उस रात, 1.20 पर शास्त्री सीने में दर्द और सांस में तकलीफ की शिकायत की. उनके निजी डॉक्टर इलाज करते हैं, पर 1.32 पर नब्ज थम जाती है. रूसी चिकित्सक भी आ जाते हैं, पर बेजान काया पर, हर कोशिश बेकार रही.
पाकिस्तान ने उनके प्रधानमंत्री बनते ही, एक्टिविटी शुरू कर दी थी. पहले, कच्छ के रण पर हमला किया. शास्त्री ने कच्छ सीमा विवाद को, अंतरराष्ट्रीय पैनल में भेजा. तो उनपर डरपोक की मुहर लग गयी. विपक्ष ने संसद के सामने जंगी रैली की. दबाव में शास्त्री ने 20 अगस्त को विदेश सचिव स्तर की वार्ता कैंसल कर दी.
उत्साहित जनसंघ ने कहा- यदि जनता इतनी सक्रिय और सतर्क रहेगी, तो कच्छ समझौता कागज के टुकड़े में सिमट कर रह जाएगा. तो युद्ध पूर्व के शांति प्रयास फेल हुए. 1 सितंबर को पाक का हमला हुआ. हफ्ते भर में कश्मीर में हारने की नौबत थी.
किसी समझौते के लिए शास्त्री ने 6 सितंबर को सर्वदलीय बैठक बुलाई. दीनदयाल उपाध्याय भी थे. जनसंघ नें शांति की हर पहल का कड़ा विरोध किया. बैठक विफल रही.
तभी किस्मत ने पलटी खाई. पाकिस्तान ने, बीच युद्ध में जनरल बदल दिया. पाक फौज में कन्फ्यूजन का लाभ उठाकर, हमने हाजी पीर जीता. तीन दिन बाद ही नया मोर्चा भी खोल दिया. लाहौर पर हमारे ताबड़तोड़ हमले ने पाकिस्तान को हक्का बक्का कर दिया. अब समझौता वो मांग रहा था.
दरअसल पाकिस्तान को सिर्फ कश्मीर (विवादित हिस्से) में लड़ाई की उम्मीद थी, इंटरनेशनल बार्डर पर नहीं. हालात तो इधर भी खस्ता ही थे. शास्त्री ने स्वीकार किया. ताशकंद की तैयारी होने लगी. अबकी उन्होंने विपक्ष से चर्चा न की.
खबर आम हुई तो विपक्ष हमलावर हो गया. सब समझते थे, कि समझौता, याने युद्ध पूर्व स्थिति रिस्टोर करना. लाहौर लौटाना, हाजी पीर लौटाना. अंदर की बात ये कि हम कश्मीर में ज्यादा जमीन हारे हुए थे. सिचुएशन रिस्टोर होने से अधिक लाभ हमको था. पर जनता को क्या पता.
सरकारें जीत प्रचारित करती है, हार छुपाती हैं. तो हमें लगता है कि सब जगह, हम जीत ही जीत रहे हैं. संघी इस पर खेल लेते हैं. तो शास्त्री ताशकंद के लिए उड़े, इधर दिल्ली काले झंडों से पट गयी. अखबारी बयानों में शास्त्री की ‘देशभक्ति’ और ‘सक्षमता’ पर सवाल उठने शुरू हो गए.
प्रधानमंत्री आवास के बाहर प्रदर्शन शुरू हो गया. शास्त्री हाय हाय
शास्त्री तू ये, शास्त्री तू वो. आवाज घर के भीतर तक जा रही थी. परिवार के लिए सब सुनना हौलनाक था. दोपहर में समझौते के बाद शास्त्री ने घर फोन किया, बेटी ने उठाया. बताया कि बाहर हाय हाय चल रही है. आपका बड़ा विरोध है.
शास्त्री ने पत्नी से बात करनी चाही. जरा सोचिए, बेटी ने क्या जवाब दिया होगा ?? ‘अम्मा नाराज हैं. बात नहीं करना चाहती. आपने जीती हुई जमीन पाकिस्तान को क्यों दे दी ??’
इस बरछे से बिंधे शास्त्री की शाम ताशकंद के जलसों में गुजरी. अयूब ने शास्त्री के कसीदे पढ़े. पाकिस्तानी प्रशंसा से क्या राहत मिलती, जब दिमाग भारत में विरोध की सुनामी देख रहा था.
डिनर के समय दिल्ली से उनके सचिव का फोन आया. शास्त्री ने पूछा- क्या माहौल है?? जवाब मिला- प्रजा सोशलिस्ट पार्टी के सुरेंद्रनाथ तिवारी और जनसंघ के अटलबिहारी ने समझौते की आलोचना की है. आपके दिल्ली लौटने पर विरोध प्रदर्शन की तैयारी है. काले झंडे लगे हुए हैं.
शास्त्री पीएम नहीं बनना चाहते थे. कारण कमजोर स्वास्थ्य, दिल की समस्या थी. पीएम बनने के पहले कम से कम 1 रिकॉर्डेड हार्ट अटैक 1959 में आ चुका था. इतने कमजोर थे कि लालकिले पर भाषण के लिए चढ़ सकें, तो वहां लिफ्ट लगाई गई.
निजी डॉक्टर चुघ, दिल की समस्याओं की दवायें लेकर चलते थे. पर वक्त आने पर उनकी तैयारियां धरी रह गयी. जनसंघ की भी तैयारी मिट्टी में मिल गयी. काले झंडों से जिसका स्वागत करना था, वो लाश बनकर आया.
शास्त्री की मौत के ईर्दगिर्द, तमाम मिस्ट्री घूमती है. पोस्टमार्टम नहीं हुआ, खून के धब्बे थे. चेहरा नीला हो गया था. वैसे तो अटल बिहारी का चेहरा स्याही जैसा नीला हो गया था. उन्हें जहर किसने दिया, कोई नहीं पूछता.
सुभाष की मौत में भी मिस्ट्री है. पर जहां गप्प कथाओं को सुभाष का परिवार खारिज करता है, शास्त्री से जुड़ी तमाम कहानियां, परिवार के बयानों से ही पैदा होती हैं. इसका लाभ भी उठाते हैं. उनके बेटे ने चुनाव लड़ने पर मेरठ में ‘ताशकंद शहीद के बेटे’ के रूप में वोट मांगा.
बहू रीता शास्त्री भाजपा सांसद रही. दूसरे सुनील शास्त्री वीपी सरकार के मंत्री रहे. भाजपा 10 साल से सत्ता में हैं. शास्त्री की फाइलें खोल असली सच्चाई नहीं बताते. द कूड़ा फाइल्स जैसी फिल्में जरूर बनवाते हैं.
लाल बहादुर शास्त्री…भारत के दूसरे प्रधानमंत्री थे. बेहद विनम्र, ईमानदार और मितव्ययी. भारत को 1965 में आसन्न हार से बचाया, युद्ध ड्रा पर छूटा. गुणवत्ता यहां से समाप्त. आगे अपने रिस्क पर पढ़ें. इतिहास से ज्यादा, आपको अगर गर्व पालने में रुचि है, तो बेहतर होगा, छोड़ दें.
शास्त्रीजी, दिल्ली की राजनीति में बहुत जूनियर थे. नेहरू ने 1952 के इलेक्शन में उनको यूपी में देखा. पार्टी के चुनावी प्रबंधन से इम्प्रेस हुए, दिल्ली लाये. 57 में इलाहाबाद से पहली बार सांसद बनाया. रेलमंत्री भी बनाया, जिससे वे जल्द ही इस्तीफा दे दिये.
बाद में कुछ और मंत्रालय दिये गए. सन 1959 में उन्हें दिल का दौरा पड़ा. स्वास्थ्य का मसला इसके बाद भी रहा. प्रधानमंत्री बनने के कुछ माह पहले, भुवनेश्वर में उन्हें पक्षाघात भी हुआ था. फिर वे बिना पोर्टफोलियो के मंत्री रहे.
दिल्ली में तीनमूर्ति भवन में हाजिरी बिना नागा रहती. लोग पीएम नेहरू तक पहुचने के लिए उन्हें पीएम के असिस्टेंड जैसा देखते. तो नेहरू के प्रेमभाजन होने के अलावे, दिल्ली में उनका कोई राजनीतिक वजन न था.
नेहरू का पहला कार्यकाल चमकता सूरज है, दूसरा ढलान, तीसरा – डिजास्टर. 1960 के बाद, नेहरू विरोधी खेमा मजबूत हुआ. 1962 की हार, विशेषतः कृष्णा मेनन के इस्तीफे के बाद, नेहरू कमांड में, लगभग नहीं के बराबर थे.
पार्टी में सिंडिकेट की, सरकार में मोरारजी की चलती थी. उत्तराधिकार के सबसे मजबूत दावेदार मोरारजी थे. ऐसे में नेहरू की मृत्यु के बाद, पार्टी अध्यक्ष कामराज ने राजनीतिक चालबाजी से शास्त्री को प्रधानमंत्री बनवा दिया. तो उनकी कांग्रेस में वकत, मधु कोड़ा से बेहतर न समझिये.
अपनी लेजिटमेसी के लिए उन्होंने नेहरू की बेटी को मंत्रिमंडल में लिया. कामराज ने भी इंदिरा को झटपट राज्यसभा से सांसद बना दिया. ये काम नेहरू ने नहीं किया था. वंशवाद का लाभ, दरअसल पोस्ट-नेहरू कंडीशन में, मोरारजी को कमजोर रखने के लिए लिया गया.
बहरहाल, पार्टी सिंडिकेट ने शास्त्री को प्रधानमंत्री बनाया, तो पूर्ण कार्यकाल नियंत्रण में रखा. डेढ़ बरस का कार्यकाल, एक डेयरी डेवलपमेन्ट बोर्ड के गठन के अलावे, कोई खास आशा जगाने वाला न था.
सच है, कि उन्हें समय नहीं मिला. चीन युद्ध की छाया में देश मिला. कार्यकाल के बीच कच्छ की लड़ाई हुई, कार्यकाल का ख़ात्मा भी युद्ध में हुआ. खाद्य संकट उनके दौर में सर चढ़कर बोलता रहा. लेकिन शास्त्री का समाधान क्या था ?
पीएम हाउस में हल चलाना, और खुद भूखा रहकर जनता उपवास का संदेश. जय जवान, जय किसान जैसे आकर्षक नारे, पाकिस्तान के खिलाफ गरम गरम बयान. यहां मुझे बकैत मोदी दिखता है.
सॉरी टू से !! और फिर अगर करगिल में अटल सोते रह गए, 1962 में नेहरू सोते रह गए, तो 1965 में शास्त्री भी कच्छ और कश्मीर में दो दो बार सोते रह गए. अलग यार्डस्टिक, अलग अलग आदमी के लिए लाना आपसे होता है जनाब, मुझसे नहीं. अगेन सॉरी. मेरी निगाह में वे फेल्ड पीएम थे.
संघी उनके जीतेजी तो उन्हें हर दिन सूई चुभोते रहे. हाय हाय, मुर्दाबाद करते रहे. गद्दार, देश बेच दिया, डर गए, झुक गए की तोहमतें लगाते रहा. लेकिन अब 2 अक्टूबर को वे सिर्फ इसलिए याद करते हैं, ताकि शास्त्री के शोर में महात्मा गांधी के जन्मदिन को छुपाया जा सके.
उन्हें सुभाष, सरदार, मनमोहन, शास्त्री को अनड्यू ऊंचा करना है, नेहरू, इंदिरा, राजीव को अनड्यू नीचा दिखाना है. कारण यह कि गांधी परिवार, उनकी एकक्षत्र सुप्रीमेसी के सामने अकेला कांटा है.
पर इतिहास, इस धूल की पतली परत के नीचे से चीखता है. आवाज देता है, आप अगर व्हाट्सप और चैनलों के शोर को एक बार कान हटाकर सुन सकें. अपनी सहजबुद्धि का इस्तेमाल कर सकें.
शास्त्री की मृत्यु में, खुसुर पुसुर कैम्पेन चलता है. वे शक की सूई, इन्दिरा पर लाकर टिका देते हैं क्योंकि अगली पीएम वह बन गयी थी. सत्य यह कि वे नैचुरल सक्सेसर नहीं थी. मोरारजी थे.
मौत के बाद 10 दिन गुलजारी नंदा पीएम रहे. 10 दिन हाई वोल्टेज राजनीति चली. कामराज ने मोरारजी को छकाया और इन्दिरा को सांसदों का समर्थन दिला दिया. एमपी के डीपी मिश्रा भी इंस्ट्रूमेंटल रहे.
शास्त्री और इंदिरा इसलिए पीएम बने क्योंकि कामराज और पार्टी सिंडिकेट सत्ता में कमजोर पिट्ठू चाहता था, मोरारजी को किसी हालत में नहीं. खुद इंदिरा भी 1969 तक, एक इनेफेक्टिव पीएम और राजनीतिक गूंगी गुड़िया ही थी.
तो फिर 1965 में वह गूंगी गुड़िया थी, या इंटरनेशनल किलर और भयंकर षड्यंत्रकारी ?? अरे भई, तय कर लो पहले. निजी महानता कुछ नहीं होती. वह गांधी-टैगोर या जेपी-अन्ना के लिए जरूर पैरामीटर हो सकती है. पर पीएम का पद, एडमिनिस्ट्रेटर है. उसे सिर्फ राष्ट्रीय महत्व की पॉलिसी की इफेक्टिवनेस, लाभ और हानि पर तौलिए.
- मनीष सिंह
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