राम और जाने किसके-किसके नाम पर वोटों की भीख मांगने वालों को “रंक से राजा” बनाने वाली व्यवस्था का नाम है “लोकतंत्र”. सत्ता की कुर्सियों पर बैठने के बाद वो भूल जाते हैं कि कटोरा हाथ में ले के उन्हींं गलियों-सडकों पर दुबारा जाना पड़ेगा. आज जहांं बीजेपी की विरोधी पार्टियां एकजुट हो उसे सत्ता से बे-दखल करने के प्रयास में जुटी है, लगभग 40 साल पहले कांंग्रेस विरोधी सोशलिस्ट नेता राम मनोहर लोहिया को कांग्रेस पर कीचड़ उछालने के लिए, उन पर डोरे डालने की शुरुआत “भारतीय जन संघ” (आज की भाजपा का मूल नस्लीय नाम) ने की थी. लोक सभा की तब की कार्यवाहियों के दस्तावेजों में लोहिया जी के उवाच दर्ज हैं.
चीनी हमले में बुरी तरह पराजय के तत्काल बाद 1963 में समाजवादी पार्टी, स्वतंत्र पार्टी और जनसंघ ने लोकसभा के लिए चार सीटों पर हुए उप चुनावों अमरोहा (जे बी कृपलानी), फ़र्खाबाद (राम मनोहर लोहिया) और राजकोट (मीनू मसानी), जौनपुर (दीनदयाल उपाध्याय) में सभी पार्टियों ने मिलकर साझा उम्मीदवार उतारे थे. जौनपुर छोड़ सभी तीन सीटों पर कांग्रेस को पराजय का मुंंह देखना पड़ा था. इस हार के लिए चीन के हाथों मिली पराजय तो एक अहम कारण थी ही लेकिन तत्कालीन केन्द्रीय वित्तमन्त्री मोरारजी देसाई की गोल्ड कंट्रोल, अनिवार्य जमा योजना और मंहगाई ने, सरकार के विरोध की आग में घी डालने का काम किया था.
वर्ष 1967 में बिहार, उत्तरप्रदेश, हरियाणा, पंजाब और मध्यप्रदेश की विधानसभाओं में जनसंघ ने न सिर्फ समाजवादियों के साथ हाथ मिलाया, अपितु अधिकांश प्रदेशों में वामपंथियों के साथ मिलकर “संयुक्त विधायक दल” (एसवीडी) बनाया. परन्तु सभी सरकारों का कार्यकाल अल्पकालीन ही रहा. छोटी-छोटी सफलताओं से उत्साहित. कांग्रेस विरोधियों के हौसले बढ़ते गए.
1971 में जनसंघ की अगुवाई में स्वतंत्र पार्टी, कांग्रेस(ओ), प्रजा सोशलिस्ट पार्टी, और संयुक्त सोशलिस्ट पार्टियों ने मिलकर महागठबंधन बनाया. ये बात दूसरी है कि इसी दौरान कांंग्रेस में जबर्दस्त टूटन भी हुई परन्तु इस सब के बावजूद भी कांग्रेस ने 352 सीटें जीती.
वर्ष 1977 में आपातकाल की समाप्ति के बाद हुए लोकसभा चुनावों का सामना करने के लिए, कई दलोंं ने अपना विलय करके एक नई पार्टी “जनता पार्टी” बनायी. जनसंघ ने भी अपनी हिन्दूवादी सिद्धांतों का “जलता हुआ दीपक” (चुनाव चिन्ह) बुझा, जनता पार्टी में अपना विलय कर दिया. कांंग्रेस को सत्ता से बे-दखल जो करना था. ‘किसी का शगुन बिगाडने के लिए अपनी आंंख फोड़ने’ जैसा कदम उठाने में भी उसे कोई गुरेज नहींं हुआ. दुर्भाग्य, आरएसएस के भूत ने उसका पीछा यहांं भी नहींं छोड़ा.
जनता पार्टी के भीतर कुछ नेताओं को इस बात से गहरा एतराज था कि जनता पार्टी में विलय के बावजूद भी “जनसंघियों” ने अपने रिश्ते आरएसएस से ख़तम नहीं किया. यानी जनता पार्टी की सदस्यता और साथ ही आरएसएस की भी सदस्यता, और यह दोहरी सदस्यता का विवाद इतना बढ़ गया की जनता पार्टी ही इस मुद्दे पर टूट गई. यानी जो हश्र संयुक्त विधायक दलों की सरकारों का राज्यों में हुआ वही केंद्र में जनता पार्टी का हुआ.
इसके बाद 22 अगस्त, 1979 को तत्कालीन राष्ट्रपति नीलम संजीव रेड्डी ने लोकसभा भंग करदी. जनवरी 1980 को हुए लोकसभा चुनावों में जनता पार्टी बुरी तरह हारी, कांग्रेस ने 353 सीटेंं जीत कर भारी सफलता हासिल की.
31 अक्टूबर, 1984 को इंदिरा गांधी की हत्या कर दिए जाने के बाद हुए चुनावों में कांग्रेस ने जो रिकॉर्ड बनाया है, मोदी जी भी 2014 में अपनी लोकप्रियता के चरम पर पहुंचने के बाद भी नहीं तोड़ पाए. इस चुनाव में 415 सीटों पर कांग्रेस के प्रत्याशी सफल हुए. 1952 से तब तक हुए चुनावों में कांग्रेस की सर्वाधिक सफलता है यह. यहांं उल्लेखनीय है कि ‘भाजपा’ को मात्र दो सीटों पर ही संतोष करना पड़ा था. उत्तर प्रदेश की 85 सीटों में से 84 सीटों पर कांग्रेस प्रत्याशी जीते थे.
भाजपा ने फिर 1989 में कांंग्रेस की घेराबंदी करने के लिए ‘नेशनल फ्रंट’ बनाया जिसमें सभी कम्युनिस्ट पार्टियों (भाजपा की कट्टर विरोधी, सांप-नेवला जैसी) के अतिरिक्त जन मोर्चा, जनता पार्टी, लोकदल, कांग्रेस (एस), डीएमके, टीडीपी, असम गण परिषद् सब मिलकर कांग्रेस के खिलाफ चुनाव मैदान में उतरे. इस चुनाव में कांग्रेस 197 सीटें लेकर सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी लेकिन नेशनल फ्रंट को चूंंकि ज्यादा सीटें मिली थी, उसकी सरकार तो बनी पर भाजपा और कम्युनिस्ट पार्टियांं सरकार में शामिल नहींं हुई. उन्होंने बाहर से सरकार को समर्थन दिया. कांग्रेस से निष्कासित वी. पी. सिंह प्रधानमंत्री बने.
बाबरी मस्जिद मुद्दे को गर्माने के लिए लालकृष्ण अडवाणी के नेतृत्व में निकाली जा रही राम रथ यात्रा का चक्का बिहार के समस्तीपुर में रोक दिया गया. तत्कालीन बिहार की लालू सरकार ने लालकृष्ण आडवानी को गिरफ्तार कर लिया. जिसके विरोध में 23 अक्टूबर, 1990 को भाजपा ने समर्थन वापस ले लिया.
वी. पी. सिंह को उम्मीद थी की वह सदन का विश्वास हासिल कर लेंगे परन्तु 7 नवम्बर, 1990 में लाया गया विश्वासमत प्रस्ताव पास न हो सका. चंद्रशेखर ने जनता दल के 64 सांसदों को तोड़ कर कांग्रेस के बाहरी समर्थन से सरकार बनायी, जो मार्च 1991 तक ही चली.
वर्ष 1991 में कांग्रेस ने पुनः सत्ता में वापसी की और नरसिम्हा राव ने पुरे पांच साल सरकार चलाई. 1996 से 1999 तक अस्थिता का ही दौर बना रहा. अटल बिहारी वाजपाई पहले 13 दिन और दूसरी बार 13 महीने प्रधानमन्त्री बने. 1999 में हुए चुनावों में भाजपा 20 दलों का गठबंधन बना कर चुनाव में उतरी और पहली बार देश में किसी गठबंधन सरकार ने अपना पांच साल का कार्यकाल पूरा किया. कांग्रेस ने भी 2004 और 2009 में गठबंधन सरकारेंं बनाई.
भाजपा और उसकी मातृ पार्टी जनसंघ ने कांंग्रेस की जड़ खोदने के प्रयास में कम एड़ियां नहीं घिसी है. चाल, चरित्र, रीति, नीति सब कुछ राम जी के हवाले कर, सर मुड़ा हर उस पार्टी का हाथ पकड़ा, जिनकी आलोचना पानी पी-पी कर करती रही थी. आज के नौजवान भी तो जाने, कितना सुनहला या काला दामन रहा है, आज की भाजपा के पूर्वजों का.
कांग्रेस को सत्ता से बे-दखल करने के प्रयास, भाजपा अभिमन्यु की तरह गर्भधारण से ही सीखती रही और करती रही है. वर्ष 1960 से शुरू, उसके प्रयास भी राजनैतिक शुचिता के दायरे में न रहे. पर 2014 से तो उसने झूठ, कपट, मक्कारी, छल, फरेब, जुमलेबाजी आदि-आदि की सारी हदें तोड़ पूरी तरह बेशर्मी, बे-हयाई धारण कर चौड़े में खड़ी हो गयी है.
वर्ष 1971 में अटल बिहारी बाजपेयी ने पकिस्तान के दो टुकड़े कर कश्मीर का बदला लेने के लिए, तब सदन में खड़े होकर इंदिरा को चंडी का अवतार बताया था. वही मोदी जी ने एक के बदले दस सर काट कर लाने के गाल तो बहुत बजाये गए, पर अभी तक करके कुछ दिखा नहीं पाए. इंदिरा के मुकाबले मोदी आज बहुत बौने नजर आते हैं. आज का नौजवान कांंग्रेस के इस गौरवमयी इतिहास को कभी जान न पाए इसलिए देश को कांंग्रेस मुक्त बनाने के पाऊं तो बहुत पीटे जा रहे हैंं, अब ये बात दीगर है कि राजनीति के अपने सबसे बुरे दौर से गुजर रही कांग्रेस में उतनी ही जान पड़ती जारही है.
लेकिन याद नहीं पड़ता कांंग्रेस के नेताओं ने कभी अपने राजनैतिक विरोधियों को कुत्ता, बिल्ली, सांप और नेवला बताया हो !!
– विनय ओसवाल
वरिष्ठ पत्रकार एवं राजनीतिक विशेषज्ञ
सम्पर्क नं. 7017339966
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