सुब्रतो चटर्जी
सवाल ये नहीं है कि क्यों किसानों का एक जत्था अपना आपा खो बैठा ? सवाल ये है कि कोई भी चुनी हुई सरकार कैसे किसी को गणतंत्र दिवस अपनी मर्ज़ी से मनाने से रोक सकती है ?
सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद दिल्ली पुलिस की ज़िम्मेदारी थी कि वे किसानों के ट्रैक्टर पैरेड का रूट तय करे. ग़लती यहीं से शुरु होती है. दिल्ली या किसी भी पुलिस का काम क़ानून व्यवस्था को बनाए रखने का है, इससे ज़्यादा क्राईम अनुसंधान की ज़िम्मेदारी है और क्रिमिनल के धर पकड़ की.
दरअसल, हम जब भी कोई सभा या प्रदर्शन करते हैं तो इसकी अनुमति या पूर्व सूचना स्थानीय कलेक्टर से लेते हैं या देते हैं, पुलिस कमीश्नर या एसपी को नहीं. ज़िलाधिकारी या एसडीओ परमिशन देने की क्षमता रखता है, पुलिस नहीं. हांं, पुलिस स्थानीय प्रशासन को धरना प्रदर्शन को शांतिपूर्ण रखने के लिए कुछ सुझाव दे सकती है, रूट इत्यादि के संबंध में. आख़िरी फ़ैसला ज़िलाधिकारी का होता है. सिविल गवर्नमेंट की कार्य प्रणाली यही होती है.
अब इस तथ्य के आलोक में सुप्रीम कोर्ट की राय को देखें. क्या सुप्रीम कोर्ट को नहीं मालूम कि दिल्ली एक लेफ़्टिनेंट गवर्नर के हाथों में है, जो कि सिविल प्रशासन का मुखिया है ? क्या सुप्रीम कोर्ट नहीं जानती कि दिल्ली पुलिस लेफ़्टिनेंट गवर्नर के अधीन काम करती है ? अगर हांं, तो किसान रैली को दिल्ली में प्रदर्शन की परमिशन सिर्फ़ दिल्ली पुलिस के हाथों कैसे सकती है ?
दरअसल, दिल्ली पुलिस सीधे तो नहीं लेकिन परोक्ष रूप से गृह मंत्रालय के अधीन है, और यही कारण है कि सुप्रीम कोर्ट ने लेफ़्टिनेंट गवर्नर की भूमिका को शून्य कर दिया. जिस समय हमारे बेवकूफ या जज़्बाती बुद्धिजीवी सुप्रीम कोर्ट की राय पर जयकारा लगा रहे थे, वे इस साज़िश को समझ ही नहीं पाए.
अब आईए आज की घटना पर. पहले ख़ुद को सत्तर दिनों तक ठंढ और बारिश में सड़क पर लाईए. पुलिस की आंंसू गैस और वाटर कैनॉन का सामना कीजिए. अपने आजू बाजू सगे संबंधियों और परिचितों को असमय मरते देखिए, फिर अहिंसा और सहिष्णुता पर भाषण झाड़ने के लिए मुंंह खोलिए.
बारिश और सूखे, क़र्ज़ और ब्याज, दलाल और बैंक, पैरों तले खिसकती हुई ज़मीन और गले में फंसते हुए फंदे की वृत्ताकार रोशनदान से अपने भूखे बच्चों के चेहरे पर लिखे सवालों को पढ़िए, फिर आईए अपनी नपुंसकता को अहिंसा का जामा पहनाने. अस्तित्व बचाने की लड़ाई अस्मिता बचाने की आख़िरी और निर्णायक लड़ाई होती है. युद्ध और प्रेम में सबकुछ जायज़ है इस बिंदु पर. इस बिंदु पर युद्ध सिर्फ़ अस्तित्व और अस्मिता बचाने के प्रेम की ही अभिव्यक्ति है.
अपराधियों के सरकार की उदासीनता और अहंकार को कोई भी अहिंसक (कनपुंसक) आंदोलन नहीं मिटा सकेगा, ये लिख कर रख लीजिए. कृपया मुझे गांंधी न पढ़ाएंं; आपसे पढ़ने की उम्र बहुत पहले चली गई है. बस इतना याद रखिये कि गांंधी जी का सामना विक्टोरियन नैतिकता से सुसज्जित अंग्रेज़ों से था, जिनको लोक-लाज की परवाह थी. आपका मुक़ाबला अपने नंगेपन पर गर्व करने वाले अपराधियों से है, जो न संविधान मानते हैं और न क़ानून.
आप खूंंख्वार जानवर से मंत्रोच्चारण कर कभी नहीं जीत सकते. ये गिरोहबंद फ़ासिस्ट हैं, जिन पर न आपकी हत्या का कोई असर होता है और न आपकी आत्महत्या का. इनके लिए आप महज़ एक गिनती हैं, वयस्क हुए तो ज़्यादा से ज़्यादा एक वोट, वो भी अगर ख़ुद को इस देश का नागरिक साबित कर सकें तो जहांं आपकी पीढ़ियांं दफ़्न हैं.
अपने शत्रु की सही पहचान ही लड़ाई का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा है. कल मैंने रुमानियत की ज़रूरत पर कुछ लिखा था, बहुत कम लोगों ने पढ़ा. अरोबिंदो घोष का आध्यात्मिक विद्रोह भी एक रुमानियत है, सुभाष की आज़ाद हिंद फ़ौज भी और गांंधी का सत्याग्रह भी. सवाल है कि आप किस रुमानियत को किस तरह के शत्रु के ख़िलाफ़ कब और कैसे इस्तेमाल करते हैं ?
आज के बाद लड़ाई को दूसरे पायदान पर ले जाने की ज़रूरत है. इस सरकार को इस्तीफ़ा देने पर बाध्य करने की. अंतिम पायदान तो हमेशा हर तरह के शोषण और उत्पीड़न को ख़त्म कर एक समतामूलक समाज बनाने की है ही.
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