बंजर नहीं है हमारी मनोभूमि
उसमें भी लहलहाती हैं फसलें,
सपनों की…
हमारी दृष्टिपटल पर भी बिंबित होते हैं स्कूल, किताबें
और सजे संवरे हंसते खिलखिलाते हमउम्र बच्चे
जब देखता हूं उनको स्कूल ग्राउंड में
उछलते कूदते खेलते हुए
ललचा जातीं हैं आंखें मेरी
उठती है एक हूक कलेजे से
हमें नहीं बदा……
हर रोज याद आ ही जाता है वह दिन –
जब जाता था स्कूल मैं भी
कितना होता था खुश !
जब पढ़ाती थीं मैडम –
क कबूतर… ख खरगोश…
एक ही दिन में सीख गया था
मैडम जी ने रोज देती थीं अनमोल इनाम- ‘वेरी गुड’ का
मगर परसाल जब बाबू को डस लिया
कोरोना का कीड़ा
अनाथ हो गया मै
बंद हो गई पढ़ाई
तब अम्मा ने कहा-
भूख बड़ी कि पढ़ाई…..!
उसी दिन से पड़ गया जुआ
और नध गया उसी कोल्हू में….
जिसमें नधती आ रही हैं
हमारी पीढ़ियां…
- आशुतोष कुमार सिंह
[ प्रतिभा एक डायरी स्वतंत्र ब्लाॅग है. इसे नियमित पढ़ने के लिए सब्सक्राईब करें. प्रकाशित ब्लाॅग पर आपकी प्रतिक्रिया अपेक्षित है. प्रतिभा एक डायरी से जुड़े अन्य अपडेट लगातार हासिल करने के लिए हमें फेसबुक और गूगल प्लस पर ज्वॉइन करें, ट्विटर हैण्डल पर फॉलो करे…]