तंत्र के सबसे बड़े मन्दिर के प्रवेश द्वार पर जो विशाल और खूबसूरत दरवाजा है, वो तभी तक घूमता है जब तक चौखट पर कसे कब्जे पेंचों के सहारे उसे मजबूती से अपने सीने से चिपकाए रहतें हैंं. इस मन्दिर के मुख्य महंतों को, ये कभी नहीं भूलना चाहिए कि पेंच ढीले हो जाएंं और कब्जे गल जाएंं तो, ये दरवाजा कभी भी उसकी चांंद पर गिर सकता है. वो भी बिना किसी पूर्व सूचना के.
सुरक्षा के लिए जरूरी है की पेंचों को ढीला और कब्जों को गलने न दिया जाय. इस विशाल मन्दिर के भीतर का वायु मण्डल कृत्रिम है, उसमें जीने के लिए स्वच्छ प्राणवायु भी बहुत जरूरी है. स्वच्छ प्राणवायु महंतों तक पहुंचे, पर उसकी राह में पड़ने वाले अधिकांंश दरवाजे और खिड़कियाँ बंद ही हैं. मुख्य महंत की कुर्सी की दौड़ में नैसर्गिक और आभासी प्रतिद्वंदियों को पीछे धकेल आगे निकल कुर्सी तक पहुंचना किसी पार्टी की आंतरिक राजनीति का हिस्सा होती है. पर अन्तःपुर से खबरेंं तो बाहर आ ही जाती है, जिन्हें आधिकारिक तौर पर कोई या तो स्वीकार नही करता या अपने हवाले को पर्दे के पीछे छुपा ही रहने देना चाहता है. आज जिन कुर्सियों पर मुख्य महंत बैठे हैं, इन्ही राहों से गुजरे हैं।
मोदी जी, जिन राजनैतिक गलियारों से गुजर कर, मुख्य महंत की कुर्सी तक पहुंचे हैं, उस कुर्सी की दौड़ का कमोबेश चौथाई शताब्दी का इतिहास पीछे-पीछे, पीछा कर रहा है. केशु भाई पटेल, शंकर सिंह बाघेला, संजय जोशी, प्रवीण तोगड़िया और भी जाने कितने नाम है, जिन्हें आपके साथ बिताये खट्टे-मीठे पलों की यादें आज भी चैन से सोने नही देती होंगी और शायद चैन उन्हें कबर में भी नसीब न हो ! आपके बगीचे में उगे पेड़ों की जड़ों में मठ्ठा कौन लगाता है ? आज तक न कोई जान पाया, शायद जान भी न पाए. कयास है लोग लगाते रहते हैं.
निंदक नीयरे राखिये आँगन कुटी छवाय, बिन पानी, बिन साबुन निर्मल होत सभाय. भारतीय संस्कृति में भीगे कबीर की उक्त पंक्तियांं; भले ही, खुद को सत्ता का मुखिया समझने वाली और अपने को भारतीय संस्कृति की एक मात्र सम्वाहक समझने वाली पार्टी के मुखियाके स्वभाव से मेल न खाती हों , पर उसकी अपनी स्वीकार्यता तो निर्विवाद बनी ही रहेगी.
वर्तमान सत्ता को अपने ईमानदार निंदक और गद्दी का अगला वारिस बनने की दौड़ में लगे; पार्टी के अंदर प्रतिस्पर्धा में सक्रिय नेता, फूटी आंंख नहीं सुहाते, भले ही फिर वो पार्टी के प्रति पूर्ण समर्पित नेता ही क्यों न हों. लगातार पाऊंं पसारती सत्ता का गरूर उसके सर पर ऐसा सवार है कि विपक्षियों के ध्वस्त पड़े किले का मलबा उठाने का मौका मिल जाए तो उसे भी उठा अपने ड्राइंग रूम में सजाने से उसे कोई गुरेज नही. पार्टी के भीतर निष्ठावान कार्यकर्ता, अपने संगठन में संक्रमित हो गयी इस बीमारी से, बहुत मायूस है क्योंकि उन्हें लगता है कि जिस पार्टी को उन्होंने लोकसभा में दो सदस्यों से उठा कर 282 तक पहुंंचाया हैं, उस पार्टी के दफ्तर की चौखट और दरवाजों को; दफ्तर की पहरेदारी कर रहे चौकीदारों ने; उखाड़ कर कबाडखाने में फेंक दिया है. दूसरे दलों से आये अपराधिक किस्म के नेताओं को भी, कभी क्षेत्रीय तो कभी जातिगत संतुलन बिठाने के नाम पर, बेरोकटोक पार्टी में शामिल किया जा रहा है.
वर्तमान में उ०प्र० विधान सभा में विभिन्न दलों के विधायकों की अपराधिक स्थिति पर एक नजर डालते हैं-मुख्यमन्त्री योगी आदित्यनाथ और उप मुख्यमन्त्री केशव प्रसाद मौर्य सहित 20 मंत्री ऐसे हैं जिन पर आपराधिक मुकदमें दर्ज हैं. बीजेपी के कुल 312 विधायकों में से 114(36.5%) के ऊपर अपराधिक मामले चल रहे हैं. इनमें 83 पर गंभीर अपराधिक केस है. सपा के 46 में से 14(30.4%), बसपा के 19 में से 5(26.3%), कांंग्रेस 7 में से 1(14.3%) पर अपराधिक मामले दर्ज हैं.
लोकसभा में 282 सदस्यों के साधारण बहुमत वाली भाजपा ने, 543 सदस्यों वाली लोक सभा में, 35 अन्य दलों के साथ गठबंधन किया हुआ है. इस गठबंधन की सदस्य पार्टियां साथ होते हुए भी मौके-बे-मौके गुर्राती रहती हैं. यानि राष्ट्रीय लोकतांत्रिक गठबंधन के तबेले में जबर्दस्त लतियाव की ख़बरें सुर्खियांं बनती रहती हैं. भाजपा सिर्फ इस मजबूरी में मौन साधे रहती है कि वो अगर गठबंधन तोड़ दे, तो टूट कर जाने वाले भाजपा विरोधी खेमें में घुस जायेंगें.
भाजपा के लिए 2018 की शुरुआत शुभ नहीं मानी जा रही. उ०प्र० में पार्टी के कई सांसद, विधायक, और सहयोगी पार्टियां पार्टी में सब कुछ ठीक नहीं चल रहा, ये बात सार्वजनिक रूप से कहने में कोई संकोच नही कर रहे, यानी उसकी खुद की गौ-शाळा की गौउयें मरखनी होती जाती रही हैं, ये इस बात का स्पष्ट संकेत है.
उत्तर प्रदेश के मुख्यमन्त्री योगी आदित्यनाथ और उप-मुख्यमन्त्री केशव प्रसाद मौर्य दोनों क्रमशः गोरखपुर और फूलपुर से सांसद थे जिन्हें उत्तरप्रदेश का कार्यभार सम्भालने के बाद इस्तीफा देना पड़ा था. इन दोनों सीटों पर हुए उप चुनाव में भाजपा को बुरी तरह हार का मुंंह देखना पड़ा. दोनों सीटों पर भाजपा की इस असम्मानजनक हार का श्रेय दोनों दलों के मुखियाओं, मायावती और अखिलेश, को दिया जा रहा है; लेकिन वास्तविक श्रेय दोनों दलों के जमीनी कार्यकर्ताओं को जाता है. जिन्होंने बिना इस बात की परवाह किये कि जिसे वे वोट कर रहे हैं वो सपा का प्रत्याशी है या बसपा का. उन्होंने तो बस पूरी ईमानदारी से मतदान किया.
भाजपा के लिए दलित और पिछड़े उत्तर प्रदेश में ही नहीं सभी प्रान्तों में ख़ास कर कर्नाटक, जहांं अगले माह चुनाव होने हैं, में भी बहुत महत्त्वपूर्ण हैं. कर्नाटक में यूंं कहने को तो येदुरप्पा, जो लिंगायत समाज से आते हैं, भाजपा का चेहरा हैं, पर कर्नाटक में भी, भाजपा की रणनीती दलितों और पिछड़ों को पटाने की ही है. हाल ही में एससी/एसटी मामले पर सुप्रीमकोर्ट के फैसले के बाद दो अप्रैल को भारी संख्या में दलित युवाओं के स्वतःस्फूर्त सड़कों पर उतरने और भारत बंद के सफल आवाहन से उसकी फूंक सरक गयी है. उसे गलतफहमी है कि, बाबा साहब आम्बेडकर की मूर्तियों के कोट का रंग नीले से भगवा कर देने और उनके नाम में राम शब्द जोड़ देने से उच्च जाती वर्ग में, बाबा साहब के प्रति आस्था पैदा कर उन्हें सहज स्वीकार्य बनाया जा सकता है.
जनवरी में पार्टी राजस्थान में अजमेर और अलवर की दो लोकसभा सीटें और मांडलगढ़ विधानसभा सीट हार गयी. पिछले महीने मार्च में मध्य प्रदेश की मुंगावली और कोलारस की विधानसभा सीटें हार गयी. वर्ष 2014 में लोकसभा में उसके सदस्यों की संख्या 282 से घट कर 274 रहगयी है. उधर दक्षिण के छः राज्यों – तेलंगाना, आंध्रा, कर्नाटक, केरल, तमिलनाडू, पोंडिचेरी के खजाना मंत्रियों ने थिरुअनंथपुरम में, इसी 10 अप्रैल को एक बैठक कर दक्षिणी उप-राष्ट्रीयता और सांस्कृतिक पहचान को स्थापित करने और “द्रविण सहयोग” के पुराने चिरपरिचित विचार की रोशनी की मशाल को फिर से प्रज्वलित करने का फैंसला लिया है. इस विचार की आधारशिला पूरे दक्षिण भारत में कभी, द्रविण विचारधारा की पार्टी के पहले मु०म० सी0 एन0 अन्नादुरई ने रखी थी. आगे चल कर यदि “द्रविण सहयोग” का विचार मजबूती पकड़ गया तो दक्षिण भारत के राज्य केंद्र सरकार पर दबाव बनाएंगे की उन्हें सकल राष्ट्रीय आय में अपने राजस्व योगदान के अनुपात में हिस्सेदारी चाहिए. इन राज्यों में यह भावना घर कर गयी है कि वे अपनी राजस्व की आय को अपने राज्यों के विकास पर खर्च नहींं कर पा रहे, उसका बड़ा हिस्सा तुलनात्मक रूप से, पिछड़े उत्तर भारतीय राज्यों की झोली में डाला जा रहा है. यह मांग अगर जोड़ पकड़ गयी तो केंद्र सरकार के लिए नया सर दर्द पैदा हो जाएगा.
पुरे देश के लिए भाजपा के पास, एक मात्र वोट बटेरू चेहरा, प्रधानमन्त्री मोदी का होना उसकी कमजोरी भी है और ताकत भी. ताकत तभी तक जब तक विपक्ष में उनकी टक्कर का कोई वक्ता नहीं उभर कर आता. कांंग्रेस की सबसे बड़ी कमजोरी है कि उसके पास जो प्रखर युवा वक्ता हैं, वे राष्ट्रीय क्षितिज पर उभर कर या तो आ नहीं पा रहे या फिर उन्हें उभरने का मौका नहीं मिल पा रहा. राष्ट्रीय पटल पर उभरने का मौक़ा क्यों नहीं मिल रहा इसके कारणों की पड़ताल कांग्रेस को करनी है. राहुल अपने पूर्ववर्ती नेताओं की तरह वोट बटेरू चेहरा कब तक बन पाएंंगे, इन्जार करना होगा. यही कांग्रेस की सब से बड़ी कमजोरी हैं. राहुल की छबि में इतना फर्क तो पड गया है, कि लोग अब उनको ध्यान से सुनने लगे हैं.
(मूल आलेख मेें लेखक द्वारा संशोधन)
-विनय ओसवाल
वरिष्ठ पत्रकार एवं राजनीतिक मामलों के जानकार
Read Also –