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किसानों के द्वारा फसल नष्ट करने पर चिल्लाता मीडिया

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किसानों के द्वारा फसल नष्ट करने पर चिल्लाता मीडिया

लो जी, मीडिया एक बार फिर जाग गया है. जब से किसानों ने जनविरोधी, किसान विरोधी कृषि कानूनों की वापसी हेतु अपने आन्दोलन जारी रखने वास्ते कहा है कि ‘भले ही हमें अपनी दो-चार एकड़ फसल नष्ट करनी पडे, हम बगैर अपनी मांग माने घर वापस नहीं जाएंगें’, चौकन्ना होते हुए मीडिया ने अपने भोंभे के माध्यम से चिल्लाना शुरू किया कि ‘देखो किसानों को उनके नेता कितनी गलत पट्टी पढ़ा रहे हैं.’

हालांकि किसान नेताओं ने कह दिया है कि भैया ऐसा न करो. पर उन्होंने तो उन प्रदर्शनकारियों को भी लाल किला जाने को नहीं कहा था जो वहां नाटकीय अंदाज में पहुंच गये थे और जिसकी खातिर मीडिया आज तक नयी-नयी मनगढंगत कहानी लेकर उनके पीछे पड़ा है. कुछ उसी अंदाज में गलत पट्टी पढ़ाने के शोर के साथ मीडिया उनके पीछे पड़ गया है.

मीडिया के लिए ये खबर, खबर नहीं बनती कि अमेरिका अपने ज्यादा पैदा हुए अनाज को इस डर से समुद्र में डुबो देता है कि कहीं भाव न गिर जाए, तो भारत भी अपने अन्न भंडार को गरीबों में नहीं बांटता भले उस पर चूहे पलते रहें, गरीब नहीं पलने चाहिए .

मुल्क में इधर बीस सालों में चार लाख से ज्यादा किसानों ने अपनी बदहाली से तंग आकर आत्महत्या की है. हालांकि यह आत्महत्या नहीं शासन व्यवस्था द्वारा की गई हत्या है, पर किसी में संवेदना नहीं जागी.

दिल्ली बॉर्डर पर पत्थरों के बङे-बङे टीले, पुलिस से धक्का-मुक्की और पानी की बौछारें, बुलडोजर, जेसीबी मशीनें, पुलिस और सत्ता पोषित अपराधियों की लाठियां, हाइवे को खोद देने की कोशिशों के बावजूद लगातार किसानों का शानदार अनुशासित आन्दोलन इनके दिल-दिमाग को नहीं झकझोड़ता. इन्हें अचानक याद आया कि अरे यह फसल तो देश की अमानत है और इसे नष्ट करना देशद्रोह है, संवेदनहीनता की हद है, मेहनत का अपमान है.

चलो अच्छा है कि दो-चार एकड नष्ट करने के ऐलान के साथ किसान इस काबिल बने कि यह तो देश की अमानत है. देशद्रोह तो आजकल कुछ भी हो सकता है. पर किसानों के सरकार के तमाम तरह के दमनात्मक रवैये के बावजूद इस कदर बैठे रहना यह साबित करता है कि उन्हें किसी ने बहकाया नहीं है और न ही वे यूं ही उठ जाएंगे.

  • संजय श्याम

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