कनक तिवारी, वरिष्ठ अधिवक्ता, उच्च न्यायालय, छत्तीसगढ़
एक डच उपन्यासकार के उपन्यास की डेढ़ दो करोड़ की आबादी वाले नदरलैण्ड में सात लाख प्रतियां बिक चुकी हैं. अरबपति आबादी के प्रकाशक बमुश्किल एक हजार प्रतियां तक छापते हैं.
पुस्तकों की समाजोन्मुख भूमिका और बदलती भूमिका और उन पर पड़ने वाले वैज्ञानिक, मनोवैज्ञानिक बल्कि समाजविरोधी दबावों की छानबीन भी दिलचस्प है. किताबें विचारों की अतिरिक्त ऊर्जा से लबरेज़ होकर पाठकों से बतियाती रहती हैं. जब से पुस्तकों की लिपि ईजाद हुई है, वे मनुष्य के आत्यंतिक सरोकारों के केन्द्र में धंसती गई हैं. लगता है कि पुस्तकों के बिना या उनके पहले का मनुष्य जीवन रहा भी होगा या नहीं. वे इन्सानी व्यवहार का दस्तावेजी प्रमाण ही नहीं, विचारों की बाहरी आत्मा भी हैं. जाहिर है कैलिग्राफी भारत की देन नहीं है. हम श्रुतियों और स्मृतियों के देश रहे हैं. भारत को अपनी यादें लेखी में परिवर्तित करने पर अद्भुत रोमांच हुआ होगा. वह रोमांच अब इतिहास की सतरों पर मजबूत ‘फाॅसिल’ की तरह है. किताबें सब तरह के हमले झेल रही हैं. दूरदर्शन, कम्प्यूटर, इंटरनेट जैसे संचार माध्यम किताबों पर मशीन का हमला भी हैं. उनमें लेकिन स्पर्श, बार बार मुखातिब होने, साथ-साथ यात्रा करने का एडवेंचर कहां ? पढ़ने की वृत्ति उसी तरह क्षीण हुई है जैसे लोक जीवन में मर्यादाएं या ईमानदारी. इस घालमेल के बावजूद किताबें पढ़ने का चस्का मादक पदार्थों के व्यसन की तरह एक बड़ी आबादी की सामाजिक आदत के रूप में अब भी बरकरार है. इसे बार-बार कुरेदा जाता है, रेखांकित किया जाता है.
हिन्दी के लेखन संसार में किताबों की गलती नहीं है कि वे उत्पादित की जा रही हैं. लेखक वर्ग को वांछनीयता की इबारत के तिलिस्म समझ लेने चाहिए. क्या वजह है मराठी, बांग्ला और मलयालम जैसी भाषाओं में ढेरों लेखक हैं. किताबों के प्रकाशन और उपलब्धता (इसलिए संभवतः उपलब्धि) की समस्या नहीं है. इन प्रदेशों में खरीदकर पुस्तक पढ़ने का रिवाज है. परिवार शाम को सामूहिक वाचनालय में तब्दील हो जाते हैं. मध्य वर्ग धनहीनता का रोना नहीं रोता. अपनी शाइस्तगी, सादगी के चलते किताबें अन्य वस्तुओं पर तरजीह पाती खरीदी जाती हैं. इन जुबानों में लेखक लोकप्रिय साहित्य भी रच रहे हैं. हिन्दी का लेखक तुलनात्मक दृष्टि से अपनी श्रेष्ठता प्रदर्शन के दम्भ, छद्म या बुलंद हौसले में पाठक से संवाद के लायक साहित्य रच ही नहीं पाया इसलिए निराला, मुक्तिबोध, अज्ञेय या निर्मल वर्मा तक के कितने पाठक हैं ? बाकी की बात तो जाने दें. एक डच उपन्यासकार के उपन्यास की डेढ़ दो करोड़ की आबादी वाले नदरलैण्ड में सात लाख प्रतियां बिक चुकी हैं. अरबपति आबादी के प्रकाशक बमुश्किल एक हजार प्रतियां तक छापते हैं.
यूरोप ने श्रेष्ठ, लोकप्रिय और अवांछित साहित्य के बीच की विभाजक रेखाएं खींच ली हैं. उन्हें जनमानस भी उसी तरह समझता है, जैसे विषुवत या कर्क रेखाओं को. शास्त्रीय ग्रंथ (क्लासिक्स) के मुकाबले चलताऊ या समकालीन महत्वपूर्ण लेखन भी तरजीह नहीं पाता. रेमंड एराॅन के मुकाबले सेंचुरियन बैट्समैन की तरह गुन्टर ग्रास ने ही पिच सम्हाल रखी है. शेक्सपियर, मिल्टर, होमर, वर्जिल, अनातोले फ्रांस वगैरह मील के पत्थरों की तरह साहित्य-सागर के लाइट हाउस बने खड़े हैं. अश्लील साहित्य के लेखन, प्रकाशन, वितरण पर भी कानूनी बन्दिशों के बदले यूरोप में पाठकों का आत्म नियंत्रण मोर्चा सम्हाले हुए है. यही कारण है जिस यूरोप के सामाजिक जीवन में अश्लीलता की सड़ांध आदतन सूंघते हैं, वह उन विग्रहों से मुक्त होकर अपनी बौद्धिक रुचियों के परिष्कार-परिच्छेद में है. हम हैं कि बावेला मचाए हुए हैं और अन्दर ही अन्दर अपनी अधकचरी, कुंठित और यौन-असंतुष्टि की वर्जनाओं के शिकार भी हैं. यह तर्क गांधी के निकट जाता है. गांधी अश्लीलता को लेकर कानूनी सेन्सर के खिलाफ थे. उनका कहना था समाज स्वतः अश्लीलता और सुपाच्य साहित्य में फर्क करने की तमीज़ रखता है. नहीं रखता है, तो यह वृत्ति विकसित होनी चाहिए.
पुस्तकों में पसरी दृष्टि या उनकी दार्शनिकता का विस्तार ऐसी सामाजिक जटिलता भी है. जब तक बुद्धिजीवी अपनी क्रियाशीलता के रूपांतारण के लिए जोखिम उठाकर राजनीति में सक्रिय हिस्सेदारी नहीं करेंगे पुस्तकें चूं चूं का मुरब्बा ही बनाकर रखी जाएंगी. बुद्धिजीवी हाथी दांत की मीनार को अपना घर क्यों समझते हैं ? उनके जीवन में पसीने की गमक का प्रसार कितना है ? पांच सितारा होटलों के कन्वेन्शन हाॅल में काव्यपाठ किताबों की सत्ता का अनुभूति फलक नहीं है. पुस्तकें सेंट की शीशी, शेविंग किट या इस्तरी नहीं है जिनसे व्यक्तित्व के संवारने के सौन्दर्य-गुर सीखे जाएं. बन्द किताब (बुक) यदि ईंट (ब्रिक) है तो खुली किताब फ्रांस की राज्यक्रांति या हिन्द स्वराज्य का कारण भी.
पहले संस्कृत के आभिजात्य और राज्याश्रय प्राप्त श्रेष्ठि वर्ग ने जनभाषाओं को उनके शब्दों सहित इतिहास के हाशिये पर फेंक दिया और बाद में यही काम अंगरेजी भाषा की सुल्तानी ने किया. भारतीय भाषाओं की अस्मिता, इयत्ता और आनुवंषिकता के पक्षधर किताबों में शब्दों की उपस्थिति को केवल संग्रह संयोजन नहीं मानते. यह तर्क सुनने में बेहद भाया कि अच्छे लेखक और कमतर लेखक में यही फर्क है कि एक बेहतर तो दूसरा कमतर मृत शब्दों का फीनिक्स-संग्रह अपनी पुस्तक में कर लेता है. यह तो पाठक का नीर क्षीर विवेक है कि वह उन शब्दों को अपनी क्षमता, रुचियों और आवश्यकताओं के अनुरूप जीवित कर उनकी आत्मा के साथ साक्षात्कार करे. शब्दों के प्रति यह आग्रह, प्रतीति और विश्वास भाषा की मारक क्षमता के लिए निर्दोष प्रमाणपत्र भी है. पुस्तकें हमारी भाषा का कायिक, दस्तावेजी और सर्वकालीन विस्तार ही तो हैं. शब्द ही मनुष्य की जीवंत संस्कृति के प्रहरी हैं. संस्कृति की सत्ता के राजप्रासाद पर जब भी विदेशी या छापामार हमले होते हैं, प्रहरी ही पहले शिकार होते हैं.
असल में नाटककार के लिए यह खतरा और सहूलियत दोनों है कि अपने सृजन-संवाद की प्राथमिक प्रतिक्रिया की प्रत्याशा लिए ही वह मंच या नेपथ्य में उपस्थित होता/रहता है. शब्द और भाषा की संचार शक्ति का यह फौरी आकलन भी है. (सम्मेलनों और गोष्ठियों के जरिए कवि की भी ऐसी ही स्थिति हो सकती है.) लेखक शब्दों का प्रयोग अपनी क्षमता के अनुसार करता है. पाठक इकाई नहीं बहुवचन है. ग्राह्य शब्दों का प्रचलन एक सामाजिक आदत है. जो शब्द पाठक संसार में अबूझे, अजनबी या अपरिचित विन्ध्याचल हैं, उन्हें भटकना ही पड़ता है. यदि समाज ने सदियों में अरबी, फारसी, अंगरेजी वगैरह के शब्दों को किसी सांस्कृतिक समास की तरह अपना लिया हो तो यह किसी भी लेखक का दम्भ प्रयोजन नहीं हो सकता कि वह भाषा के सोंटे से कठिन शब्दों का उच्चारण सिखाए. वह किताब बंद फाइल की तरह इतिहास के तहखानों में दाखिल दफ्तर हो जाती है तो शब्दों को लेखक के मगरूर तेवर का सूचीपत्र बनाती है.
लोहिया भाषा और भूख को एक ही सिक्के के दो पहलू कहते थे तो वह हवा को मुट्ठी में बंद करने जैसा लगता था. हिन्दी को लेकर एक बड़ी दिक्कत है भी. नागपुर और पुणे अपने अपने हितों के लिए लड़ सकते हैं लेकिन कोख दोनों की मराठी ही है. कोख इतिहास और भूगोल दोनों होती है और कुछ भी होने के साथ-साथ. लेकिन हर हिन्दी भाषी की पहचान है कि वह किस जिले या नगर का है. वह पीढ़ियों तक अपने पेट कटे नाड़े को यहूदी जुमले में याद करता रहता है. माता की कोख के बाद मां की ही गोद व्यक्ति चेतना का पहला विश्वविद्यालय है. इस लिहाज से हिन्दी के लेखक बिखरे, बिफरे और बिसरे हुए क्यों हैं ? उनकी किताबें मराठी, तेलगू या असमिया की तरह केवल हिन्दी की हैं. वे बुंदेलखंडी, मालवी, ब्रज या भोजपुरी कोख के हिन्दी रूपायन क्यों हैं ? हिन्दी का समाज सबसे बड़ा है लेकिन वह राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के सबसे बड़े घटक होने के बावजूद क्षेत्रीय पार्टियों की तरह एकजुट, प्रतिबद्ध और एकमुख क्यों नहीं है ?
यादों के कबाड़खाने में गुम हो चुके शब्दों को खंगालना बेचैन करने वाला रोमांटिक काम भी है. ऐसे शब्द केवल गुम नहीं हुए हैं. एक जीवन पद्धति, जीवन अनुभव बल्कि जीवन व्याख्या गुम हो जाने की त्रासदी भी इससे उपजी है. ये शब्द जब भी वापस मिलते हैं, लाॅटरी खुलने-सा सुख मिलता है. वर्षों बाद मां को विदेश, परदेस से लौटा हुआ बेटा मिलता है तो भाषा बनी मां बलैयां लेती है. जब वे परम्पराओं का परिष्कार बल्कि आधुनिकीकरण करती हुई उनके समावेशी चरित्र के कंटूर गढ़ती हैं.
सदियों से पुस्तकालय (भले ही इस्लामी सभ्यता के भारत प्रवास के बाद) जीवित मानव पुंज रहे हैं. पुस्तकालयों की खस्ता हालत भारतीय जीवन के भग्नावशेष का समानांतर भाष्य है. जब तक पुस्तकें खरीदकर पढ़ने की वृत्ति विकसित नहीं होती, साक्षरता आन्दोलन को निरक्षरता की बांझ प्रतिक्रिया से अधिक कुछ नहीं कहा जा सकेगा. यह किताब है जो हमसे रोमांटिक प्रवृत्तियों में अभिसार करने की लालसा रखती है. वही बुजुर्ग की तरह हमारी पीठ पर उत्साहवर्द्धन का धौल मार सकती है. वही हमें भौतिक जगत से मुक्ति का मार्ग दिखाती है. किताब मृत्युंजय है. वही लोकप्रिय है. वही हमारा समूचा एकांत है. 21वीं सदी किताब की पहली या आखिरी सदी नहीं है. कालातीत अनुभव सदियों की घड़ी में टिकटिक नहीं करते, कालातीत होना किताबों का होना है.
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