हमारे लहू को आदत है
मौसम नहीं देखता,
महफ़िल नहीं देखता
ज़िन्दगी के जश्न शुरू कर लेता है
सूली के गीत छेड़ लेता है
शब्द हैं की पत्थरों पर
बह-बहकर घिस जाते हैं
लहू है की तब भी गाता है
ज़रा सोचें की
रूठी सर्द रातों को कौन मनाए ?
निर्मोही पलों को हथेलियों पर कौन खिलाए ?
लहू ही है जो रोज़ धाराओं के होंठ चूमता है
लहू तारीख़ की दीवारों को उलांघ आता है
यह जश्न यह गीत किसी को बहुत हैं —
जो कल तक
हमारे लहू की ख़ामोश नदी में
तैरने का अभ्यास करते थे.
- अवतार सिंह संधू ‘पाश’
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