Home गेस्ट ब्लॉग अपहरण : सामंतवादी समाज में नायक बनने की पहली शर्त

अपहरण : सामंतवादी समाज में नायक बनने की पहली शर्त

2 second read
0
0
625
Subrato Chatterjeeसुब्रतो चटर्जी

अपहरण एक मामूली शब्द, जिसकी जड़ें हमारी संस्कृति में गहरी समाई हुई है. गंगा पुत्र से लेकर पृथ्वी राज चौहान तक हमारे मानस पुत्र और अनगिनत देवता अपहरण को ऐसा औचित्य और सामाजिक स्वीकृति दे गए हैं कि साधु यादव के समय जब बिहार में अपहरण एक व्यवसाय बन कर उभरा तो मुझे तनिक भी आश्चर्य नहीं हुआ था.

सामंतवादी समाज में बलप्रयोग नायक बनने की पहली शर्त है और वीभत्स रस के इस काल खंड में यह स्वाभाविक ही है. जब आप अपने चहेते नायकों के शरीर सौष्ठव को देखने, सराहने के लिए ब्लैक में सिनेमा का टिकट लेते हैं, तब आप नायक और खलनायक के भेद को अस्वीकार कर पशुत्व का महिमामंडन करते हैं.

ऐसा इसलिए कि पाशविकता का पुजारी समाज ही बौद्धिक बल या चारित्रिक बल के उपर शारीरिक बल को महत्व देता है. क्रमशः यही प्रवृत्ति आपको किसी ख़ूंख़ार अपराधी या अपराधियों के गिरोह का पिछलग्गू बना देता है. जिस देश में राम को भी रावण को पराजित करने के लिए शक्ति पूजा करनी पड़ती है, उस देश में शक्ति सर्वोपरि स्थान स्वत: ग्रहण कर लेती है; विशेष कर पाशविक शक्ति.

इसलिए, शक्ति वाण से मूर्छित लक्ष्मण के लिए संजीवनी बूटी की तलाश में हनुमान को गंधमादन पर्वत उठाना पड़ता है. यानि, ज़्यादा शक्ति का प्रदर्शन करना पड़ता है. शारीरिक या पाशविक शक्ति का यह मुज़ाहिरा रोम के ग्लैडिएटर से चल कर कब स्त्री पुरुष के संबंधों को परिभाषित करते हुए बलात्कार का रूप ले लिया, हमें पता ही नहीं चला.

इसी तरह, मौखिक या शाब्दिक शक्ति का प्रदर्शन भी कमज़ोर दिमाग़ को अपने प्रभाव में ले लेता है. सिनेमा के पर्दे पर तो कई नायक अपनी दमदार डायलॉग डिलीवरी से अपनी सीमित अभिनय क्षमता को दशकों तक ढँकने में सफल रहे हैं. बात जब राजनीति की आती है तो हुंकार रैली, तेल पिलावन रैली से चलकर भैयों और बैनों तक एक स्वाभाविक उत्क्रमण की प्रक्रिया दिखती है.

विगत कई सालों में दहाड़ने, गरजने वाले नपुंसक जनविरोधी नेताओं की भीड़ भाजपा के सौजन्य से भारतीय जनमानस को अपने क़ब्ज़े में ले लिया है, जिसके सिरमौर हैं अंबानी अदानी का पाला हुआ एक बेचारा देसी कुत्ता, जो अपने ब्रांड की मार्केटिंग रेडियो पर करता है.

संविधान, न्यायालय, कार्यपालिका और संसद के अपहरण के जिस दौर में हम जी रहे हैं. उसकी शुरुआत मिथ्या प्रचार द्वारा सत्य के अपहरण द्वारा कैसे शुरु हुई थी, अब एक खुला रहस्य है.

मैं इस घिनौनी राजनीति और उसके घिनौने भक्तों की बात कर अपना समय और उर्जा नष्ट नहीं करना चाहता. मेरा अभिप्राय सिर्फ़ हमारे सड़े गले समाज की उन सड़ी गली मान्यताओं एवं मूल्यबोधों पर चर्चा करना है, जो किसी जघन्य क्रिमिनल लोगों के गिरोह को राजनीतिक सत्ता के केंद्र में स्थापित कर अपने नपुंसकता का साईन बोर्ड गर्व से अपने गले में लटकाए घूमता है.

जैसा कि पहले कहा, हमारे सामाजिक मूल्यबोध के क्षरण का रोना जो रोते हैं, उनकी समझ में यह नहीं आता कि जिन ऊँचे मूल्यों की बात हम करते हैं, वे दरअसल विक्टोरिया के ज़माने के यूरोपीय मूल्य बोध हैं.

भारतीय इतिहास के किसी भी कालखंड में सांप्रदायिक सौहार्द, लोकतांत्रिक मूल्यों और मानवतावाद की कोई परंपरा नहीं रही. सामन्तवाद, राजशाही और विदेशी शक्तियों की ग़ुलामी के अभ्यस्त यह करोड़ों नपुंसकों का देश अंग्रेज़ों के आने के बाद ही बंगाल के नवजागरण के बाद इन आधुनिक मूल्य बोधों से परिचित हुआ.

भारत को एक देश के रूप में राजनैतिक रूप से स्थापित करने की औपनिवेशिक विवशता के साथ-साथ ही क़ानून के माध्यम से आधुनिक सोच और मूल्यबोधों को स्थापित करने की जो कोशिश अंग्रेज़ों ने की, उनका अल्पायु होना लाज़िमी था.

हम विधायिका के हस्तक्षेप से वह सब हासिल करने की जल्दी में थे, जिन्हें दूसरे समाज ऐतिहासिक प्रक्रिया के ज़रिए प्राप्त कर रहे थे या प्राप्त कर चुके थे. नतीजा तो तय था. आज़ादी के बाद की तीसरी पीढ़ी आते आते हम फिर से उसी मानसिक विच्छिन्नता के शिकार हो गए, जो हमें हज़ारों सालों तक ग़ुलाम बनाए रखने के लिए ज़िम्मेदार था.

हम संचार माध्यम के सारे पाश्चात्य तकनीक के सहारे पश्चिमी सभ्यता और अंग्रेज़ी भाषा को गरियाने वाले दोगले हैं. हम पश्चिमी ज्ञान विवेक और समझ के आधार पर लिखित एक बुर्जुआ संविधान की रक्षा के लिए संविधान जलाने वाले क्रिमिनल लोगों को चुनने वाले दोगले हैं.

हम काल्पनिक इश्वर की रक्षा के लिए वास्तव मनुष्य की बलि लेने वाले दोगले हैं. दोगलापन के इस राष्ट्रीय चरित्र में न्याय का अपहरण एक स्वाभाविक प्रक्रिया है. अपहरणकर्ताओं का सांख्यिकी बल हमें सम्मोहित भी करता है और भयभीत भी. हम सूनी गलियों में वर्दी धारी चोरों के बूटों की आवाज़ सुनकर अपने बिस्तर के नीचे दुबके हुए डरपोक हैं, जो सोशल मीडीया की आज़ादी का तभी तक इस्तेमाल करते हैं जब तक अपहृत सुप्रीम कोर्ट हमें अपने घाघरे के नीचे आश्रय देता है.

बात जब सड़क पर लड़ने की चलती है तब हम जटायु तो क्या एक गिलहरी भी नहीं बन पाते. अपनी कायरता को अहिंसा का नाम दे कर हमारे जुझारू ट्रेड यूनियन भी मरणासन्न हो गए हैं. मसीहा की तलाश में हिजड़ों का यह विशाल देश आशा करता है कि शायद किसानों का यह आंदोलन मुक्ति का कोई पथ निकाले.  बेरोज़गारों का क्षणिक उबाल शायद फ़ासिस्ट सत्ता को उखाड़ फेंकने के काम आए. यक़ीन मानिए, ऐसा कुछ भी नहीं होने वाला. न ही बुद्धिजीवी वर्ग का जनता से कटाव के कारणों पर बड़े बड़े भाषण देने से कोई फ़ायदा होगा.

सवाल है कि हम कहाँ चूक गए ? दरअसल हम इमानदार होने से चूक गए, अपने प्रति और अपने समाज के प्रति. याद रखिए, कुसंस्कार, अज्ञान, व्यभिचार, इश्वर, भाग्य और स्वार्थ से समझौता ही सबसे बड़ी बेईमानी है.

निज़ाम बदलते रहे हैं और बदलते रहेंगे. कोई अमर नहीं होता लेकिन जो कुछ हमारे अंदर मर चुका है, उसे जिलाए बिना हम किसानों की लड़ाई को हरिवंश जैसे नपुंसकों को कोसने तक सीमित कर देंगे. अपहरण का नतीजा अक्सर बलात्कार ही होता है, रावण जैसे एकाध अपवादों को छोड़ कर.

Read Also –

 

[प्रतिभा एक डायरी स्वतंत्र ब्लाॅग है. इसे नियमित पढ़ने के लिए सब्सक्राईब करें. प्रकाशित ब्लाॅग पर आपकी प्रतिक्रिया अपेक्षित है. प्रतिभा एक डायरी से जुड़े अन्य अपडेट लगातार हासिल करने के लिए हमें फेसबुक और गूगल प्लस पर ज्वॉइन करें, ट्विटर हैण्डल पर फॉलो करे…]

Load More Related Articles
Load More By ROHIT SHARMA
Load More In गेस्ट ब्लॉग

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Check Also

नारेबाज भाजपा के नारे, केवल समस्याओं से लोगों का ध्यान बंटाने के लिए है !

भाजपा के 2 सबसे बड़े नारे हैं – एक, बटेंगे तो कटेंगे. दूसरा, खुद प्रधानमंत्री का दिय…