देश भर के किसान दिल्ली की बाहरी सीमा पर विराट प्रदर्शन कर रहे हैं क्योंकि केन्द्र की अपराधी और कॉरपोरेट घरानों के नौकर मोदी सरकार उन्हें दिल्ली जाने नहीं दे रही है. किसानों की स्पष्ट मांग है कि किसानों को कॉरपोरेट घरानों का गुलाम बनाने वाली तीन किसान विरोधी कानूनों को रद्द किया जाये.
कॉरपोरेट घरानों का नौकर नरेन्द्र मोदी वार्ता के नाम पर किसान आंदोलन को लंबा खींचना चाह रही है ताकि आंदोलन को थका दिया जाये अथवा, बदनाम कर खत्म कर दिया जाये. इससें सबसे महत्वपूर्ण है आंदोलन का स्पष्ट नजरिया, जिसे नौकर नरेन्द्र मोदी किसी भी तरह डिगा नहीं पा रही है.
यह धारणा बनाई जा रही है कि किसान आंदोलन में पंजाब से आए किसान अमीर और बड़े हैं, बेबुनियाद है. पंजाब में बड़ी जोत यानी दस हेक्टेयर से अधिक की ज़मीनों की संख्या देश में भले अधिक है लेकिन पंजाब में ही 64 प्रतिशत ज़मीनें छोटी जोत की हैं यानी चार हेक्टेयर से कम की. आंदोलन में आए किसानों से बात करें तो किसी के पास तीन एकड़ ज़मीन है तो किसी के पास पांच एकड़. सब क़र्ज़ से दबे हैं.
इन छोटे किसानों को पता है कि सरकारी ख़रीद उन्हें संरक्षण देती है तभी वे कुछ और भी कर पाते हैं. इसका मतलब यह नहीं कि अमीर हो जाते हैं बल्कि जी पाते हैं. इस आंदोलन में शामिल ज़्यादातर किसान छोटे और मंझोले किसान ही हैं.बड़े किसान भी हैं लेकिन उनकी तादाद कम हैं. आप ऐसे देखें, इस देश में 86 प्रतिशत ज़मीनें दो तीन एकड़ से कम आकार की हैं तो बड़े किसानों का आंदोलन कभी किसान आंदोलन हो ही नहीं सकता.
किसान आंदोलन में गोदी मीडिया की भूमिका
कृष्ण कांत लिखते हैं : मीडिया इस पर बहस नहीं करता कि सरकार किसान विरोधी कानून क्यों लाई ? मीडिया इस पर भी बात नहीं करता कि सरकार किसानों के संसाधन छीनकर कृषि बाजार को पूंजीपतियों का गुलाम क्यों बनाना चाहती है ? मीडिया प्रोपेगैंडा पर बहस करता है कि किसानों को कोई ‘भड़का’ रहा है. क्या मीडिया ने ईमानदारी से ये बताने की कोशिश की कि किसान संगठनों के विरोध के कारण जायज हैं ? जनता की तरफ से दूसरी आवाज विपक्ष की हो सकती थी, अगर वह मुर्दा न होता !
नए कानून से कृषि क्षेत्र भी पूंजीपतियों और कॉरपोरेट घरानों के हाथों में चला जाएगा और इसका सीधा नुकसान किसानों को होगा. इन तीनों कृषि कानूनों के आने से ये डर बढ़ गया है कि ये कानून किसानों को बंधुआ मजदूरी में धकेल देंगे. ये विधेयक मंडी सिस्टम खत्म करने वाले, न्यूनतम समर्थन मूल्य खत्म करने वाले और कॉरपोरेट ठेका खेती को बढ़ावा देने वाले हैं, जिससे किसानों को भारी नुकसान होगा.
बाजार समितियां किसी इलाक़े तक सीमित नहीं रहेंगी. दूसरी जगहों के लोग आकर मंडी में अपना माल डाल देंगे और स्थानीय किसान को उनकी निर्धारित रकम नहीं मिल पाएगी. नये विधेयक से मंडी समितियों का निजीकरण होगा. नया विधेयक ठेके पर खेती की बात कहता है. जो कंपनी या व्यक्ति ठेके पर कृषि उत्पाद लेगा, उसे प्राकृतिक आपदा या कृषि में हुआ नुक़सान से कोई लेना देना नहीं होगा. इसका नुकसान सिर्फ किसान उठाएगा.
अब तक किसानों पर खाद्य सामग्री जमा करके रखने पर कोई पाबंदी नहीं थी. ये पाबंदी सिर्फ़ व्यावसायिक कंपनियों पर ही थी. अब संशोधन के बाद जमाख़ोरी रोकने की कोई व्यवस्था नहीं रह जाएगी, जिससे बड़े पूंजीपतियों को तो फ़ायदा होगा, लेकिन किसानों को इसका नुक़सान झेलना पड़ेगा. किसानों का मानना है कि ये विधेयक ‘जमाख़ोरी और कालाबाज़ारी की आजादी’ का विधेयक है. विधेयक में यह स्पष्ट नहीं है कि किसानों की उपज की खरीद कैसे सुनिश्चित होगी ? किसानों की कर्जमाफी का क्या होगा ?
नए कानूनों से जो व्यवस्था बनेगी उसकी दिक्कत ये है कि इस बात की कोई गारंटी नहीं है कि मंडियों के समाप्त होने के बाद बड़े व्यवसायी मनमाने दामों पर कृषि उत्पादों की खरीद नहीं करेंगे. सरकार को न्यूनतम समर्थन मूल्य को बाध्यकारी और उसके उल्लंघन को कानूनी अपराध घोषित करना चाहिए था. यही किसानों की मांग है, लेकिन सरकार उनकी बात सुनने की जगह प्रोपेगैंडा फैलाने में लगी है. ये कृषि कानून स्पष्ट तौर पर किसानों के विरोध में और बड़े व्यावसायिक घरानों के पक्ष में हैं.
सरकार के पास पुलिस बल की ताकत है, हो सकता है सरकार लाठी और गोली चलाकर जीत जाए, लेकिन उस बर्बादी का क्या होगा जो इन कानूनों से संभावित है ?सबसे पते का सवाल ये है कि आप अपनी जनता की बात सुनने की जगह जनता से ही भिड़ने की हिमाकत क्यों कर रहे हैं ? मार्च कर रहे किसान पंजाब और हरियाणा के बॉर्डर पर स्थित इस पुल पर पहुंचे तो आंसू गैस के गोले छोड़ दिए गए. क्या पुलिस चाहती थी कि लोग पुल से नीचे कूद जाएं ? ये निहायत ही क्रूरतापूर्ण कार्रवाई है.
किसानों का प्रदर्शन शुरू होते ही गोदी मीडिया काम पर लग गया है. कोई बता रहा है कि किसानों को भड़का दिया गया है. कोई बता रहा है कि ये कांग्रेस का षडयंत्र है. कोई बता रहा है कि देश को अस्थिर करने की साजिश है. इन गदहों से पूछे कि तीन किसान बिल किसने पास किया है जिसका विरोध हो रहा है ? अगर सरकार के कानून का विरोध हो रहा है तो क्या सरकार खुद ही देश को अस्थिर करना चाहती है ? इस बात में थोड़ा सा दम है. सरकार खुद ही इस देश को दर्जन भर पूंजीपतियों के हाथ में सौंपना चाहती है, बिना ये सोचे कि इसका अंजाम क्या होगा ?
ये कितना शर्मनाक है कि किसानों से बातचीत करने की जगह पुलिस लगा दी गई है. जगह जगह पुलिस और किसानों में संघर्ष की खबरें हैं. लाठी, आंसू गैस और वाटर कैनन चार्ज किए जा रहे हैं. भाषण देने को कहो तो सारे टुटपुंजिए किसानों के कल्याण पर 500 किलोमीटर लंबा भाषण ठेल दें.
किसान आन्दोलन का ऐतिहासिक महत्व
सरकार की ग़लतफ़हमियांं दूर होती हैं या किसानों की हिम्मत टूटती है, यह तो समय बतायेगा लेकिन इतिहास की इस सीख के दौरान देश भर के किसानों में न केवल वर्ग चेतना के दर्शन हो रहे हैं बल्कि उनकी आपसी एकता भी ऊंंचे धरातल पर है. किसानों की इस वर्ग एकता के सामने अंधराष्ट्रवाद और धर्मांन्धता के आधार पर चलाये जा रहे ध्रुवीकरण की ज़मीन खिसकती दिख रही है.
यह वर्ग एकता कितने रूपों में व्यक्त हो रही है, यह आंदोलन की ख़बरों से जाना जा सकता है. दिल्ली के गांंव-गांंव से लोग सेवा और सहायता के लिए पहुंंच रहे हैं. पूरे हरियाणा के किसान इन आंदोलनकर्मियों की मदद कर रहे हैं. महाराष्ट्र के किसानों ने दिल्ली आने के लिए नाम लिखाया है. बिहार और बंगाल के लोग सड़कों पर हैं. देश का कोई कोना नहीं है जहांं किसान लड़ न रहे हों या इन आंदोलनकारी किसानों का समर्थन न कर रहे हों.
किसानों की इस वर्ग एकता का असर यह है कि मज़दूर भी उनके समर्थन में आ गये हैं. हर क्षेत्र के खिलाड़ी आंदोलन के लिए समर्थन दे रहे हैं. कृषि समाज से जुड़ी खाप पंचायतें भी संकीर्ण पूर्वाग्रहों से निकलकर आंदोलन के पक्ष में खड़ी हो गयी हैं. अब तो यहांं भी ‘सम्मान-वापसी’ शुरू हो गयी है. पद्म-पुरस्कार वापस करने का तांंता शुरू हो गया है. इसे ‘पुरस्कार वापसी गैंग’ का नाम दिया जायेगा या नहीं ?
मध्यवर्ग के कुछ हिस्सों और आरएसएस के शाखामृगों को छोड़कर बाक़ी सब धीरे-धीरे किसानों के साथ चल रहे हैं. इससे पता चलता है कि आज भी यह देश किसानों पर निर्भर है और किसान हमारे समाज की धुरी है. इन किसानों में जाति-धर्म से ऊपर उठकर अपने हितों के प्रति जागरूकता देश के जनतांत्रिक भविष्य के लिए शुभ संकेत है. जिस समय राजनीति में घनघोर अंंधेरा मालूम हो रहा था, उस समय भारत में उभरती हुई यह नयी वर्ग चेतना बताती है कि पूंंजीवादी संकट के भीतर से ही परिवर्तन के स्रोत निकलते हैं.
मैं फिर कहता हूंं कि यह आंदोलन कितना सफल होगा, इससे अधिक महत्वपूर्ण है कि इसने नयी संभावनाएंं उद्घाटित की हैं. यदि किसान सफल होते हैं तो अंधाधुंध कॉरपोरेटीकरण से सरकार को कदम खींचने पड़ेंगे और यदि किसान असफल होते हैं तो व्यापक असंतोष पैदा होगा. दोनों बातें देश और समाज के लिए हितकर होंगी. दोनों परिणाम अमरीका निर्देशित रास्ते से भारत को हटाने में सहायक होंगे.
इसलिए किसानों की यह नयी वर्ग एकता भारत के लिए ही नहीं, दुनिया के लिए भी महत्वपूर्ण है. जैसे भारत की आज़ादी की लड़ाई ने दुनिया पर असर डाला, वैसे ही किसानों की वर्ग चेतना और उनका वर्ग संघर्ष भी असर डालेगा. यह हमारा उत्साही आशावाद नहीं, इतिहास की सीख है. इसलिए हम किसान संघर्ष का तहेदिल से समर्थन करते हैं.
जनद्रोही डंकल प्रस्ताव का विस्तार है यह कृषि कानून
जनविरोधी कृषि कानूनों को समग्रता में समझना जरूरी है. साथ ही इसके पीछे के इतिहास पर भी सरसरी नजर डालना जरूरी है. इसे मोदी सरकार की सनक या क्रोनी कैपिटलिज्म के तहत अडानी-अम्बानी की तिजोरी भरने से कहीं घातक, धनी किसानों और कारपोरेट के बीच मुनाफे के झगड़े से कहीं जटिल मुद्दे के रूप में देखने की जरूरत है.
साम्राज्यवादी समूह ने 1944 में ब्रेटन वुड समझौते के तहत विश्व बैंक-मुद्राकोष के साथ स्थापित कुख्यात गैट व्यापार समझौते में कृषिक्षेत्र को शामिल करने के लिए अस्सी के दशक में डंकल प्रस्ताव लाया था. उनका मकसद विश्व व्यापार के समझौतों में सेवा क्षेत्र, ज्ञान उद्योग और कृषि क्षेत्र को भी शामिल करना था, ताकि उनको चिरस्थाई आर्थिक संकट में फंसी अपनी विश्व पूंजीवादी व्यवस्था के लिए निवेश और मुनाफे का नया इलाका हासिल हो.
डंकल प्रस्ताव पर काफी विवाद हुआ, खास तौर पर यूरोपीय देशों और जापान के साथ जी 7 के चौधरी अमरीका को काफी मगजमारी करनी पड़ी. और आखिरकार जब गैट की जगह विश्व व्यापार संगठन (डब्लूटीओ) बना तो उसमें कृषि और कृषि व्यापार को भी शामिल कर लिया गया. भारत सरकार डब्लूटीओ पर दस्तखत कर चुकी है और उसके नियमों से बंधी है.
इसी करार के तहत भारत सरकार को अपने देश की कृषि और कृषि व्यापार को विदेशी बहुराष्ट्रीय निगमों के लिए खोलना लाजिमी है. नये कृषि कानूनों के शब्दजाल को हटाकर देखें तो इसका सीधा मतलब है – ठेका खेती के जरिये किसानों को बहुराष्ट्रीय निगमों और उनके सहयोगी देशी पूंजीपतियों की मर्जी का गुलाम बनाना, अनाज व्यापार पर सभी सरकारी नियंत्रण हटाना, जमाखोरी, कालाबाजारी और सट्टेबाजी की बेलगाम छूट देना, फसलों की खरीद और कीमतों पर कोई सरकारी दखल न होना, रही-सही खाद्य सुरक्षा और सार्वजनिक वितरण प्रणाली को भी मटियामेट करना, कुल मिलाकर खेती को अपने देशवासियों का पेट भरने की जगह देशी-विदेशी पूंजीपतियों के मुनाफे की हवस का कारोबार बनाना.
यह कैसी विडम्बना है, हमारे दौर का कैसा व्यंग्य है कि जिनको हमने डंकल प्रस्ताव का प्रबल विरोध करते देखा था, वे ही आज डब्लूटीओ के तहत बनायी गयी कृषि कानूनों के खिलाफ आन्दोलनरत किसानों का विरोध कर रहे हैं.
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