनाया हो. दिल्ली दंगों में दानिश की तस्वीरें आज भी बोलती हैं. दानिश के पिता अख़्तर सिद्दीकी और शाहिदा सिद्दीकी को भी बधाई. दानिश के साथ-साथ अमित दवे, अदनान आबिदी, सन्ना इरशाद मट्टू को भी पुलित्ज़र मिला है. सभी रायटर्स से जुड़े हैं. इन सभी को बधाई.
मूल बात यही है कि सरकार के दावे अपनी जगह लेकिन पत्रकार का काम अपनी जगह होता है. जब पत्रकार अपना काम नहीं करेंगे तब क्या होगा ? इसका कोई एक जवाब नहीं हो सकता. शायद इसी का जवाब देने के लिए गृह मंत्री अमित शाह ने यह अख़बार लांच किया है. यह असम सरकार का अख़बार है जो महीने में एक बार आएगा. जिस सरकार की हर बात उसी क्षण सारे चैनलों पर कवर होती है उसे मासिक समाचार पत्र की ज़रूरत क्यों पड़ी ? पुलित्जर कमेटी को रिसर्च करना चाहिए. इन दिनों इतनी तेज़ गर्मी पड़ रही है. सारा कवरेज राजनीतिक गतिविधियों के आस-पास है. उसमें भी ढंग से चार सवाल नहीं उठाए जा रहे हैं, केवल आने-जाने का कवरेज़ हो रहा है.
गिरीश मालवीय लिखते हैं – यदि आप जानना चाहते हैं कि भारत का टीवी मीडिया और अखबार श्रीलंका के ताजा हालात पर लगातार चुप्पी क्यों अख्तियार किए हुए है तो इस लेख को पढ़ लीजिए. ‘एक गिरता हुआ रथ दूसरे को सावधान करता है’ यह एक पुरानी बौद्ध कहावत है. हमें ‘जलती हुई लंका’ से भी सावधान होने की जरूरत है.
हम देख रहे हैं कि श्रीलंका में हालात दिन-ब-दिन बद से बद्तर की ओर जा रहे हैं. आज जो श्रीलंका में स्थिति है उसके संकेत 2019 में हुए आम चुनाव में ही दिखने लगे थे कि किस प्रकार 2019 में राजपक्षे बहुसंख्यकों के हितों के सरंक्षण की बात कर सत्ता में आए थे, यह हमे जानना बहुत जरूरी है.
श्रीलंका में यह सब 2012 से शुरू हुआ जब दो बौद्ध भिक्षुओं किरामा विमालाजोथी और गलागोदा अथे गननसारा ने बीबीएस की स्थापना की. BBS यानी बोडु बाला सेना, यानी हिंदी में ‘बौद्ध शक्ति की सेना’ यह एक अतिवादी दल है जो श्रीलंका की प्राचीन संस्कृति की बात करता है. यह सिंहली बौद्ध राष्ट्रवाद की बात आगे रखता हुआ उग्र राष्ट्रवाद का समर्थक है. यह बहुलवादी और लोकतांत्रिक विचारधाराओं का विरोध करता है.
17 फरवरी 2013 को ‘बोडू बाला सेना’ ने एक सभा की और सार्वजानिक घोषणा की कि आज से देश में कहीं भी ‘हलाल मार्का’ वाली चीजें नहीं बिकनी चाहिए. कोई भी बुर्का में नजर नहीं आना चाहिए आदि ऐसी दस इस्लामिक प्रथाओं का उन्होंने नाम लिया. उनका कहना था कि वो जान बूझकर अपने धार्मिक खानपान को हमारे देश में हम पर थोप रहे हैं.
2014 में कुछ बौद्ध भिक्षुओं के साथ मारपीट का विरोध करते हुए बीबीएस ने अलुथगामा, बेरुवाला और धारगा कस्बे में विशाल रैलियां निकाली थी. बीबीएस की इन रैलियों के बाद श्रीलंका के कई जगहों पर दंगे भड़के थे. इन दंगों में 10 हजार लोगों को अपना घर छोड़कर भागना पड़ा, जिसमें 8 हजार मुस्लिम थे.
उनके ऐसे विचारो को देश विदेश में जमकर समर्थन मिला. भारतीय जनता पार्टी के महासचिव और प्रवक्ता रहे राम माधव ने अपने फेसबुक तथा ट्विटर अकाउंट पर बोडु बाला सेना तथा म्यामार के अतिवादी भिक्षु विराथु के संगठन ग्रुप 969 की हिमायत करते हुए कई कमेंट्स साझा किए थे.
BBS के मुख्य कर्ताधर्ता गैलागोडा अथे ज्ञानसारा ने कुछ सालों पहले यह दावा भी किया कि वह ‘उच्च स्तर पर’ दक्षिणपंथी भारतीय हिंदू संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के साथ वार्ताओं में संलिप्त है ताकि दक्षिण एशिया के इस हिस्से में ‘हिंदू-बौद्ध शांति क्षेत्र’ कायम किया जाए. ज्ञानसारा को अदालत की अवमानना का दोषी ठहराया गया था, लेकिन राष्ट्रपति द्वारा क्षमादान दिए जाने के बाद 23 मई 2019 को रिहा कर दिया गया.
BBS ने 2019 में हुए श्रीलंका के आम चुनाव मे गोताबाया राजपक्षे के समर्थन में जमकर मेहनत की. गैलागोडा अथे ज्ञानसारा ने कहा कि ‘हमने एक विचारधारा का निर्माण किया है कि देश को एक सिंहली नेता की जरूरत है, जो अल्पसंख्यकों के सामने झुकता नहीं है.’
राजपक्षे उन्हीं के समर्थन के आधार पर 2019 का चुनाव जीते. 18 नवंबर 2020 को टेलीविजन और रेडियो चैनलों पर श्रीलंका के राष्ट्रपति गोटबाया राजपक्षे ने सम्बोधन अपनी जनता के बजाए ‘सिंहल राष्ट्र’ से करते हुए कहा कि ‘एक साल पहले, इस देश में 6.9 मिलियन मतदाताओं ने मुझे आपके नए राष्ट्रपति के रूप में चुना था. यह कोई रहस्य नहीं है कि उस समय मुझे वोट देने वाले बहुमत सिंहली थे.’
गैलागोडा अथे ज्ञानसारा ने यह भी कहा कि ‘गोटबाया राजपक्षे ही एक नियम, एक राष्ट्र, एक देश की स्थापना कर सकते है.’ यह सरकार सिंहला बौद्धों द्वारा बनाई गई है और उसे सिंहला बौद्ध ही रहना चाहिए. यह सिंहल देश है, सिंहल सरकार है. जनतांत्रिक और बहुलतावादी मूल्य सिंहला नस्ल को तबाह कर रहे हैं.’ बाद में राजपक्षे द्वारा ज्ञानसारा राष्ट्रपति कार्य बल का अध्यक्ष बनाया गया वह अभी इसी पद पर आसीन हैं.
आज जो भी आप श्रीलंका की हालत देख रहे हैं उसमें एक बड़ी जिम्मेदारी ऐसे माहौल की भी है जिसने जनता का ध्यान विषाक्त वातावरण बना कर अपनी मूलभूत समस्याओं से हटा दिया आज श्रीलंका में स्थिति पूरी तरह आउट ऑफ कंट्रोल है. हिंसा में कई लोगों की मौत हुई है, जबकि 200 से अधिक लोग घायल हैं, अब तक 12 से ज्यादा मंत्रियों के घर जलाए जा चुके हैं.
बात निकलती है तो फिर दूर तलक जाती है इसलिए भारत का मीडिया श्रीलंका की तबाही के मूल कारणों पर चर्चा करने पर परहेज करता है क्योंकि जैसा कि आप जानते ही हैं कि भारत का गोदी मीडिया भी मौजूदा सरकार के इशारे पर जमकर साम्प्रदायिक राजनीति के तहत काम कर रहे हैं
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