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क्यों बरसती है छात्रों पर लाठियां ?

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प्रतिकात्मक तस्वीर

बिहार विद्यालय परिक्षा समिति के परीक्षाफल में भारी लापरवाही और गड़बड़ी से असंतुष्ट छात्रों को पुलिस ने हैवानियत की हदों तक मार-मारकर अधमरा कर दिया. किसी के सर से फव्वारे की तरह बहते हुए खून ने पूरे बदन को रक्त-रंजित कर दिया, कोई अपने चोटिल पैरों के कारण चल-फिर नहीं पा रहा था, किसी की बाहें बैग को संभाल नहीं पा रही थीं और अनेक नौनिहाल अपने बदन पर चोटों के लाल निशान लिए इधर-उधर भागकर अपनी जान बचा रहे थे. प्रशासन और पुलिस की पाशविक बर्बरता क्रूर दबंगई का नंगा नाच करती रही और पूरा शहर तमाशबीन बना रहा.

अखबारों ने घायल छात्रों की रक्त-रंजित तस्वीरें एक दिन छाप कर अपनी सामाजिक भूमिका अदा कर डाली और विपक्षी राजनीतिक दलों ने अध्यक्ष के विरोध में एक लाइन का बयान देकर बेबस छात्रों पर बहुत बड़ा अहसान जता दिया. और बाकी सजग बुद्धिजीवियों ने टीवी देखते हुए अपने-अपने घरों में क्षोभ व्यक्त करके अपनी भूमिका का निर्वाह किया.

क्या अपराध था उन बच्चों का, शत्रुओं की तरह व्यवहार करते हुए जिन पर अंधाधुंध लाठियां चलाई गईं ? यही न कि वे अपने रिजल्ट में गड़बड़ी को लेकर क्षुब्ध थे ? उनमें से कई क्षुब्ध थे इसलिए कि इस रिजल्ट के चलते उनका जीवन शाह से सईस हो जाने वाला था, कई इसलिए नाराज थे कि उनका नामांकन कहीं ठीक जगह पर नहीं होने वाला था, कई इसलिए भी आक्रोशित थे कि आई.आई.टी. में चयनित होने के बावजूद नामांकित होने से वंचित हो जा रहे थे, कई परेशान हो रहे थे इसलिए कि आगामी परीक्षाओं में सम्मिलित होने से छूट रहे थे. और, ये सब खामियाजे उन्हें बोर्ड की लापरवाही के कारण भुगतने थे. उसमें उनकी कहीं कोई भूमिका नहीं थी. और, अपनी गलती के लिए बोर्ड के किसी अधिकारी ने निकलकर माफ़ी नहीं मांंगी, बल्कि अपनी गलती पर भी बोर्ड के अधिकारियों ने मासूम छात्रों को खूनी सबक सिखाया कि न्याय मांगने के लिए भी बोलोगे तो यही हश्र होगा.

ये वही बच्चे हैं, जिनके लिए क़ानून बना हुआ है कि उनको पढ़ाने वाले उनके शिक्षक भी उन्हें नहीं डांट सकते हैं. फिर इस खूनी बर्बरता के बेशर्म प्रदर्शन पर कोर्ट क्यों मौन रह गया ? वही कोर्ट, जो गाय-सूअर के घूमने पर भी स्वत: संज्ञान लेता है और क़ानून बनाते रहता है.

लगता है कि सत्ता की लाठियों के खौफ ने पूरे समाज को घर में घुसा दिया है. खून से लथपथ बच्चे सड़क पर जान बचाने के लिए भागते-दौड़ते रहे और पूरा शहर मौन रहा. समाज से आगे बढ़कर कोई उन बेगुनाहों के साथ खड़ा नहीं हुआ. छात्रों के हितों की राजनीति करने वाले किसी छात्र संगठन के दिमाग पर सड़कों पर बहता हुआ लहू नहीं चढ़ा.

सत्ता-प्राप्ति के लिए ही सही, विपक्ष की राजनीति करने वाले किसी दल के लोगों ने इस जघन्यता के विरुद्ध सड़कों पर उतरकर बवाल नहीं मचाया. और तो और, क्रान्ति के वारिस कम्युनिस्टों का भी खून गर्म नहीं हुआ. बात-बेबात शहर को पंगु बना देनेवाले बातूनी क्रान्ति के अभ्यस्त अभिनेताओं के किसी नारे ने भी लोकतंत्र को ठेंगे पर दिखाने के इतने बड़े हादसे पर आसमान के दिल को नहीं दहलाया.

लगता है, हम बहुत भीतर तक मर चुके हैं. लगता है, हमारी टिमटिमाती हुई आंंखों के पीछे का मस्तिष्क लकवाग्रस्त हो गया है. हम देखते तो हैं, लेकिन समाचार की तरह और वे समाचार अब झकझोरते नहीं हैं.

– अनिल कुमार राय के वाल से

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