मैंने बम नहीं बांंटा था
ना ही विचार
तुमने ही रौंदा था
चींटियों के बिल को
नाल जड़े जूतों से.
रौंदी गई धरती से
तब फूटी थी प्रतिहिंसा की धारा
मधुमक्खियों के छत्तों पर
तुमने मारी थी लाठी
अब अपना पीछा करती मधुमक्खियों की गूंंज से
कांंप रहा है तुम्हारा दिल !
आंंखों के आगे अंधेरा है
उग आए हैं तुम्हारे चेहरे पर भय के चकत्ते.
जनता के दिलों में बजते हुए
विजय नगाड़ों को
तुमने समझा था मात्र एक ललकार और
तान दीं उस तरफ़ अपनी बन्दूकें…
अब दसों दिशाओं से आ रही है
क्रान्ति की पुकार.
- वरवर राव, संग्रह: ‘साहस गाथा’ से
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