देशभर के किसानों को जनता के खिलाफ लाए गए तीन कानूनों से जूझते हुए तीन महीने बीत गए. अभी तक तो सरकार अपनी ही हांक रही है कि ये कानून किसानों के फायदे के लिए ही लाए गए हैं, और ये बात किसानों को क्यों नहीं समझ आ रही.
26 जनवरी से पहले तक तो सरकार कुछ संशोधन, लिखित आश्वासन और कानूनों को सस्पेंड करने तक भी गयी, पर उसके बाद सरकार की बोली बदल गयी. और हमारे किसान आन्दोलनजीवी, परजीवी के सर्टिफिकेट से नवाजे गए. सरकार ने इन्हें इतनी मजबूत किलेबंदी में बांधने की कोशिश शुरू कर दी, मानो ये अपने देश के नागरिक ही न हों और उन्हें जैसे देश की सीमा से बाहर ही धकेल दिया. कई लोगों ने यहां तक कहा कि देश की वास्तविक सीमा पर भी इतनी मजबूत किलेबंदी है क्या ?
खैर, किसान पहले से ज्यादा मजबूत इरादे, ताकत और व्यापकता के साथ ‘सीमाओं’ पर डटे हैं. और अब तो देश की जनता इन जुझारू किसानों को हाथों-हाथ अपनाते हुए इस आंदोलन को देशव्यापी आंदोलन बनाने की दिशा में लगातार आगे बढ़ रही है.
कुछ हज़ार किसानों से शुरू होकर अब ये आंदोलन कई लाखों की संख्या से गुजरते हुए करोड़ की ‘सीमा’ भी पार कर जाए तो आश्चर्य नहीं. पर क्या सरकार को ये हकीकत दिखाई नहीं पड़ रही है ? दिख तो रही है, पर मांंग मान लेगी तो 56 इंच छाती का क्या होगा ?
खैर,इस ऐतिहासिक आंदोलन की अभी तक की उपलब्धियों को कोई इनकार नहीं कर सकता और अब बात इन तीन कानूनों के रद्दी की टोकरी में फेंक देने तक भी सीमित नहीं रही.
इस आंदोलन की उपलब्धियां क्या हैं ?
जिस कोरोना की आड़ में इन कानूनों को जनता पर थोपा गया, वो कोरोना को इन किसानों ने तो हरा ही दिया. एक भी कोरोना केस इन तीन महीनों में नहीं आया. बॉर्डर तक मास्क पहन कर जाइये और फिर उतार दीजिए, नहीं तो किसानों के बीच अजनबी से दिखेंगे आप.
80 के दशक के पंजाबी राष्ट्रीयता के आंदोलन को उस वक्त की कांग्रेस सरकार ने बदनाम किया, भटकाया, दमन किया और ब्लू स्टार के नाम पर सिखों के पवित्र स्थान को तबाह किया. कई वर्षों तक सिखों को इस देश में दूसरे दर्जे के नागरिक की मानसिकता में रखने का प्रयास सरकार ने किया.
लेकिन इस आंदोलन की एक उपलब्धि ये है कि इस देश के सिख किसानों ने (अन्य किसानों के साथ हाथ मिलाकर) खुद को सही मायनों में देशभक्त साबित किया. उस पगड़ी की इज़्ज़त को फिर से बहाल किया जो हुक्मरानों द्वारा एक साजिश के तहत उछाली जा रही थी. अभी के शाशकों ने भी प्रयास तो किया है पर सफल नहीं हुए हैं.
इस आंदोलन की एक उपलब्धि ये है कि इसने सभी राजनीतिक दलों को सिर्फ अलग थलग ही नहीं कर दिया बल्कि उनके कार्यक्रमों को भी अलगाव में डाल दिया.
इस तरह इस देश की जनता ने साबित भी किया कि आंदोलनों को नेतृत्व देने की क्षमता और काबिलियत उनमें भरपूर है और इन तथाकथित लीडरों की उन्हें जरूरत नहीं.
यही काबलियत और क्षमता CAA और NRC के विरोध में देश का मुस्लिम समुदाय पहले ही साबित कर चुका है. ख़ासकर युवा लड़कियों और लड़कों ने नेतृत्व की बागडोर अपने हाथों में ली और धार्मिक लीडरों को परे रहने पर मजबूर किया.
आज कांग्रेस समेत सभी विपक्षी दल भरपूर हाथ पैर मार रहे हैं इस आंदोलन का श्रेय लेने का, लेकिन जो समझदारी और परिपक्वता इस आंदोलन ने पैदा कर दी है, वो इन अखौती नेताओं की दाल नहीं गलने देंगे, ये भरोसा है.
एक खास बात नोट करने वाली ये है कि अभी तक के किसान संघर्षो में हमें बड़ी उम्र के किसान ही दिखा करते थे लेकिन इस आंदोलन में नौजवानों ने, खासकर महिलाओं ने, न सिर्फ यह साबित किया कि किसान सिर्फ पुरुष नहीं होते महिलाएं भी होती हैं और नेतृत्व क्षमता महिलाओं में पुरुषों से कम नहीं होती.
इसी नेतृत्व क्षमता का परिचय देते हुए मजदूर वर्ग के हकों के लिए लड़ते हुए नवदीप कौर 12 जनवरी से जेल की सलाखों के पीछे है (अब रिहा हो चुकी है) और अपने साहस का परिचय देते हुए अडिग है.
एक बात और, अब लंगर शब्द किसी के लिए अजनबी नहीं रहा. पानी का लंगर, चाय का लंगर, दवाइयों का लंगर आदि. ये लंगर देश की साझी विरासत और ‘साझा चूल्हा’ की समझ को सामने लाए हैं. अब ये शब्द सिर्फ पंजाब तक सीमित न होकर देश का साझा लंगर बनने की तरफ है.
पिछले कई वर्षों से पंजाब एक खास किस्म के संताप से रूबरू हुआ. पंजाब की नौजवान पीढ़ी को नशे और ड्रग की लत में डूबोने की पूरी साजिश रची गयी और इस नशे की वजह से कई नौजवान मौत का शिकार हुए.
ये बात साबित करती है कि बेरोजगारी अगर इस कदर बेलगाम बढ़ती रही तो नौजवान पीढ़ी अपने तनाव और निराशा में ड्रग की तरफ खींचती चली जाती है और शासन में बैठे लोग इसे बढ़ावा भी देते हैं. लेकिन पिछले छह महीनों में ड्रग से मरने की सिर्फ एक खबर मिली है. ये इस आंदोलन की देन है. पंजाब के नौजवानों को एक उम्मीद दिखाई दी है इस आंदोलन से और उन्होंने बढ़-चढ़ कर इसमें हिस्सा लिया है.
आपको याद होगा कि कभी पानी के नाम पर, कभी चंडीगढ़ के नाम पर पंजाब और हरयाणा के बीच में कितनी नफरत फैलाई गई थी और नेताओं ने इसे भरपूर हवा भी दिया था, पर इस किसान आंदोलन ने उस भाईचारा को दुबारा स्थापित किया जो कि देश के इस हिस्से की खासियत रहा है.
हरियाणा के बॉर्डर पर पंजाब के किसानों का जो स्वागत देखने को मिला है, वह काबिले-तारीफ है. हरियाणा के किसानों ने पूरे मोर्चे के लंगर की जिम्मेवारी अपने ऊपर ली है, जो अभी तक जारी है, ये बेमिसाल है. ये समर्थन किसी योजना के तहत नहीं बल्कि स्वाभाविक इंसानियत गुणों की देन है. जब मेरा पड़ोसी दिक्कत में है तो मैं आगे बढ़ कर उसकी मदद करूंंगा ही. एक-एक गांव से 500 लीटर दूध लेकर आना कोई मज़ाक नहीं. जनता महान है.
एक किसान से पत्रकार ने पूछा कि ‘पंजाब से तो पानी को लेकर आपका झगड़ा है’ तो उसने कहा ‘जब ज़मीन ही नहीं बचेगी तो पानी का करेंगे क्या ? अभी तो हम मिलकर अपनी जमीन बचा लें फिर मिल बैठकर पानी का मसला भी सुलझा लेंगे.’ वाह वाह !!
पंजाबी गानों को लेकर मुझे हमेशा से एक एलर्जी रही क्योंकि बहुत वल्गर गाने प्रचलन में रहे हैं पर इन छह महीनों में इतने क्रांतिकारी और संघर्ष के गाने सुनने को मिले हैं. लोग कितने रचनात्मक हो सकते हैं, यह समझ बनी. संघर्ष ही नई चेतना और काबलियत को पैदा कर सकता है, इसका भरोसा भी बढ़ गया.
और अंत में, इस आंदोलन ने पिछले 7 साल से देश भर में फैलाए गए एक एजेंडा को काफी पीछे कर दिया, वो है – राष्ट्रवाद की आड़ में हिन्दू राष्ट्र का एजेंडा. स्वाभाविक वर्गीय एकता को धर्म के नाम पर तोड़ने की साजिश को इस प्रकार के आंदोलन ही बचा कर रख सकते हैं और मजबूत बना सकते है. सिर्फ किसान आंदोलन ही नहीं, बेहतर समाज के निर्माण में सभी वर्गों के आंदोलन निर्मित करने का प्रयास और तेज़ हो, ये इशारा इस किसान आंदोलन ने हमें दिया है.
एक सुझाव इस आंदोलन को यह भी है कि अगर मजदूर वर्ग के खिलाफ इसी दौरान लाए गए कानूनों को रद्द करवाने के संघर्ष को भी इसके साथ जोड़ दिया जाए तो ये आंदोलन न सिर्फ बहुत ऊंचाइयों तक लेकर जाया जा सकता है बल्कि “किसान मजदूर एकता” के नारे को वास्तविक भी बनाया जा सकता है। परंतु ये जिम्मेवारी मजदूर वर्ग संगठनों की भी है.
दीवार पर लिखी इबारत को पढ़ते हुए, समझते हुए, खूबसूरत भविष्य की कामना में इस आंदोलन को कोटि कोटि सलाम. मजदूर वर्ग के नेतृत्व में सभी वर्गों की एकता जिंदाबाद !
- कुलबीर
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