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किसान कानून का मोदी राज यानी कम्पनी राज और किसान आन्दोलन का जनसैलाब

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केन्द्र की मोदी सरकार अपने पिछले 7 सालों के कार्यकाल में एक-एक कर देश की सारी सम्पदाओं को देशी-विदेशी औद्यौगिक घरानों के हाथों बचेता जा रही है. देश बेचने की इसी प्रक्रिया का अगला हिस्सा है किसान कानून. परन्तु, मोदी सरकार द्वारा देश के किसानों को बेचने की इस प्रक्रिया के खिलाफ देश के तमाम किसान उठ खड़े हुए हैं, जिसके खिलाफ मोदी सरकार और उसकी अगुवाई वाली राज्य सरकार किसानों पर बम-गोलों का हैवानियत भरा हमला बोल दिया है. इतना ही नहीं देश की सड़ चुकी मीडिया संस्थान इन किसान आन्दोलनकारियों को बदनाम करने के लिए दिन-रात गालियां दे रहा है.

किसान आन्दोलनकारियों की मांगों और केन्द्र की मोदी सरकार के प्रलापकारी दुश्प्रचार के बीच जो सबसे अच्छी बात हो रही है, वह है देश की जनता का आन्दोलनकारी राजनीतिक प्रशिक्षण. यह राजनीतिक प्रशिक्षण देश की जनता को केन्द्र की मोदी सरकार को देश बेच देने की न केवल प्रक्रियावादी रणनीति के ही खिलाफ ही उठ खड़ी होगी बल्कि इसकी प्रतिक्रियावादी सांस्कृतिक और राजनीतिक प्रतिक्रिया के खिलाफ भी उठ खड़ी होगी.

देश के जनता की राजनीतिक प्रशिक्षण के इसी दौर में जन-ज्वार फाउंडेशन की ओर से जारी पुस्तिका ‘जनता बुकलेट’ का प्रकाशन किया गया है, जिसके मुख्य बातों का प्रकाशन हम यहां कर रहे हैं. उम्मीद है इस प्रकाशन का प्रभाव देश की जनता के राजनीतिक प्रशिक्षण में मददगार साबित होगी – सम्पादक

निःसंदेह 2020 राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय स्तर पर उथल-पुथल का वर्ष रहा, महामारी से लेकर बेरोजगारी तक. विशेषकर भारत में, 2020 को कानूनों का वर्ष घोषित किया जा सकता है, क्योंकि कोरोना जैसी आपदा के बीच भी भारत में ताबड़तोड़ विधेयक लाये गये और तथाकथित बहुमत प्राप्त सरकार द्वारा उन्हें पारित किया गया. इसी बीच तीन ऐसे ‘किसान कानून’ पारित किये गए जो सरकार के अनुसार ‘कृषि क्षेत्र में सुधार’ से सम्बंधित हैं, लेकिन किसान कृषक समाज बेहद ही परेशान हैं और अब लाखों किसान आंदोलित भी हैं.

सरकार तीन कृषि कानूनों को कृषि सुधार में अहम कदम बता रही है तो किसान संगठन और विपक्ष इसके खिलाफ हैं. सड़क और सोशल मीडिया में किसान संगठन आवाज बुलंद किए हुए हैं. नये कृषि कानून बिल पास होने के विरोध में एनडीए सरकार की सहयोगी पार्टी अकाली दल की नेता और केंद्रीय खाद्य संस्करण मंत्री हरसिमरत कौर बादल ने अपने पद से इस्तीफा दे दिया. दूसरी तरफ अपने जन्मदिन पर पीएम नरेंद्र मोदी ने कहा कि ‘न्यूनतम समर्थन मूल्य और सरकारी खरीद जारी रहेगी, कुछ शक्तियां किसानों को भ्रमित करने में लगी हैं, लेकिन इससे किसानों को मुनाफा होगा.’

राष्ट्रीय स्तर पर किसानों के प्रतिरोध के बीच पीएम नरेंद्र मोदी बार-बार कहते हैं, ‘हमारी सरकार नीति से और नीयत से पूरी तरह किसानों की भलाई करने के लिए प्रतिबद्ध है. पीएम नरेंद्र मोदी के अनुसार, देश में कृषि क्षेत्र में बड़े पैमाने पर निजी-निवेश की जरूरत है, ये कृषि कानून किसानों के लिए नए बाजारों, नए अवसरों और आधुनिक प्रौद्योगिकी के रास्ते में बाधाओं को दूर करने की कोशिश है. किसानों को भ्रम नहीं होना चाहिए.

किसान आंदोलन के बीच सुलग रही आशंकाएं

सवाल उठता है कि जब किसान इन विधेयकों को लेकर आक्रोशित हैं तो फिर सरकार भलाई किसकी करना चाह रही है ? क्या करोड़ों कृषक समाज को हाल में लागू किये गए कृषि कानूनों की समझ नहीं है ? क्या करोड़ों कृषक समाज के घरों में कोई पढ़ा-लिखा व्यक्ति नहीं है, जो इसे समझ नहीं पा रहा है ? क्या देश भर के अर्थशास्त्रियों, इतिहासविदों, वकीलों, जजों, अकादमिक विद्वानों, सामाजिक कार्यकर्ताओं, डाॅक्टरों, शोधरत विद्वानों और नोबेल पुरस्कार विजेताओं अर्थशास्त्राी, अभिजीत बनर्जी को भी इन तीनों कानूनों की समझ नहीं है ? आखिर ‘धरती के भगवान-किसान’ क्यों परेशान हैं ? साल 2022 तक किसानों की आमदनी बढ़ाने का वादा करने वाली केंद्र सरकार के इन विधेयकों का विरोध क्यों हो रहा है ? किसानों को वर्तमान भारत सरकार पर इस कदर अविश्वास क्यों है ? मंत्रियों की किसी बात पर किसान क्यों नहीं सहमत हो पा रहे और सबसे बढ़कर जन-जन से बात का दावा करने वाले प्रधानमंत्री मोदी किसानों से सीधी बात करने का साहस और विवेकशीलता क्यों नहीं दिखा रहे ? क्या इस किसान आंदोलन का केंद्र बिंदु केवल न्यूनतम समर्थन मूल्य है ? क्या न्यूनतम समर्थन मूल्य ही ‘अधिकतम बिक्री कीमत’  है ?

न्यूनतम समर्थन मूल्य क्या होता है ?

न्यूनतम समर्थन मूल्य भारत सरकार द्वारा देश की मुख्य पफसलों के लागत-मूल्य के आधार पर सम्बंधित फसलों की एक निश्चित मूल्य की घोषणा 1965 से प्रतिवर्ष करते आ रही है। एमएसपी किसानों को गारंटीकृत मूल्य और सुनिश्चित बाजार उपलब्ध कराती है, ताकि मूल्य में अधिक उतार-चढ़ाव को स्थिर किया जा सके. एक ओर किसानों की फसलों का न्यूनतम उचित मूल्य सुनिश्चित हो सके, दूसरी ओर भारत की जनता को एक निश्चित मूल्य पर खाद्यान्न उपलब्ध हो सके. नीति आयोग, भारत सरकार 2016 की रिपोर्ट ‘न्यूनतम समर्थन मूल्य की प्रभावकारिता पर अध्ययन यक्डम्व् रिपोर्ट नंबर 223’ के अनुसार डैच् कृषि वस्तुओं में मुक्त व्यापार की दशा में, किसानों और उनके हितों की रक्षा के लिए बहुत महत्वपूर्ण है. वर्तमान में सरकार द्वारा कुल 23 कृषि उत्पादों के लिए डैच् की घोषणा की जाती है.

तीनों कृषि सम्बंधित कानून जिनका हो रहा विरोध
  1. ‘आवश्यक वस्तु संशोधन कानून, 2020’

सरकार का तर्क और क्या कहता है कानून ?

  • इस कानून में अनाज, दलहन, तिलहन, खाद्य तेल, प्याज, गन्ना और आलू को आवश्यक वस्तुओं की सूची से हटाने का प्रावधान है. इसका अर्थ यह हुआ कि सिर्फ युद्ध जैसी ‘असाधारण परिस्थितियों’ को छोड़कर अब व्यापारी कम्पनी जितना चाहे उतना खाद्य पदार्थों का भंडारण कर सकता है.
  • सरकार के अनुसार, व्यापारी/कम्पनी को फ्री हैण्ड देने से कृषि में निजी निवेश बढ़ेगा और बड़ी-बड़ी कम्पनियां कोल्ड स्टोरेज, गोदामों, प्रसंस्करण में निवेश करेंगी, जिससे अनाज का अपव्यय नहीं होगा.
  • सरकार का यह भी मानना है कि आवश्यक वस्तु अधिनियम 1955 के कारण व्यापारी/कम्पनी निजी निवेश करने एवं जमाखोरी से डरते थे, क्योंकि इस कानून की धारा 3 में जब्त का प्रावधान है और धारा 7 में 3 माह से 7 वर्ष जेल का प्रावधान था. वर्तमान सरकार द्वारा संशोधन कर इन धाराओं को खत्म कर दिया गया है. मतलब जमाखोरी की प्रवृत्ति को खुली छूट मिलेगी.
  • बड़ी-बड़ी कम्पनियां भण्डारण, कोल्ड स्टोरेज, गोदामों, प्रसंस्करण में निवेश करेगी, कृषि इन्फ्रास्ट्रक्चर में निवेश बढ़ेगा, कोल्ड स्टोरेज और फूड सप्लाई चेन का आधुनिकीकरण होगा.
  • सरकार का तर्क है कि निजी निवेश होने से मूल्य स्थिर होगा, जिससे उपभोत्ताओं को उचित दाम पर सामान मिलेगा और किसान को फसलों का उचित मूल्य मिलेगा.

1955 का आवश्यक वस्तु अधिनियम एक ऐसे समय में कानून बनाया गया था, जब देश खाद्यान्न उत्पादन के लगातार निम्न स्तर के कारण खाद्य पदार्थों की कमी का सामना कर रहा था. हमारा देश आबादी को खिलाने के लिए आयात और सहायता पर निर्भर था, (जैसे गेहूं आयात पीएल -480 के तहत अमेरिका से आयात). खाद्य पदार्थों की जमाखोरी और कालाबाजारी को रोकने के लिए 1955 में आवश्यक वस्तु अधिनियम बनाया गया था. सरकार का तर्क है कि अब उत्पादन कई गुना बढ़ गया है, इसलिए इस कानून की अब आवश्यकता नहीं है.

आवश्यक वस्तु (संशोधन) कानून, 2020 के संभावित खतरे

आवश्यक वस्तु (संशोधन) कानून, 2020 के अनुसार कोई भी व्यक्ति जितना चाहे उतना अनाज का भंडारण कर सकता है. आश्चर्यजनक एवं विरोधाभासी तर्क है कि इससे कृषि में प्रतियोगिता बढ़ेगी और किसानों की आमदनी बढ़ेगी, गले से नीचे नहीं उतरता है. इसके उलट यह हो सकता है कि जब फसल खेतों में तैयार हो जायेगी, उस समय व्यापारी बाजार में अनाजों को उड़ेल देंगे. सस्ते दामों पर किसानों से अनाज खरीदेंगे और समय के साथ महंगा बेचेंगे. परिणामतः महंगाई बढ़ेगी, क्योंकि अब व्यापारी बेखौफ होकर आवश्यक वस्तुओं की जमाखोरी करेंगे.

2. कृषक उपज व्यापार और वाणिज्य (संवर्धन और सरलीकरण) कानून, 2020

सरकार का तर्क और कानून क्या कहता है ?

  • इस कानून में एक ऐसा इकोसिस्टम बनाने का प्रावधान है जहां किसानों को राज्य की APMC (एग्रीकल्चर प्रोड्यूस मार्केट कमिटी) की रजिस्टर्ड मंडियों से बाहर फसल बेचने की एवं व्यापारियों को खरीदने की आजादी होगी.
  • इसमें किसानों की फसल को एक राज्य से दूसरे राज्य में बिना किसी रोक-टोक के बेचने को बढ़ावा दिया गया है.
  • इसमें इलेक्ट्रोनिक/आनलाईन इन व्यापार के लिए एक सुविधाजनक ढांचा मुहैया कराने की भी बात कही गई है.
  • संवर्धित खाद्य पदार्थ (पोपकोर्न / चिप्स / केक आदि) कृषि उत्पाद माने जायेंगे.
  • अब APMC एक्ट के अंतर्गत संचालित मंडियों में किसी प्रकार का ‘शुल्क/उपकर लगान’ देय नहीं होगा.
  • किसानों एवं कंपनियों के बीच विवाद को सुलझाने के लिए विवाद बोर्ड (Dispute Board) होगा और अगर मामला नहीं सुलझता है तो SDM सुलझाएंगे ? Appellate
    Authority DM होंगे जिनके पास Civil Court की पावर होगी. यदि वह DM स्तर से संतुष्ट नहीं होते हैं तो किसान संयुक्त सचिव (जाॅइंट सेक्रेटरी), भारत सरकार के स्तर पर अपील करेंगे (सेक्शन 10).
  • इस कानून के अनुसार अब कोई भी व्यक्ति, यदि उसके पास PAN कार्ड होगा तो वह व्यापार कर सकेगा ?
  • इस कानून के प्रावधानों का उल्लंघन करने पर सम्बंधित व्यक्ति को 25 हजार से 5 लाख तक का जुर्माना देना पड़ सकता है और पुनः उल्लंघन करने पर प्रतिदिन 5 हजार रुपये की दर से हर्जाना भरना पड़ेगा.

कृषक उपज व्यापार और वाणिज्य कानून 2020 के संभावित खतरे –

  • यह कानून कहता है कि किसान अब कहीं भी अपनी फसल बेचने के लिए स्वतंत्र होगा, तो सवाल उठता है कि वह अधिकार तो किसान के पास अभी भी है, किसान जब जैसे जहां चाहे अपनी फसल बेच सकता है.
  • अब ट्रेडर्स मंडी के बाहर भी किसानों से उपज खरीद सकते हैं, जबकि पहले ऐसा नहीं था. ट्रेडर्स को APMC द्वारा संचालित मंडी में MSP पर अनाज खरीदना पड़ता था और मंडी को 6 प्रतिशत टैक्स भी देना पड़ता था. सवाल यह है कि मंडी के बाहर जब बिना टैक्स के ट्रेडर्स उपज खरीद सकते हैं तो वह मंडी में क्यों खरीदेंगे ? इस प्रकार APMC मंडी धीरे-धीरे अपना महत्व खो देगी और MSP अर्थहीन हो जायेगा. भारत सरकार का यह कहना कि वह MSP खत्म नहीं कर रही है, लेकिन स्पष्ट है कि अप्रत्यक्ष रूप से मंडी अपना महत्व खो देगी, इसका प्रभाव धीरे-धीरे यह होगा कि MSP खत्म हो जायेगी. देश में वर्तमान में 7000 मंडियां हैं और कुल 42000 मंडियों की जरूरत है. जरूरत थी कि मंडियों का देशभर में विस्तार किया जाता और अगर खामियां थी तो उसमें सुधार किया जाता.
  • कृषि व्यापार अगर मंडियों के बाहर चला गया तो ‘कमिशन एजेंटों’ का क्या होगा ? क्योंकि मंडी व्यवस्था केवल एक व्यवस्था नहीं है, बल्कि यह एक पारिस्थितिकी है जहां कृषक समाज ‘कमीशन एजेंट /आढ़तिये मजदूर, किसान’ एक तार से जुड़े हुए हैं.
  • देश में 86 प्रतिशत छोटे किसान ‘पांच एकड़ से कम वाले एक जिले से दूसरे जिले में नहीं जा पाते, तो किसी दूसरे राज्य में जाने का सवाल ही नहीं उठता. स्पष्ट है कि इसका फायदा ट्रेडर्स को मिलेगा.
  • संवर्धित खाद्य पदार्थ (पोपकोर्न/चिप्स/केक आदि) कृषि उत्पाद माने जायेंगे- इस प्रावधान का बेशुमार फायदा बड़ी-बड़ी कंपनियों को मिलेगा और कृषि-बाजार में किसान की पैदावार और कंपनियों का उत्पाद एक ही तराजू में तौला जा सकेगा.
  • किसानों एवं कंपनियों के बीच विवाद को सुलझाने के लिए SDM के नेतृत्व में Dispute Board होगा, अर्थात अब किसान या प्रभावित व्यक्ति न्यायालय नहीं जा सकेगा. सवाल उठता है कि कितने लोग SDM/DM स्तर से न्याय पा सकेंगे एवं कितने लोग भारत सरकार के संयुक्त सचिव के सामने अपनी विवादों पर बहस कर पायेंगे, अब यह भविष्य के गर्त में है. क्या एक प्रजातांत्रिक देश में इस प्रकार के कानूनों का औचित्य है.
  • इस कानून के प्रावधानों का उल्लंघन करने पर 5 लाख तक का जुर्माना होगा, यह देखना लाजिमी होगा कि एक कमजोर पक्ष की हार होगी और उन्हें जुर्माना भरना पड़ेगा, अंततः सम्बंधित पक्ष बर्बाद हो जाएगा. ऐसे उदाहरण भरे पड़े हैं ?

3. कृषक (सशक्तीकरण व संरक्षण) कीमत आश्वासन और कृषि सेवा पर करार कानून, 2020 

सरकार का तर्क और कानून क्या कहता है ?

  • यह कानून काॅन्ट्रैक्ट फार्मिंग को बढ़ावा देता है, दरअसल यह माॅडल काॅन्ट्रैक्ट फार्मिंग एक्ट 2018 का बदला हुआ स्वरूप ही है. इस कानून के नाम के अनुसार यह किसानों का सशक्तीकरण एवं संरक्षण करेगा.
  • इस कानून के तहत किसान कृषि व्यापार करने वाली फर्मों, प्रोसेसर्स, थोक व्यापारी, निर्यातकों या बड़े खुदरा विक्रेताओं के साथ काॅन्ट्रैक्ट करके पहले से तय एक दाम पर भविष्य में अपनी फसल बेच सकते हैं.
  • लिखित कृषि समझौता के अंतर्गत अनुबंधित किसानों को कम्पनी द्वारा गुणवत्ता वाले बीज की आपूर्ति, तकनीकी सहायता और फसल स्वास्थ्य की निगरानी, ऋण की सुविधा और फसल बीमा की सुविधा उपलब्ध कराई जाएगी.
  • लिखित कृषि समझौते के अंतर्गत उपज की आपूर्ति, गुणवत्ता, ग्रेड, मानक, मूल्य और समय भी शामिल होगा. किसानों पर पफसल की गुणवत्ता, किस्म, मानक, कीटनाशक अवशेष से सम्बन्धित और समय पर आपूर्ति की जवाबदेही होगी.
  • गुणवत्ता, ग्रेड और मानकों को डिलीवरी के समय प्रमाणित किया जाएगा.
  • जमीन पर खेती के सम्बन्ध में समझौता (एग्रीमेंट) एक फसल से लेकर पांच वर्ष या आवश्यकतानुसार और अधिक वर्षों के लिए हो सकेगा.
  • लिखित समझौतों के अनुसार, फसल की 75 प्रतिशत कीमत फसल आपूर्ति के समय किसानों को दी जायेगी और शेष 25 प्रतिशत का भुगतान गुणवत्ता, किस्म, मानक, कीटनाशक अवशेष से सम्बंधित जांच रिपोर्ट के बाद किसानों को दिया जायेगा.
  • इस कानून के अंतर्गत किसी भी प्रकार का ‘किसानों एवं ट्रेडर्स/व्यापारी’ के बीच का लिखित समझौता राज्य के हस्तक्षेप से मुक्त होगा.
  • किसानों एवं कंपनियों के बीच विवाद को सुलझाने के लिए Dispute Board होगा, अर्थात अब किसान या प्रभावित व्यक्ति न्यायालय नहीं जा सकेगा. सवाल उठता है कि कितने लोग SDM/DM स्तर से न्याय पा सकेंगे. अब यह भविष्य के गर्त में है.

कृषि सेवा करार कानून 2020 के संभावित खतरे

  • लिखित कृषि समझौता के अंतर्गत किसानों पर फसल की गुणवत्ता, किस्म, मानक, कीटनाशक अवशेष से सम्बंधित और समय पर आपूर्ति की जवाबदेही होगी, लिखित समझौते का उल्लंघन होने पर 25 हजार से लेकर 5 लाख तक का जुर्माना देय होगा. सवाल उठता ही कि वह तीसरी एजेंसी कौन होगी जो गुणवत्ता, किस्म, मानक, कीटनाशक अवशेष से सम्बंधित विषयों पर अपनी रिपोर्ट देगी ? क्या वह पुनः काॅर्पोरेट का अंग नहीं होगी ? थर्ड पार्टी रिपोर्ट अनुबन्ध के अनुसार नहीं रहने पर किसान को शेष 25 प्रतिशत राशि नहीं मिल पाएगी और अगर ऐसा होता है तो किसान बर्बाद हो जाएगा.
  • अमेरिका में यह माॅडल विफल हो चुका है अब अमेरिका एवं यूरोप के किसान प्रतिदिन आत्महत्या कर रहे हैं, खेती-किसानी छोड़ रहे हैं ?

सरकार का पक्ष

  • किसान बिल का न्यूनतम समर्थन मूल्य से कोई लेना-देना नहीं है. एमएसपी दी जा रही है और भविष्य में भी दी जाती रहेगी.
  • मंडी सिस्टम जैसा है, वैसा ही रहेगा.
  • किसान बिल से किसानों को आजादी मिलती है. किसान अपनी फसल किसी को कहीं भी बेच सकते हैं. इससे ‘वन नेशन वन मार्केट’ स्थापित होगा. बड़ी फूड प्रोसेसिंग कंपनियों के साथ पार्टनरशिप करके किसान ज्यादा मुनाफा कमा सकेंगे.
  • काॅन्ट्रैक्ट फार्मिंग से किसानों को पहले से तय दाम मिलेंगे, लेकिन किसान को उसके हितों के खिलाफ नहीं बांधा जा सकता है. किसान उस समझौते से कभी भी हटने के लिए स्वतंत्र होगा, इसलिए उससे कोई पेनाल्टी नहीं ली जाएगी.
  • बिल में साफ कहा गया है कि किसानों की जमीन की बिक्री, लीज और गिरवी रखना पूरी तरह प्रतिबंधित है. समझौता फसलों का होगा, जमीन का नहीं.
  • कई राज्यों में बड़े काॅर्पोरेशंस के साथ मिलकर किसान गन्ना, चाय और काॅफी जैसी फसलें उगा रहे हैं. अब छोटे किसानों को ज्यादा फायदा मिलेगा और उन्हें तकनीक और पक्के मुनाफे का भरोसा मिलेगा.
न्यूनतम समर्थन मूल्य पर भारत सरकार की रिपोर्ट

क्या देश के बहुसंख्यक किसानों को सरकार द्वारा घोषित न्यूनतम समर्थन मूल्य प्राप्त होता है ? वर्तमान में सरकार द्वारा कुल 23 कृषि उत्पादों के लिए MSP की घोषणा की जाती है. शांता कुमार कमिटी रिपोर्ट –

भारतीय खाद्य निगम (एफसीआई) की भूमिका और पुनर्गठन (2015) के अनुसार, भारत में मात्र 6 प्रतिशत किसानों को ही MSP मूल्य प्राप्त हो पाता है. इस रिपोर्ट के अनुसार विशेषकर धान एवं गेहूं के मद में ही MSP दर पर भंडारण किया जा रहा है, जिसके कारण अन्य फसलों यथा- दलहन/तिलहन का बाजार मूल्य MSP से कम रह जाता है. सरकार को चाहिए कि अन्य फसलों के भण्डारण पर भी ध्यान दे, ताकि किसानों को सही मूल्य मिल सके और कृषि फसलों में विविधता बनी रहे, क्योंकि बड़े पैमाने पर दलहन एवं तिलहन फसलों को आयात करना पड़ता है. इसी रिपार्टे के अनुसार पूर्वी उत्तर-प्रदेश बिहार, आसाम, पश्चिम बंगाल में सरकारी एजेंसियों द्वारा MSP दर पर भण्डारण नहीं करने के कारण सामान्यतः किसानों को अपनी फसलों को MSP से कम कीमत (distress sell) पर बेचना पड़ता है.

नीति आयोग (2016) की रिपोर्ट ‘किसानों पर MSP के प्रभावकारिता का अध्ययन’ के अनुसार 94 प्रतिशत किसान MSP के पक्ष में हैं और चाहते हैं कि यह जारी रहे. इस रिपोर्ट के अनुसार कुछ ही राज्यों (पंजाब, हरियाणा, आंध्र प्रदेश, महाराष्ट्र, तमिलनाडु, कर्नाटक, पश्चिमी उत्तर प्रदेश) के किसानों को MSP का लाभ मिल पाता है. अधिकांश राज्यों में MSP के सन्दर्भ में जानकारी बहुत कम है. बिहार में तो मंडी व्यवस्था 2006 में ही खत्म कर दी गई थी. पश्चिम बंगाल में तो मंडी व्यवस्था है ही नहीं, जिसके कारण इन राज्यों में बिचैलिया व्यवस्था का राज है. इस रिपोर्ट में सुझाव दिया गया था कि सबसे पहले किसानों के बीच जागरुकता बढ़ाने की जरूरत है, ताकि किसानों का ज्ञान बढ़े और उनकी सौदेबाजी की शक्ति बढ़ सके.

भारत सरकार द्वारा खरीफ के लिए घोषित MSP (रुपया/क्विंटल)


स्रोत: कृषि लागत एवं मूल्य आयोग, भारत सरकार

उपरोक्त तालिका से बाजार दरों की तुलना कर समझा जा सकता है कि क्या किसानों को तालिका में वर्णित फसल की कीमत प्राप्त सम्बन्धित वर्ष में हुई ? या यह भी जानकारी प्राप्त की जा सकती है कि जिन राज्यों में APMC मंडी व्यवस्था है, वहां के किसानों को क्या फसल की कीमत मिलती है और जिन राज्यों में APMC मंडी व्यवस्था नहीं है, वहां के किसानों को फसल की क्या कीमत मिलती है ? क्या सरकार के अनुसार, केवल बाजारवाद या निजी क्षेत्रों को बढ़ावा देने से ही किसानों को उचित कीमत प्राप्त हो सकती है ?  या दूसरी ओर किसानों का तर्क कि APMC मंडी व्यवस्था के अंतर्गत MSP द्वारा ही फसलों की उचित कीमत प्राप्त हो सकती है, विस्तृत एवं गंभीर चर्चा का विषय है ?

किसान आंदोलन का तर्क

पहला, ‘यह एक निर्विवाद तथ्य है कि केंद्र सरकार द्वारा अध्यादेशों को लागू करने के पहले और बाद में किसी किसान यूनियन से बात नहीं की गई और न ही संसद में बहस की गयी.

दूसरा, यह कानून वास्तव में सरकार द्वारा काॅर्पोरेट के लिए कानून है. इसे ‘काॅर्पोरेट का, काॅर्पोरेट के लिए एवं सरकार के द्वारा’ कहा जा सकता है. यह संघीय ढांचे पर हमला भी है. यह तीनों अध्यादेश संवैधानिक प्रावधानों Article 246 (3) read with Schedule VII, List II, Items 14-21-18-28-30-45 के अनुसार तीनों कृषि संबधी अध्यादेश फेडरल स्ट्रक्चर की अवहेलना करते हैं.

तीसरा, नया कृषि कानून काॅन्ट्रैक्ट खेती को बढ़ावा देता है, जिससे किसान भयाक्रांत हैं. वैश्वीकरण एवं काॅन्ट्रैक्ट खेती पर हुए अध्ययन बताता है कि जिन स्थानों पर काॅन्ट्रैक्ट खेती हुई और जहां कृषि काॅर्पोरेट के हवाले कर दी गई, वहां की खेती-किसानी बर्बाद हो गई.

चैथा, चिंता का मुख्य कारण एपीएमसी मंडियों का व्यवस्थित निराकरण है, जो समय की कसौटी पर खरे उतरे हैं और किसानों को खुद को बचाए रखने के लिए पारिश्रमिक प्रदान किया है. अब ट्रेडर्स मंडी के बाहर भी किसानों से उपज खरीद सकते हैं, जबकि पहले ऐसा नहीं था. ट्रेडर्स को APMC द्वारा संचालित मंडी में डैच् पर अनाज खरीदना पड़ता था और मंडी को 6 प्रतिशत टैक्स भी देना पड़ता था. इस प्रकार APMC मंडी धीरे-धीरे अपना महत्व खो देगी और MSP अर्थहीन हो जायेगा.

पांचवां, इस कानून के प्रावधानों के अनुसार, कृषि आगत, मूल्य, गुणवत्ता/स्टैण्डर्ड के सर्टिफिकेशन, जमीन सभी काॅर्पोरेट के नियंत्रण में रहेंगे.

छठा, किसानों एवं कंपनियों के बीच विवाद को सुलझाने के लिए Dispute
Board होगा और अगर मामला नहीं सुलझता है तो SDM सुलझाएंगे ? Appellate Authority DM होंगे जिनके पास Civil Court की पावर होगी. SDM से मामला नहीं सुलझने पर किसानों को भारत सरकार के ज्वाइंट सेक्रेटरी के पास जाना होगा. Civil Court सुनवाई नहीं कर सकेगा. किसान कोर्ट नहीं जा पायेंगे. देश के 85 फीसदी किसानों के पास बामुश्किल दो-तीन एकड़ जोत की भूमि है. किसी भी विवाद की हालत में उनकी पूरी पूंजी वकील की फीस भरने और आफिसों के चक्कर काटने में खर्च हो जायेगी. अर्थात न दलील, न अपील, न वकील.

सातवां, सरकार ने उपजों का भंडारण करने की छूट दी है, जिससे इस आशंका को बल मिल रहा है कि इस बिल के बाद निजी कंपनियां उपजों का भंडारण करेंगी, जमाखोरी करेंगी और बाजार में महंगाई बढ़ेगी. बाजार में अस्थिरता उत्पन्न होगी, जिसे नियंत्रित करना मुश्किल होगा और काफी उथल-पुथल मचेगी.

आठवां, किसानों का मानना है कि देश में खाद्य सुरक्षा कानून के तहत 80 करोड़ लोगों को राशन दिया जाता है, जिसे किसानों से ही खरीदा जाता है. यह राशन सरकार किसानों से खरीदकर लोगों में वितरित करती है. ऐसे में मंडियां यदि खत्म होंगी, तो पूरी आबादी के लिए खाद्यान्न संकट पैदा हो जाएगा.

अंतरराष्ट्रीय अनुभव और आशंका

जाॅन न्यूटन, चीफ इकोनाॅमिस्ट आॅफ अमेरिकन एग्रीकल्चर फार्म ब्यूरो के अनुसार अमेरिका में 1960 से अब तक लगातार फसल के कीमतों में कमी ही आई है.  अमेरिका में 85 प्रतिशत किसान कर्जदार हैं, आत्महत्या बढ़ रही है, किसान कृषि छोड़ रहे हैं, क्योंकि अमेरिका एवं अन्य विकसित देशों में कृषि बाजार के अधीन है. वहां बड़ी-बड़ी मोनसेंटों जैसी कंपनियां कृषि को कंट्रोल करती हैं. अमेरिकन माॅडल फेल हो रहा है. यदि अध्यादेश का उद्देश्य कृषि एवं किसानों का हित है तो अध्यादेश में यह संशोधन किया जाना चाहिए कि ‘न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) से कम कीमत पर मंडी के बाहर या भीतर कृषि उत्पादों की खरीद-बिक्री नहीं होगी. साथ ही आवश्यक वस्तु अधिनियम में यह संशोधन किया जाना चाहिए कि ‘आवश्यक वस्तुओं की जमाखोरी नहीं की जायेगी.’

हालांकि द फार्मर्स प्रोडड्ढूस ट्रेड एंड काॅमर्स अध्यादेश और द फार्मर्स एग्रीमेंट आॅन प्राइस एश्योरेंस एंड फार्म सर्विसेज अध्यादेश ने केवल किसानों को विचलित किया है, जबकि आवश्यक वस्तु (संशोधन) अध्यादेश से खतरा हर भारतीय को है, क्योंकि जमाखोरी के कारण हर परिवार को एक न एक दिन इसका शिकार होना पड़ेगा ?

खेती में बाजारीकरण सिर्फ किसानों को ही नहीं, गांवों के सामाजिक ताने-बाने को भी तबाह कर देगा ?

पूंजीपति जब किसानों से खेती अपने हाथ में ले लेगा तो वह आपके स्वाद, सेहत और समाज के लिए पैदावार नहीं करेगा. उसका मकसद सिर्फ एक होगा और वह है मुनाफा. जैसे अगर आपके इलाके में एक फसल पैदा करने से उसका मुनाफा होता है तो वह दूसरी फसलों को नहीं बोयेगा. ऐसे में गांव के लोगों की बाजार पर जो कम निर्भरता थी, सब कुछ खरीदना नहीं पड़ता था, वह व्यवस्था काॅर्पोरेट खेती खत्म कर देगी. जैसे किसी किसान के घर ज्यादा लौकी पैदा हुई तो वह पड़ोसियों को दे देता है, किसी ने मूली बोई और ज्यादा पैदावार हुई तो वह किसी और को दे देता है. ऐसे में जैसे शहरों में लोगों को हर सामान के लिए पैसा खर्च करना पड़ता है, वही सिलसिला गांवों में भी शुरू हो जाएगा. लोगों का एक-दूसरे से लगाव खत्म होगा और गंवई इंसान जो पड़ोसियों की खुशी में अपनी खुशी देखता है, पैसे के फेर में सब खत्म हो जायेगा. अभी जो बराबरी और भाईचारा दिखाई देता है, उसे खेती का बाजारीकरण जड़मूल से खत्म कर देगा.

उदाहरण के रूप में कोरोना के बीच शहरों के लोग जहां एक-दूसरे के घर जाना छोड़ चुके हैं, वहीं गांवों में लोगों ने बिना किसी भय के लाखों शहरी श्रमिकों को गांव जाने पर आश्रय दिया, जो संभव हो सका वह मदद की और फिर से जिंदगी शुरू करने का साहस दिया. क्या बाजारीकरण के बाद यह संभव हो सकेगा ?

इन कानूनों के बाद कृषि उत्पाद का मालिकाना हक बड़े काॅर्पोरेट घरानों के पास चला जायेगा और वही इनकी कीमतें तय करेंगे. जाहिर है काॅर्पोरेट घराने अधिक से अधिक मुनाफा कमाने के चक्कर में अनाज महंगी कीमत पर बाजार में बेचेंगे. महंगा अनाज गरीबों की थाली से दूर होता जायेगा और देश में कुपोषण की समस्या तेजी से बढ़ेगी.

बिजली संशोधन विधेयक 2020 की असलियत

खाद्यान्न संकट (Food crisis) से उबरने के लिये 1959 में उत्तर प्रदेश में राज्य विद्युत परिषद का गठन किया गया था. सरकारी नलकूपों के माध्यम से किसानों को सस्ते सिंचाई के साधन उपलब्ध कराये गये थे. इसके लगभग एक दशक बाद ही किसानों की कड़ी मेहनत से हरित क्रांति हुई और खाद्यान्न संकट समाप्त हो गया. मगर अब यूपी सरकार बिजली संशोधन विधेयक 2020 लेकर आयी है, जिसके पारित होने पर लगभग किसानों को 10 रुपये प्रति यूनिट बिजली के लिए चुकाने होंगे. यानी आज जो किसान 10 हाॅर्स पावर निजी नलकूप का लगभग 1700 रुपये प्रतिमाह भुगतान करते हैं, उन्हें 10 घंटे प्रतिदिन उपयोग पर हर महीने लगभग 23,963 रुपये का भुगतान करना पड़ेगा. इतना ही नहीं भू-जल स्तर काफी नीचे चले जाने से पेयजल के लिये भी ग्रामीण भारत को बिजली की बहुत ज्यादा कीमत चुकानी होगी.

भारत में किसान आंदोलनों का इतिहास

इतिहास गवाह है कि सत्ता और कृषक समाज का वर्ग संघर्ष प्राचीनकाल से ही चला आ रहा है राजसत्ता-जमींदार वर्ग और पूंजीवाद के माध्यम से कृषक समाज का शोषण शायद सभ्यता के विकास के साथ ही शुरू हो गया होगा. यह अनुभव किया गया है कि अलग-अलग सदियों में घटित कृषक आंदोलनों के अपने आदर्श, लक्ष्य और समझ रही है और इन्होंने ही 1857 के विद्रोह, स्वतंत्राता संघर्ष और उसके बाद भारत में भूमि सुधार की नींव रखी.

यह कृषक समाज (किसान, काश्तकार, बटाईदार, भूमिहीन कृषि मजदूर, गरीब कामगार और छोटे एवं सीमांत किसान) जिसकी 70 प्रतिशत हिस्सेदारी जनसंख्या में है, 21वीं सदी में भी आर्थिक एवं सामाजिक शोषण का शिकार है. भारतीय किसान समाज शुरुआत से आत्मनिर्भर, क्रांतिकारी, प्रगतिशील रहा है और भारत के सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक-सांस्कृतिक विकास का वाहक रहा है. यह वर्ग राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय (यूरोप, अमेरिका से लेकर एशिया तक) तौर पर सामाजिक-राजनीतिक परिवर्तन का साक्षी रहा है. निःसंदेह वर्ग-सत्ता का चरित्रा एवं रूप-काल के अनुसार परिवर्तित हुआ है लेकिन आजकल इसका एक रूप सहचर पूंजीवाद (क्रोनी-कैपटिलिज्म-सत्ता एवं पूंजीवाद का गठजोड़) के रूप में देखने को मिल रहा है.

पहले राजा एवं काश्तकार के बीच कोई मध्यस्थ नहीं था, न ही राजा अपने राज्य की सारी भूमि का मालिक होने का दावा करता था. वह केवल संरक्षक के बतौर उपज का एक हिस्सा पाने का हकदार था. राजा का भूमि लगान प्रारंभ में फसल उत्पादन के 1/12वें भाग (8.33 प्रतिशत) से लेकर अंग्रेजों के समय 9/10वें हिस्से (90 प्रतिशत) तक रहा.

ब्रिटिश भारत में स्थाई बंदोबस्त, महालबाड़ी एवं रैयतबाड़ी व्यवस्था के तहत 1/3 (33 प्रतिशत) से लेकर 9/10 भाग (90 प्रतिशत) फसल कर के रूप में ले लिया जाता था. पहले मध्यवर्ती/बिचैलिया का काम जमींदार करते थे और किसान/सर्वहारा वर्ग का शोषण होता था अब इस काम का जिम्मा पूंजीपति वर्ग के हाथों में है. इन बिन्दुओं पर भारत में किसान/कृषक आंदोलन/विरोध/विद्रोह होते आ रहे हैं और आंदोलनकारियों को सत्ता वर्ग द्वारा बागी, राजद्रोही (अब अर्बन नक्सल) जैसे नाम दिए जाते रहे हैं. क्या महात्मा गांधी, सरदार पटेल, सहजानंद सरस्वती, अर्बन नक्सल थे ? इतिहास गवाह है कि किसान आंदोलन का नेतृत्व केवल किसान/कृषक समाज द्वारा नहीं किया गया है, बल्कि समाज के बुद्धिजीवियों, संवेदनशील एवं प्रगतिशील विचारधारा वाले लोगों ने किया है.

भारत के प्रमुख किसान आंदोलन

अगर पिछले 200 वर्षों का इतिहास पलटकर देखा जाये तो बिहार (अब झारखंड) में संथाल विद्रोह (1855-56), बंगाल में नील (इंडिगो प्लान्टर) विद्रोह (1859-60), बंगाल के युशुफशाही परगना में पाबना विद्रोह (1872-75), पूना सार्वजनिक सभा के अंतर्गत जस्टिस रानाडे के नेतृत्व में महाराष्ट्र के पूना एवं अहमदनगर जिले में किसानों के द्वारा रैयतवारी व्यवस्था के अंतर्गत लगाये गए 50 प्रतिशत कर के खिलाफ किसानों का आंदोलन (1873-74) बाबा राम सिंह के नेतृत्व में कुका विद्रोह (1872), मुंडा विद्रोह (1820-32), केरल में मोपला विद्रोह (1921), पंजाब कृषक विद्रोह (1907), उत्तर प्रदेश में अवध का किसान आंदोलन (1918-22), महात्मा गांधी (पेशे से वकील) के नेतृत्व में बिहार में चंपारण आन्दोलन (1917), सरदार पटेल (पेशे से वकील) के नेतृत्व में गुजरात में खेड़ा (1921) एवं बारडोली (कर के खिलाफ) का किसान आंदोलन (1928) बेगार, बेदखली एवं नजराना के खिलाफ, अवध किसान सभा के बैनर तले बाबा रामचंद्र के नेतृत्व में उत्तर-प्रदेश के प्रतापगढ़, फैजाबाद (अयोध्या) का विद्रोह (1920), मापिला (मुस्लिम) कास्तकारों का विद्रोह (1921), 1930 के आस-पास चैकीदारी कर के खिलाफ आंदोलन, 1930 के दशक में आॅल इंडिया किसान सभा एवं स्वामी सहजानंद सरस्वती की अगुआई में किसान आंदोलन जिसका नारा ‘जमींदारी अवश्य समाप्त होनी चाहिए’, मालाबार (केरल) में किसान संगठन द्वारा सामंती-कर, फसल कर, एवं जमीन से बेदखली के खिलाफ आंदोलन (1934) बंकिम मुखर्जी के नेतृत्व में वर्दवान (बंगाल) में कैनाल टैक्स के खिलाफ आंदोलन, असम में करुना सिन्धु राॅय के नेतृत्व में सुरमा वैली में लगान के खिलाफ आंदोलन 1935 में उड़ीसा में मालती चैधरी के नेतृत्व में किसान मेनिफेस्टो को चुनाव मेनिफेस्टो का एक अंग बनाने के लिए आंदोलन (1936-37) के आस-पास महाराष्ट्र के किसानों द्वारा मनमाड से लेकर फैजपुर (321 km) तक यात्रा निकाली गई, ताकि लोगों को किसान संगठन के उद्देश्यों के बारे में जागरूक किया जा सके.

1938 में आंध्र प्रदेश में प्रोविंशियल किसान काॅम्फ्रेंस के तहत इकट्ठा हुए 2000 किसानों द्वारा किसान की मांगों (कर्ज से राहत) को लेकर लगातार 130 दिनों तक लगभग 2414 किलोमीटर यात्रा की गई, इस दौरान सैकड़ों मीटिंगें की गईं और लाखों किसानों से संवाद किया गया, 1100 पिटीशन लिए गए. बिहार प्रोविंशियल किसान सभा के बैनर तले स्वामी सहजानंद सरस्वती के नेतृत्व में पटना में लाखों किसानों द्वारा प्रदर्शन (1938), जिसका मुख्य नारा जमींदारी की समाप्ति था. 1939 में लाहौर किसान मोर्चा के द्वारा अमृतसर एवं लाहौर (तत्कालीन पंजाब) में कैनाल टैक्स एवं जल-कर के खिलाफ किसान आंदोलन, 1938-39 के आसपास बिहार में कार्यानंद शर्मा, यदुनंदन शर्मा और राहुल सांकृत्यायन द्वारा बकाश्त भूमि एवं अन्य भूमि पर मालिकाना हक के लिए किसान आंदोलनऋ बंगाल प्रोविंशियल किसान सभा के नेतृत्व में तेभागा आंदोलन (1946) आजाद भारत में संत बिनोबा भावे का भूदान आंदोलन (1950 से 1970) इस दौरान बिहार में जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में भूदान आंदोलन, तमिलनाडु के तंजावुर में मजदूर विद्रोह (1969), 1987 में पश्चिमी उत्तर प्रदेश में महेंद्र सिंह टिकैत के नेतृत्व में किसान आंदोलन, ओडिशा में पोस्को स्टील प्लांट के लिए जमीन अधिग्रहण के खिलाफ किसानों का 2011 में आंदोलन एवं महाराष्ट्र में 2017 का किसान आंदोलन.

महाराष्ट्र में 2017 के किसान आंदोलन को शेतकारी संगठन, किसान सभा ने धार दी थी. राज्य में किसानों का यह आंदोलन कृषि कर्ज माफी व बिजली बिल माफी को लेकर किया था. तब किसानों ने राज्यभर में महाराष्ट्र राज्य विद्युत बोर्ड के कार्यालयों को लाॅक करने की योजना बनायी थी. बिल का भुगतान नहीं करने पर कृषि पंपों के बिजली कनेक्शनों को काटने के खिलाफ यह आंदोलन शुरू हुआ था. किसानों ने तब एमएसपी की भी मांग की थी. किसानों ने सोयाबीन के लिए 3500 की एमएसपी मांगी थी. इसके साथ ही स्वामीनाथन कमेटी की सिफारिशें लागू करने की मांग रखी थी. अक्टूबर-नवंबर 2017 में हुए

इस आंदोलन में जेल भरो का आह्नान भी किया गया. किसानों ने नोटबंदी की वजह से जान गंवाने वाले किसानों को लेकर भी यह आंदोलन किया था.
महाराष्ट्र में मार्च 2018 में एक बड़ा किसान आंदोलन हुआ था. नासिक जिले से हजारों किसानों ने तब मुंबई की ओर कूच किया. करीब 30 हजार किसान मुंबई की ओर निकले थे और सरकार द्वारा रोकने की तमाम अपीलों को उन्होंने ठुकरा दिया था.

ये किसान कर्ज माफी की मांग को लेकर सड़क पर उतरे थे. मौसम में बदलाव होने से उनकी फसलें तबाह हो गई थी और किसान चाहते थे कि सरकार उनका कर्ज माफ करे. किसानों ने कहा था कि वे बिजली का बिल भी नहीं चुका पा रहे हैं, इसलिए उसे माफ किया जाए. साथ ही स्वामीनाथन कमेटी की सिफारिशों को लागू करने की मांग की गई. प्याज की कीमतें गिरने के बाद मंदसौर के किसान आंदोलन में पांच लोगों की जान चली गयी थी.

2017 के जून में मध्य प्रदेश के मंदसौर में एक बड़ा किसान आंदोलन हुआ, जिसमें पुलिस की गोलीबारी में पांच किसान मारे गये। छह जून 2017 को पुलिस ने प्रदर्शनकारी किसानों पर पफायरिंग की थी. मध्य प्रदेश के मालवा इलाके के जिलों- मंदसौर, नीमच, खरगौन, देवास, धार, इंदौर, रतलाम, उज्जैन, बडवानी में इस आंदोलन का प्रभाव था.

उस वक्त किसान कर्ज माफी की मांग व फसलों की बेहतर कीमत मांग रहे थे. किसानों की प्याज की फसलें बेहद सस्ती हो गई थीं, जिसे उन्होंने सड़कों पर फेक दिया था. एक जून 2017 से किसानों ने आंदोलन शुरू किया था.
देश में आज किसान आंदोलनों का एक स्वरूप ‘कुछ वस्तुओं का बहिष्कार हो गया है जैसे- अडानी एग्रो लोजिस्टिक कंपनी, पतंजलि के उत्पाद एवं जिओ मोबाइल/सिम का बहिष्कार. यह कोई प्लान नहीं है, यह स्वतःस्फूर्त है, क्योंकि इस प्रकार का बहिष्कार किसान आंदोलनों का एक हिस्सा रहा है. 1919 के अंत में किसान आंदोलनों के दौरान नाई-धोबी बंद का आंदोलन 1905 के आस-पास मैनचेस्टर के कपड़े एवं लिवरपूल के नमक बहिष्कार का आंदोलन.

यह संयोग है या फिर प्रयोग कि देश में अडानी एग्रो लोजिस्टिक कंपनी द्वारा देश में बड़े-बड़े वेयरहाउस/सिलोस बनाये जा रहे हैं. एक-एक वेयरहाउस/सिलोस की क्षमता 500000 मीट्रिक टन है. फूड काॅर्पोरेशन आॅफ इंडिया एवं अडानी एग्रो लोजिस्टिक कंपनी के बीच एक समझौता हुआ है, जिसके अनुसार पूरे देश में खेत से लेकर पूरी प्रोसेसिंग एवं भण्डारण का जिम्मा अडानी एग्रो लोजिस्टिक कंपनी को दे दिया गया है. 2019-20 में 341.32 लाख मीट्रिक टन का भण्डारण फूड काॅर्पोरेशन आॅफ इंडिया द्वारा किया गया था. फूड काॅर्पोरेशन आॅफ इंडिया द्वारा किया गया अनाज भण्डारण एक सुरक्षा कवच है, जिसका निजीकरण किया जा रहा है क्या यह चिंता की बात नहीं है ? शायद इसलिए भी किसान परेशान और आंदोलित हों ?

किसान आदांलनों की एक बड़ी कमजोरी रही है कि वह राजनीति से भी कभी-कभी प्रभावित हो जाती है, लेकिन इन आंदोलनों को अपने वर्ग संघर्ष एवं उनकी मांगों पर केन्द्रित रखा जाए तो यह बड़े और सतत बदलाव का वाहक हो सकते हैं ? आज भी किसान को केवल किसान ही नहीं समझा जाना चाहिए, बल्कि वह अपने आप में असली भारत है. भारत के किसान भारत एवं इंडिया दोनों का कवच हैं. ध्यान यह भी रखना चाहिए कि 2008 में आई मंदी के दौरान भारत की ग्रामीण अर्थव्यवस्था ने शाॅक आॅब्जर्वर का काम किया है. भारत को एकाएक अमेरिका बनाने की भूल एक ऐसे गर्त में धकेलने की कोशिश है, जहां से वापस यथास्थिति में वापस लौटने में 100 साल लग जायेंगे.

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