कनक तिवारी
मानव अधिकार कार्यकर्ता, वकील, श्रमिक नेता और बुद्धिजीवी सुधा भारद्वाज को बंबई हाईकोर्ट ने दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 167 के तहत राष्ट्रीय अन्वेषण एजेंसी (एनआईए) की ओर से निर्धारित समय पर चार्टशीट पेश नहीं करने पर आरोपियों की रिमांड अवधि बढ़ाने का अधिकार नहीं होने से जमानत दे दी है. वह कानूनी जुमले में डिफाॅल्ट जमानत कही जाती है अर्थात पुलिसिया जिम्मेदारियों की चूक की वजह से लाभ मिलने वाली जमानत.
संहिता की धारा 167 में कड़ा प्रतिबंध है कि पुलिस या अभियोजन निर्धारित अवधि में चालान पेश नही करे, तो अभियुक्त या आरोपी को तत्काल जमानत मिल जाएगी. सुधा और उनके साथियों के खिलाफ विधिविरुद्ध क्रियाकलाप (निवारण) अधिनियम (यूपीए) 1967 में आरोप है. उसमें अभियोजन द्वारा आवेदन देने से चालान की अवधि 180 दिन तक बढ़वाई जा सकती रही है.
सुधा को 14 मानव अधिकार कार्यकर्ताओं, बुद्धिजीवियों और वकीलों आदि के साथ बदनाम यूएपीए अधिनियम में 2018 से निरोधित कर रखा गया है. आरोप है सब ने 31 दिसंबर, 2017 को भीमा कोरेगांव में एल्गार परिषद के आयोजन में भड़काऊ भाषण दिए थे, उसके कारण हिंसा फैली, इस कारण एक व्यक्ति की मौत होने के साथ कई व्यक्ति घायल भी हुए.
मामले में महाराष्ट्र पुलिस ने नवंबर 2018 में पुणे की अदालत ने पांच हजार पृष्ठों का चालान पेश किया. इल्जाम लगाया कि सभी आरोपी माओवादी कम्युनिस्ट पार्टी से गहरे रूप से जुडे़ हैं. वे भारत सरकार के खिलाफ युद्ध भड़काने जैसी कार्यवाही के अलावा प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की हत्या की संभावनाओं के मद्देनजर निरोधित किए गए. महाराष्ट्र में भाजपा सरकार हारने के बाद जनवरी 2020 में केन्द्र ने मामला एनआईए के सुपुर्द कर दिया.
सुधा 2018 से पहले घर में, फिर जेल में गिरफ्तारी में हैं. जजों एस. एस. शिंदे और एन. जे. जामदार ने सुधा को डिफाॅल्ट जमानत देते एनआईए अदालत के सामने 8 दिसंबर को पेश किए जाने का आदेश दिया है. जमानत आवेदन पत्र में उल्लेख है कि जज के. डी. वडाने ने पूना पुलिस को सुधा भारद्वाज की गिरफ्तारी अवधि बढ़ाने का आदेश दिया था. जज को आदेश देने की वैधानिक अधिकारिता नहीं थी. जज ने खुद को विशेष जज बताया जबकि यूएपीए के तहत ‘स्पेशल जज‘ होने की उनकी नियुक्ति नहीं थी.
जमानत आदेश से असहमत होते एनआईए में सुप्रीम कोर्ट में सुधा की जमानत खारिज करने दस्तक दी है. लगता नहीं कि एनआईए के पक्ष में मामले में गंभीर कानूनी मुद्दे उपलब्ध होंगे. हाईकोर्ट ने आदेश देने में जरूरी सावधानी बल्कि देरी की भी की है. आदेश में सुप्रीम कोर्ट के दो हालिया मामलों का हवाला भी दिया है जिनमें डिफाॅल्ट जमानत देने के न्यायालीय प्रतिमान स्थिर हो चुके हैं.
2 अक्टूबर, 2020 को सुप्रीम कोर्ट की तीन जजों की बेंच की ओर से जस्टिस रोहिंग्टन नरीमन ने फैसला देते विक्रमजीत सिंह नामक आरोपी को शस्त्र अधिनियम के मामले में भी जमानत दे दी.
फिर तीन सदस्यों की दूसरी बेंच ने एम. रवीन्द्रन बनाम डायरेक्टर रेवेन्यू इंटेलिजेन्स ने महत्वपूर्ण फैसले में लिखा कि अदालत की परिभाषा में यूएपीए के तहत अपराधों का विचारण करने के लिए दंड प्रक्रिया संहिता के अधीन क्षेत्राधिकार रखने वाला न्यायालय ही होगा. वह एनआईए अधिनियम 2008 की धारा 11 के तहत अथवा उसी अधिनियम की धारा 21 के तहत गठित विशेष न्यायालय होगा.
पुणे के जज ने खुद को स्पेशल जज कहते, समझते एनआईए को चार्जशीट पेश करने के लिए अधिनियम के तहत 180 दिन की बढ़ी हुई मोहलत कैसे दे दी ? मामला पूरी तौर पर अधिनियमित क्षेत्राधिकार का है. इसमें कोई ढिलाई या एनआईए को रियायत नहीं दी जा सकती.
सुधा भारद्वाज 1961 में अमेरिका में पैदा हुई. करीब दस वर्ष बाद माता पिता के साथ भारत आईं. उसके बाद उन्होंने अमेरिकी नागरिकता छोड़ दी. सुधा की ओर से आवेदन में कहा गया कि अनधिकृत जज के. डी. वडाने ने 26 नवंबर, 2018 को चार्जशीट पेश करने के लिए 180 दिन की मोहलत दी तथा दूसरा आदेश 21 दिसंबर, 2019 को चार्जशीट पेश होने पर आरोपियों को नोटिस जारी किया.
हाई कोर्ट ने सूचना के अधिकार के तहत बताया कि जज वडाने अतिरिक्त जज थे, यूएपीए के तहत विशेष जज नहीं थे. कई मुद्दे और हो सकते हैं लेकिन सुधा की जमानत की गुणवत्ता पर असर पड़ने की सम्भावना नहीं थी. सुधा को मिली जमानत दंड प्रक्रिया संहिता के भाग 33 के तहत मिली पक्की जमानत है. प्रकरण के चलते तक तकनीकी आधार पर उसे खारिज या वापिस नहीं किया जा सकता, जब तक ऐसे आरोप लगाए जाएं कि गवाहों को तोड़ने या भड़काने की कोशिशे की गई हैं या आरोपी द्वारा मामले की सुनवाई छोड़कर कहीं भाग जाने की पुख्ता जानकारी है.
सुुधा के मामले में हाईकोर्ट के आदेश के विरुद्ध एनआईए ने सुप्रीम कोर्ट में दस्तक तो दी है. सुप्रीम कोर्ट में कई फैसलों के बाद न्याय सिद्धांत निर्धारित किए हैं. उनको देखते ऐसा नहीं लगता इस संबंध में एनआईए द्वारा बहुत पुख्ता आधारों पर दस्तक दी गई होगी.
एनआईए द्वारा अनधिकृत जज से चार्जशीट पेश करने के लिए 180 दिन का समय लेकर पहले ही लगभग तीन साल बीत चुके है. उस अवधि में सुधा को अवैध और अकारण जेल में रहना पड़ा है.
सुप्रीम कोर्ट ने अपने सभी फैसलों में सबसे ज्यादा नागरिक आजादी के मूल सिद्धांत संविधान के अनुच्छेद 21 पर भरोसा करते कहा है कि किसी भी व्यक्ति को उसके प्राण या दैहिक आजादी से वंचित नहीं किया जा सकता जब तक कि उसके खिलाफ कोई ठोस कानूनी आधार या प्रावधान हो, यह प्रकरण में तो प्रथम दृष्टि में सिरे से गायब दिखाई दिया है.
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