हाल ही में अमेरिका में चल रहे ब्लैक आंदोलन में आंदोलनकारियों ने गांधी की मूर्ति को क्षतिग्रस्त किया. इससे पहले 2018 में घाना की राजधानी में स्थिति किसी विश्वविद्यालय से गांधी की मूर्ति हटाई गई थी. इन दोनों ही जगहों पर गांधी नस्लभेद के समर्थक ठहराए गए.
भारत के कुछ परम विद्वान जिसमें पुरुषोत्तम अग्रवाल, अशोक कु. पांडेय, राजमोहन गांधी आदि अरुंधती रॉय और अश्विन देसाई को इसका जिम्मेदार मानते हैं. अरुंधती रॉय ने ‘एनिहिलेश्न ऑफ कास्ट’ में अपने द्वारा लिखी भूमिका को ‘The Doctor and the Saint’ शीर्षक से पुस्तकाकार छपवाया है. अरुंधती की इसी पुस्तक को आधार बनाकर उपरोक्त विद्वान फेसबुक पर एक मुहीम के तहत अरुंधती को बदनाम करने की कोशिश कर रहे हैं.
इनका मानना है कि अरुंधती की पुस्तक ने ही विदेशों में गांधी की छवि को खराब किया है. और साथ ही वे भारतीय संस्कृति की विरोधी भी हैं आदि, आदि. हालांकि अशोक पांडेय, अश्विन देसाई को अधिक दोषी मानते हैं. अरुंधती की ऊपर लिखित पुस्तक में अधिकांशतः तथ्य ही हैं. इसके लिए उन्होंने गांधी और अम्बेडकर के लेखन को ही आधार बनाया है.
आज जब हमारे सामने बाबरी, गुजरात, हाशिमपुरा,मुजफ्फरनगर घटित हो चुके हैं. हम इस देश में हज़ारों हजार फूलन को कराहते हुए देख रहे हैं. हम देख रहे हैं कि रामराज्य जैसी बीमारी पूरे देश को लील रही है. तब गांधी की प्रासंगिकता क्या है ? क्या रामराज्य के स्थापना की कल्पना एक प्रतिगामी कल्पना नहीं है ? क्या यह संघ के पक्ष में नहीं जाती ? ये विद्वान नामधारी लोग इस बारे में भी कोई विचार रखें. गांधी के कुछ विचार मैं यहां साझा कर रहा हूं –
गांधी अछूतों को जबरदस्ती हिन्दू धर्म में बनाए रखने के लिए गोलमेज सम्मेलन में अंबेडकर के प्रतिनिधित्व को अस्वीकार कर देते हैं – ‘अगर वे (अंबेडकर) अस्पृश्यों के सच्चे प्रतिनिधि होते तो मैं अलग हो जाता….. मैं उनका अस्पृश्यों का प्रतिनिधि होने का दावा स्वीकार नहीं करता. उनका प्रतिनिधि मैं हूं. आप उनसे पूछकर देखिए. हो सकता है, वे मुझे न चुनें, लेकिन डॉ. अंबेडकर तो कदापि नहीं चुने जाएंगे.[1]
गांधी अपने आप को हिन्दू मानते हुए कहते हैं- ‘मैं वंशानुगत गुणों पर विश्वास रखता हूं और मेरा जन्म एक हिन्दू परिवार में हुआ है इसलिए मैं हिन्दू हूं.'[2]
‘शूद्र को वेदाध्ययन करने का अधिकार नहीं है’- यह वाक्य सर्वथा ग़लत नहीं है. शूद्र अर्थात् असंस्कारी, मूर्ख, अज्ञानी. ऐेसे व्यक्ति वेदादि का अध्ययन करके उन का अनर्थ करेंगे.'[3]
‘मेरा वर्ण- भेद का मानना सृष्टि के नियमों का समर्थन करता है. हम अपने माता – पिता के गुण- दोष जन्म से ही विरासत में प्राप्त करते हैं…. एक ही जन्म में अर्जित संस्कारों को सर्वथा मिटा देना शक्य नहीं है. इस अनुभव को देखते हुए जो जन्म से ब्राह्मण है, उसे ब्राह्मण मानने में ही सब प्रकार से लाभ है. विपरीत कर्म करने से ब्राह्मण इसी जन्म में शूद्र बन जाए और संसार उसे फिर ब्राह्मण मानता जाए तो इस से संसार की कोई हानि नहीं.'[4]
‘मैं वेदों, उपनिषदों, पुराणों और हिन्दू-धर्म ग्रंथों के नाम से प्रचलित सारे साहित्य में विश्वास रखता हूं और इसलिए अवतारों और पुनर्जन्म में भी.'[5]
‘वर्ण का संबंध जन्म से तो है. यह संबंध आवश्यक तो नहीं लेकिन गहरा अवश्य है. वर्णाश्रम धर्म के पालन का अर्थ है कि पूर्वजों द्वारा बताए गए सभी आनुवांशिक और पारंपरिक नियमों को कर्तव्य समझ कर पालन.'[6]
‘वर्णों के नियम का अर्थ है कि प्रत्येक व्यक्ति को धर्म समझ कर कर्तव्य पालन करना चाहिए. यही पूर्वजों द्वारा बताया गया है….. शूद्र शारीरिक मेहनत, सेवा और कर्तव्य समझ कर करता है, उस के पास अपना कहने को कुछ भी नहीं है, स्वामित्व की उस की कोई चाह भी नहीं है. वरीयता के अनुसार संसार को सब से पहले उस का सम्मान करना चाहिए. वह सबका स्वामी है क्योंकि वह बड़ा सेवक है. कर्तव्यपरायण शूद्र निश्चय ही किसी भी अधिकार को छोड़ देगा लेकिन ईश्वर उस पर सबसे अधिक कृपा करेगा.'[7]
सन्दर्भ :
[1] संपूर्ण गांधी वाङ्मय, खंड -48, प्रकाशन विभाग, सूचना और प्रसारण मंत्रालय, भारत सरकार, नई दिल्ली, 1971,पृ. – 32[2] हिन्दू धर्म क्या है ? महात्मा गांधी, नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया, ए-5,ग्रीन पार्क, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण, 1993, पृ. – 4
[3] वही, पृ. – 93
[4] वही, पृ. – 54
[5] वही, पृ. – 6
[6] संपूर्ण गांधी वाङ्मय, खंड-8, प्रकाशन विभाग, सूचना और प्रसारण मंत्रालय, भारत सरकार, नई दिल्ली, 1974, पृ. – 64
[7] वही, पृ. – 66
- सुरेश जिनागल
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